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चमड़ी उधेड़ते बेंत… फिर भी हर बेत के साथ चिल्लाता ‘भारत माता की जय! – जब मात्र 15 साल की उम्र में पहली बार गिरफ्तार हुए थे चंद्रशेखर ‘आजाद’

हमारी लड़ाई आखरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत या मौत-चंद्रशेखर आज़ाद

himanshumishra द्वारा himanshumishra
27 February 2025
in इतिहास, चर्चित
Chandrasekhar Azad

चंद्रशेखर आजाद और असहयोग आंदोलन (Image Source: X)

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महान स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद का शुरुआती झुकाव महात्मा गांधी और उनके अहिंसक आंदोलन की ओर था। मात्र 15 वर्ष की उम्र में, जब उनके हमउम्र बच्चे खेलकूद और पढ़ाई में व्यस्त रहते थे, उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया। उन्हें पूरा विश्वास था कि गांधीजी के नेतृत्व में देश जल्द ही स्वतंत्र हो जाएगा। इस उम्मीद और राष्ट्रभक्ति की भावना के साथ वे आंदोलन में कूद पड़े। लेकिन जब अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया और उनका नाम पूछा, तो उन्होंने बेखौफ होकर कहा— “मेरा नाम आज़ाद है, पिता का नाम स्वतंत्रता और घर जेलखाना!” यह शब्द केवल जवाब नहीं थे, बल्कि उनके भीतर सुलग रही क्रांति की पहली चिंगारी थी।

लेकिन यह चिंगारी जल्द ही शोला बन गई। 1922 में जब चौरी-चौरा की घटना के बाद महात्मा गांधी ने बिना किसी से चर्चा किए अचानक असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, तो युवा चंद्रशेखर आज़ाद स्तब्ध रह गए। उन्होंने अपनी आँखों के सामने देखा कि हजारों स्वतंत्रता सेनानियों का संघर्ष अधूरा छोड़ दिया गया। उनके भीतर उबाल आ गया— क्या अंग्रेजों से आज़ादी केवल अहिंसा से संभव है? क्या संघर्ष किए बिना देश को स्वतंत्र कराया जा सकता है? यही वह क्षण था जब उनके विचारों में बदलाव आया। अब वे क्रांतिकारी आंदोलन की ओर मुड़ गए, जहाँ भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे वीरों के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने की शपथ ली। यह उनकी असली क्रांतिकारी यात्रा की शुरुआत थी, जिसमें उन्होंने गुलामी को कभी स्वीकार नहीं किया और जीवन भर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते रहे।

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क्या नेहरू ने चंद्रशेखर आज़ाद की मुखबिरी की थी? CID की गोपनीय फाइलों में छुपा वो राज़, जो आज भी उनकी शहादत की अनसुलझी गुत्थी बना हुआ है!

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चंद्रशेखर से चंद्रशेखर ‘आजाद’ तक का सफरनामा

मध्यप्रदेश के छोटे से गाँव भाबरा (अब चंद्रशेखर आज़ादनगर) में 23 जुलाई 1906 को जन्मे चंद्रशेखर का बचपन सामान्य नहीं था। उनके खेल भी साधारण नहीं थे। जहां आम बालक खिलौनों से खेलते थे, वहीं आज़ाद धनुष-बाण चलाने में निपुण हो रहे थे। भीलों के बीच रहते हुए उन्होंने निशानेबाजी की वह कला सीखी, जो आगे चलकर अंग्रेजों के लिए काल बन गई। लेकिन उनके भीतर कुछ और भी सुलग रहा था— एक ऐसी ज्वाला जो भारत की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने को आतुर थी। यह ज्वाला धीरे-धीरे धधक रही थी, लेकिन 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड ने इसे चिंगारी दे दी।

देशभर में मातम पसरा था, लेकिन यह मातम चंद्रशेखर के लिए विद्रोह की शुरुआत थी। अंग्रेजों की बर्बरता ने उनकी आत्मा को झकझोर कर रख दिया। अब उनके भीतर जो आग थी, वह दहकने लगी थी। फिर आया 1920— जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का शंखनाद किया। यही वह क्षण था, जब सुलगती चिंगारी एक धधकता ज्वालामुखी बन गई! मात्र 15 साल की उम्र में चंद्रशेखर पढ़ाई कर रहे थे अब क्रांति के रण में कूद पड़े।

वह सड़कों पर उतर आए, नारे बुलंद किए, अंग्रेजी हुकूमत को खुली चुनौती दी। लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें धरना देते हुए गिरफ्तार कर लिया। अब उन्हें पेश किया गया उस समय के कुख्यात मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट के सामने, जो क्रांतिकारियों को कठोरतम सजा देने के लिए जाना जाता था। लेकिन यह कोई साधारण बालक नहीं था— यह था चंद्रशेखर आज़ाद!

मजिस्ट्रेट ने जब उसका नाम पूछा, तो जवाब मिला—
“मेरा नाम आज़ाद है!”
“पिता का नाम?”
“स्वाधीन!”
“घर कहां है?”
“मेरा घर जेलखाना है!”

अंग्रेज अधिकारी बौखला गए। एक 14 साल के बालक का ऐसा साहस? मजिस्ट्रेट ने तमतमाकर 15 कोड़ों की सजा सुना दी। अंग्रेज जल्लाद ने पूरी ताकत से चंद्रशेखर की नंगी पीठ पर कोड़े बरसाने शुरू किए। हर कोड़े के साथ उनकी चमड़ी उधड़ती गई, लेकिन उनके होंठों से सिर्फ “भारत माता की जय” और “महात्मा गांधी की जय” निकलता रहा।

जब कोड़े पूरे हो गए, तो जेलर ने नियम के अनुसार उनकी हथेली पर तीन आने रखे। लेकिन चंद्रशेखर ने वह सिक्के जेलर के मुँह पर दे मारे और बोले— “भारत की स्वतंत्रता बिकाऊ नहीं है!” और जिले से भागकर बाहर आ गए। जेल से लौट के आने पर बनारस के ज्ञानवापी मोहल्ले में उनका भव्य अभिनंदन हुआ। अब वह केवल चंद्रशेखर नहीं थे, बल्कि ‘चंद्रशेखर आज़ाद’ बन चुके थे।

इस घटना का जिक्र जवालाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा ‘मेरे कहानी’ में भी किया है. जहां उन्होंने इसे कायदा तोड़ने वाले एक छोटे से लड़के की कहानी के तौर पर प्रेषित किया है –

“ऐसे ही कायदे (कानून) तोड़ने के लिये एक छोटे से लड़के को, जिसकी उम्र १४ या १५ साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी। उसे नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। बेत एक एक कर उस पर पड़ते और उसकी चमड़ी उधेड़ डालते पर वह हर बेत के साथ चिल्लाता ‘भारत माता की जय!’। वह लड़का तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक की वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लड़का उत्तर भारत के क्रान्तिकारी कार्यों के दल का एक बड़ा नेता बना।”

कांग्रेस से मोहभंग और क्रांतिकारी पथ पर अंतिम संकल्प

लेकिन यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। चौरी-चौरा कांड के बाद जब महात्मा गांधी ने बिना किसी चर्चा के असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, तो चंद्रशेखर आज़ाद का धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने देखा कि जिन युवाओं ने अपनी जान दांव पर लगाई थी, उनकी कुर्बानी बेकार चली गई। अहिंसा का मार्ग अब उन्हें अधूरा और कमजोर लगने लगा। उन्हें समझ आ गया था कि आज़ादी की यह लड़ाई सिर्फ अहिंसा से नहीं जीती जा सकती— दुश्मन को उन्हीं की भाषा में जवाब देना होगा!

बनारस में रहते हुए, वे मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के संपर्क में आए और जल्द ही “हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ” (HRA) का हिस्सा बन गए। अब उनका लक्ष्य एकदम साफ था— ब्रिटिश हुकूमत को हर हाल में उखाड़ फेंकना। गांधीजी के फैसले से जहां हजारों नवयुवकों का कांग्रेस से मोहभंग हुआ, वहीं आज़ाद ने इसे अपने क्रांतिकारी सफर की दिशा बदलने का संकेत समझा। जब 1924 में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल और योगेशचंद्र चटर्जी ने क्रांतिकारियों को संगठित कर “हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ” की नींव रखी, तो आज़ाद भी अपने पूरे जुनून के साथ इसमें कूद पड़े।

लेकिन क्रांति के लिए संसाधन चाहिए थे। शुरुआत में क्रांतिकारियों ने धन जुटाने के लिए कुछ अमीर घरों में डकैतियां डालीं, लेकिन एक सख्त नियम बना कि किसी भी महिला को नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा। एक बार, जब एक महिला ने चंद्रशेखर आज़ाद की पिस्तौल छीन ली, तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद उन्होंने उसे वापस लेने की कोशिश नहीं की। लेकिन जब हालात बिगड़ने लगे और पूरा गांव उन पर टूट पड़ा, तो राम प्रसाद बिस्मिल ने हस्तक्षेप किया, महिला से पिस्तौल वापस ली और क्रांतिकारियों को वहां से सुरक्षित निकाला। इस घटना के बाद, संगठन ने फैसला किया कि अब केवल अंग्रेजी सरकार के ठिकानों पर ही हमले किए जाएंगे।

1925 का काकोरी कांड इस क्रांतिकारी संघर्ष का निर्णायक मोड़ साबित हुआ। 9 अगस्त 1925 को ब्रिटिश सरकार का खजाना लूटकर क्रांतिकारियों ने दिखा दिया कि अब लड़ाई खुलेआम होगी। हालांकि, इस योजना का अशफाक उल्ला खान ने पहले ही विरोध किया था, क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि यह सरकार को क्रांतिकारियों के खिलाफ बड़े पैमाने पर कार्रवाई करने का मौका देगा— और वही हुआ। अंग्रेजों ने पूरी ताकत झोंक दी, लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद को पकड़ नहीं पाए।

बाकी सभी शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। 17 दिसंबर 1927 को राजेंद्रनाथ लाहिड़ी और 19 दिसंबर 1927 को बाकी तीनों वीरों को फांसी दे दी गई। इन बलिदानों ने पूरे क्रांतिकारी आंदोलन को झकझोर कर रख दिया, लेकिन आज़ाद का संकल्प और मजबूत हो गया।

अपने सभी प्रिय साथियों को खोने के बावजूद, चंद्रशेखर आज़ाद ने पीछे हटने की बजाय अपनी लड़ाई को और भी तेज कर दिया। उन्होंने उत्तर भारत के सभी क्रांतिकारियों को संगठित किया और 8 सितंबर 1928 को दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। यहीं पर उन्होंने भगत सिंह को संगठन का प्रचार प्रमुख बनाया और तय किया कि अब सभी क्रांतिकारी संगठनों को एकजुट होकर एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ना होगा।

कई घंटों की गहन चर्चा के बाद, “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” का नाम बदलकर “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” रखा गया। आज़ाद को इस संगठन का कमांडर-इन-चीफ बनाया गया। अब लक्ष्य पूरी तरह स्पष्ट था— “हमारी लड़ाई अंतिम सांस तक चलेगी, और यह खत्म होगी केवल जीत या मौत पर!”

 

 

 

 

स्रोत: चंद्रशेखर आजाद, चंद्रशेखर आजाद और असहयोग आंदोलन, चंदशेखर आजाद और महात्मा गाँधी, चंद्रशेकर आजाद पुण्यतिथि, Chandrasekhar Azad, Chandrasekhar Azad and the Non-Cooperation Movement, Chandrasekhar Azad and Mahatma Gandhi, Chandrasekhar Azad Punyatithi
Tags: Chandrasekhar AzadChandrasekhar Azad and Mahatma GandhiChandrasekhar Azad and the Non-Cooperation MovementChandrasekhar Azad Punyatithiचंदशेखर आजाद और महात्मा गाँधीचंद्रशेकर आजाद पुण्यतिथिचंद्रशेखर आज़ादचंद्रशेखर आजाद और असहयोग आंदोलन
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