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महाकुंभ: भारत की सांस्कृतिक विरासत की अक्ष्क्षुण यात्रा

पौराणिक कथाएँ और कुंभ मेला

Dr Alok Kumar Dwivedi द्वारा Dr Alok Kumar Dwivedi
17 January 2025
in चर्चित, ज्ञान
Mahakumbh 2025

Mahakumbh 2025

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योगी सरकार के नेतृत्व में संगम नगरी प्रयागराज इन दिनों 144 वर्षों बाद आयोजित 45 दिवसीय महाकुंभ (MahaKumbh 2025) के ऐतिहासिक और भव्य क्षणों की साक्षी बन रही है। अब तक लगभग 7 करोड़ श्रद्धालु त्रिवेणी संगम में पवित्र स्नान कर चुके हैं, जबकि महाकुंभ के शुरुआती तीन दिनों में ही 3 करोड़ से अधिक भक्तों ने अपनी आस्था प्रकट करते हुए स्नान किया है।

त्रिवेणी में करोड़ों श्रद्धालुओं की मोक्ष की कामना
MahaKumbh में करोड़ों श्रद्धालुओं की मोक्ष की कामना
भारत की सांस्कृतिक विरासत और आध्यात्मिक आस्था की यह अद्वितीय यात्रा न केवल वर्तमान में आस्था का संगम है, बल्कि पौराणिक कथाओं में वर्णित अमृत कुंभ की दिव्य कथा से भी जुड़ी हुई है। पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार, ऋषि दुर्वासा के शाप से इंद्र और अन्य देवता शक्तिहीन हो गए। असुरों ने इसका लाभ उठाकर देवताओं को पराजित कर दिया। संकट से बचने के लिए देवताओं ने भगवान विष्णु से सहायता मांगी। विष्णुजी ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन कर अमृत निकालने का सुझाव दिया। प्राचीन काल में देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया था। इस मंथन से 14 दुर्लभ रत्न प्रकट हुए, जिनमें अमृत से भरा कुंभ (घट) भी शामिल था। जब अमृत का कुंभ प्रकट हुआ, तो देवराज इंद्र के पुत्र जयंत उसे लेकर आकाश में उड़ गए।

दैत्यगुरु शुक्राचार्य के निर्देश पर दानवों ने जयंत का पीछा किया और अमृत-कुंभ को छीनने का प्रयास किया। देवताओं और दानवों के बीच यह संघर्ष 12 दिव्य दिनों (जो मनुष्यों के 12 वर्षों के बराबर होते हैं) तक चला। इस दौरान सूर्य, चंद्र और देवगुरु बृहस्पति ने अमृत-कुंभ की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस संघर्ष के दौरान, प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में अमृत की कुछ बूँदें गिर गईं। यही कारण है कि इन चार स्थानों को पवित्र तीर्थ माना जाता है, और यहां प्रत्येक 12वें वर्ष कुंभ का आयोजन होता है।

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कुंभ मेला: आयोजन की तिथि और स्थान निर्धारण का रहस्य

कुंभ मेला भारतीय ज्योतिषीय गणनाओं और ग्रहों की विशेष स्थिति पर आधारित है। इसके आयोजन में सूर्य, बृहस्पति, चंद्रमा, और शनि की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। कुंभ मेले की तिथि और स्थान का निर्धारण ज्योतिषीय राशियों के आधार पर किया जाता है। जब सूर्य और बृहस्पति एक विशेष राशि में प्रवेश करते हैं, तो उसी समय कुंभ मेले का आयोजन होता है।

पौराणिक कथा के अनुसार,

  •  चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया।
  •  गुरु (बृहस्पति) ने कलश को छिपाया।
  • सूर्य ने कलश को टूटने से बचाया।
  • शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की।

इसीलिए इन ग्रहों की विशेष युति को कुंभ मेला आयोजन के लिए शुभ माना जाता है।

स्थान और तिथि निर्धारण के नियम

1. प्रयागराज

  • जब बृहस्पति वृषभ राशि में और सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं, तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है।
  • यह स्थान पौराणिक दृष्टि से विशेष है क्योंकि अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, चंद्र, गुरु, और शनि ने अपनी भूमिका निभाई थी।

2. हरिद्वार

  • जब सूर्य मेष राशि और बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं, तब हरिद्वार में कुंभ मेले का आयोजन होता है।

3. नासिक

  • जब सूर्य और बृहस्पति सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, तब यह मेला नासिक में मनाया जाता है।

4. उज्जैन

  •  जब बृहस्पति सिंह राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करते हैं, तब उज्जैन में कुंभ मेले का आयोजन होता है।
  • उज्जैन में कुंभ को सिंहस्थ कुंभ कहा जाता है, क्योंकि इसका संबंध सिंह राशि से है।

 

चक्र और आयोजन का क्रम

  • हर 12 वर्ष बाद कुंभ मेले का आयोजन एक ही स्थान पर होता है, क्योंकि बृहस्पति को एक चक्र पूरा करने में 12 वर्ष लगते हैं।
  • निर्धारित चार स्थानों (प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन) में हर तीन वर्ष में बारी-बारी से कुंभ का आयोजन होता है।

गंगा की केन्द्रीयता और कुंभ मेले का सांस्कृतिक महत्व

अमृत के मिथक से जुड़ी एक अन्य व्याख्या यह है कि वैदिक काल में “अमृत” का अर्थ खाद्यान्न था। (डी.पी. दुबे, ‘कुंभ मेला-महाकुंभ में एक वैकल्पिक व्याख्या’, संपादक नीलाभ, लखनऊ टाइम ऑफ इंडिया, 2013, 99-101) महाकाव्य और पौराणिक युग में गंगा और जल को विशेष महत्व प्रदान करते हुए उनकी व्याख्या बदल गई। वैदिक युग में खाद्यान्न भारत में कृषि की शुरुआत और समृद्धि का प्रतीक था, जबकि पौराणिक काल में गंगा को जीवनदायिनी और कृषि के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हुए अमृत का प्रतीक बना दिया गया।

कुंभ मेले का आयोजन इसी अमृत से संबंधित पौराणिक कथा और गंगा के महत्व को उत्सव के रूप में मनाने का माध्यम है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, जिन चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं, उनमें हरिद्वार और प्रयागराज गंगा के तट पर स्थित हैं। नासिक, जो गोदावरी नदी के तट पर स्थित है, को पुराणों में ‘गौतमी गंगा’ के नाम से भी संबोधित किया गया है (ब्रह्म पुराण, 78.77)। उज्जैन का गंगा से प्रतीकात्मक संबंध स्कंद पुराण (अवन्त्य-खंड; II29, 33, 42) में वर्णित है। यहां शिप्रा नदी के दक्षिणी तट पर स्थित “गंगेश्वर” शिवलिंग गंगा के साथ इसके सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जुड़ाव को दर्शाता है।

इस प्रकार, गंगा और अन्य नदियां न केवल धार्मिक और पौराणिक दृष्टि से बल्कि कृषि और जीवन के पोषण के प्रतीक के रूप में भी भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। गंगा और उससे जुड़ा अनुष्ठानिक स्नान कुंभ मेले के केंद्र में है। गंगा का जल पौराणिक कथाओं के अनुसार अमृत के समान है। गुप्त काल (चौथी-पांचवीं शताब्दी) में गंगा की मूर्तिकला में कुंभ प्रमुख रूप से उभरकर सामने आया। यह दर्शाता है कि गंगा और कुंभ का सांस्कृतिक महत्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक रूप से भी गहराई से जुड़ा हुआ है।

कुंभ पर्व के सामाजिक और आध्यात्मिक पहलू

कुंभ मेला श्रद्धा, आस्था, और एकता का अनुपम प्रतीक है। लाखों तीर्थयात्री, साधक, और दानकर्ता इसमें सम्मिलित होते हैं। गंगा, यमुना और संगम तट पर आरती, स्नान, भजन, प्रवचन और धार्मिक आयोजन मुख्य आकर्षण होते हैं। भारत में नदियाँ, पर्वत, और वृक्ष प्राचीन काल से ईश्वर के प्रतीक माने गए हैं। नदियों के तट पर आरती की परंपरा इसी आस्था का प्रतीक है।

MahaKumbh 2025
महाकुंभ

कुंभ मेले में न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक आयोजन भी होते हैं, जो इसे वैश्विक स्तर पर विशिष्ट पहचान प्रदान करते हैं। इस प्रकार कुंभ मेला न केवल आध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि भारतीय संस्कृति, एकता, और श्रद्धा का जीवंत उदाहरण भी है। कुंभ पर्व में साधु-संतों और गृहस्थों की समान रूप से भागीदारी होती है। स्नान के बाद श्रद्धालु कुंभ क्षेत्र में अन्न, वस्त्र, धन, या शुद्ध घी से भरे कलश का दान करते हैं। संपन्न व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान-पुण्य करते हैं। कुंभ मेले का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू संतों और महात्माओं के सत्संग का सुअवसर है।

यहां एकत्रित महात्मा और विद्वान जनहित और लोककल्याण के लिए विचार-विमर्श करते हैं। भारतीय संस्कृति में प्रारम्भिक काल से ही दान, पुण्य और तीर्थस्नान की समृद्ध परंपरा रही है। ऋग्वेद(10.117) के अनुसार, धनवान व्यक्ति गरीब याचक को संतुष्ट करे, और उसकी नज़र को लंबे रास्ते पर लगाए, धन कभी किसी के पास आता है, कभी किसी के पास, और कारों के पहियों की तरह हमेशा घूमता रहता है। मूर्ख व्यक्ति निरर्थक परिश्रम से भोजन जीतता है। वह भोजन – मैं सच कहता हूँ – उसका विनाश करेगा, वह किसी भरोसेमंद दोस्त को नहीं खिलाता, किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं जो उससे प्यार करे। सारा दोष उसी का है जो बिना किसी सहभागी के खाता है।

वृहदारण्यक उपनिषद (5.2.3) के अनुसार, एक अच्छे एवं विकसित व्यक्ति की तीन विशेषताएँ हैं – आत्म-संयम (दम), सभी संवेदनशील जीवन के लिए करुणा या प्रेम (दया), और दान (दान)।

तदेत्तत्रयं शिक्षेद् दमं दानं दयामिति , महाकाव्य महाभारत के आदि पर्व के अध्याय 91 में कहा गया है कि व्यक्ति को पहले ईमानदारी से धन अर्जित करना चाहिए, फिर दान करना चाहिए। अपने पास आने वालों का आतिथ्य करना चाहिए। किसी भी जीवित प्राणी को कभी दर्द नहीं देना चाहिए, और जो कुछ भी वह खाता है, उसका एक हिस्सा दूसरों के साथ साझा करना चाहिए।

इसी प्रकार आधुनिक जीवन की माँगों से भरी दुनिया में, महाकुंभ मेला एकजुटता, पवित्रता और ज्ञान के प्रतीक के रूप में सामने आता है। यह शाश्वत यात्रा एक मजबूत अनुस्मारक के रूप में कार्य करती है कि मानवता के विविध मार्गों के बावजूद, हम मौलिक रूप से एकजुट हैं – शांति, आत्म-साक्षात्कार और पवित्रता के लिए एक अटूट सम्मान की एक आम खोज। अनुष्ठानों और प्रतीकात्मक कर्मों से परे, यह तीर्थयात्रियों को आंतरिक विचारों में संलग्न होने और पवित्रता के साथ अपने संबंध को गहरा करने का अवसर देता है। इस तरह से महाकुंभ का यह आयोजन आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और आर्थिक महत्व रखते हुये सामाजिक समरसता एवं आध्यात्मिक जागरूकता को प्रेरित करता हुआ समृद्ध भारत की सांस्कृतिक कहानी लिखता है।

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