विदेश मंत्री एस जयशंकर के करीब 2 वर्ष पुराने वे सभी वीडियो आपको याद होंगे जिनमें जब भी वह पश्चिमी देशों का दौरा करने जाते थे तो उनसे रूस और यूक्रेन युद्ध के संबंध में भारत की ‘कथित तटस्थता’ को लेकर कड़े सवाल पूछे जाते थे। भारत और एस जयशंकर को घेरने की कोशिश की जाती थी और दुनिया में यह दिखाया जाता था कि भारत इस युद्ध में रूस की तरफ खड़ा नजर आ रहा है। उनसे पूछा जाता है कि भारत, रूस से तेल क्यों खरीद रहा है? उनसे पूछा जाता कि भारत इस युद्ध के लिए रूस की मुखालफत क्यों नहीं कर रहा है? इस पर जयशंकर तीखे तेवर में जवाब देते कि भारत अपने हितों को प्राथमिकता देगा और वह हमेशा कहते कि भारत शांति का पक्षधर रहा है।
भारत की यह नीति इंडिया फर्स्ट की नीति थी यानी भारत के प्राथमिकताएं हमारे लिए सबसे पहले थी। इस दौरान जयशंकर ने यूरोप के देशों को आईना भी दिखाया था और उन्होंने यूरोप के देशों को भारतीय उपमहाद्वीप में हो रही आतंकी गतिविधियों पर चुप्पी साधे रखने के आरोप लगाए थे और यूरोप के पास इसका कोई जवाब नहीं था। जयशंकर ने बताया कि किस तरह यूरोप केवल अपने हित की चिंता करता है जबकि वह भारत से अपेक्षा करता है कि भारत अपना हित छोड़ दे। यूरोप और पश्चिम के देश भारत पर लगातार दबाव बना रहे थे कि भारत इस युद्ध में खुलकर रूस की मुखालफत करे और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर यूक्रेन के समर्थन में नज़र आए।
भारत पर रूस का विरोध करने के लिए लगातार अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाए जाते रहे लेकिन भारत अपनी विचारधारा से टच से मस नहीं हुआ। भारत लगातार इस युद्ध की आलोचना करता रहा, शांति लाने की बात करता रहा लेकिन उसने रूस से तेल खरीदना भी बंद नहीं किया। इस बीच दोनों देशों का द्विपक्षीय व्यापार रिकॉर्ड 60 अरब डॉलर से ऊपर चला गया था। भारत का यह फैसला इसलिए भी अहम हो जाता है क्योंकि उस दौरान यूरोप के देश अपनी अपनी ऊर्जा आपूर्तियों के लिए रूस पर निर्भर थे। वे रूस से गैस और कच्चा तेल लगातार खरीद रहे थे। ऐसे में भारत का यह तर्क था कि अगर यूरोप अपनी जरूरत के लिए, अपने नागरिकों के लिए, इतने विरोध के बावजूद भी व्यापार कर सकता है, अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरी करने में रूस की मदद ले सकता है तो भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता।
इस दौरान भारत के रूस से तेल खरीदने को इस तरह प्रचारित किया जा रहा था कि जैसे भारत ही इस युद्ध में रूस को फंडिंग दे रहा हो जो कि असल में निराधार बात थी। इस समय अमेरिका में जो बाडेन के नेतृत्व वाली सरकार थी और माना जा रहा था कि अमेरिका से मिल रहे हथियारों की मदद के सहारे ही असल में यूक्रेन इस युद्ध को लड़ रहा है। इस युद्ध के दौरान एक ओर जहां अमेरिकी और दुनिया भर के वामपंथियों ने यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को दुनिया में नायक की तरह पेश किया है तो वहीं ट्रंप ने उन पर लगातार तीखे हमले करते रहते थे। ट्रंप, रूस की तरफ अपनी सहानुभूति रखते नजर आए हैं जब रूस और यूक्रेन के बीच यह युद्ध शुरू हुआ था तो उसके कुछ दिनों बाद ही ट्रंप ने पुतिन को एक प्रतिभाशाली व्यक्ति बताया था। पिछले साल नवंबर में अपनी चुनावी जीत से पहले यूक्रेन को भेजी जा रही अमेरिकी सैन्य सहायता की ट्रंप कई बार आलोचना कर चुके थे और उन्होंने ज़ेलेंस्की को इतिहास का सबसे बड़ा सेल्समैन तक बता दिया था।
बीतते वक्त के साथ रूस और यूक्रेन का यह युद्ध लंबा खिचता गया और 2024 का अंत आते-आते अमेरिका में भी सरकार बदलना निश्चित हो गया। अब अमेरिका में ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के साथ नारे के साथ डोनाल्ड ट्रंप सत्ता में वापसी कर चुके थे। अमेरिकी फर्स्ट की नीति के साथ उन्होंने विदेश भेजी जा रही सारी मदद बंद कर दी और इस युद्ध में यूक्रेन अलग-थलग पड़ गया। ट्रंप खुद यूक्रेन पर इतने उखड़ गए कि उन्होंने यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की को तानाशाह तक करार दे दिया और उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। ट्रंप ने कहा कि ज़ेलेंस्की विदेशी सहायता की ‘मलाईदार व्यवस्था’ हो जारी रखना चाहते हैं और उन्होंने इस युद्ध को शुरू करने के लिए यूक्रेन को ही दोषी ठहरा दिया।
ट्रंप ने तो अब यहां तक दावा कर दिया है कि अगर ज़ेलेंस्की ने ठीक कदम नहीं उठाए तो उनका देश यानी यूक्रेन बचेगा नहीं। ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच 12 फरवरी को फोन पर लंबी बातचीत हुई और इसके बाद से ही ट्रंप रूस के पक्ष में नज़र आ रहे हैं। रूस-अमेरिका के रिश्ते जहां सुधर रहे हैं तो वहीं यूरोप से अमेरिका के रिश्ते तल्ख होते जा रहे हैं। यूरोप और यूक्रेन ने इस युद्ध को लेकर अमेरिका के रुख की आलोचना की है। यानी जिन कंधों पर चढ़कर ज़ेलेंस्की करीब 3 वर्ष से लड़ाई लड़ रहे थे वे कंधे ही अब ज़ेलेंस्की को मज़बूत नहीं नज़र आ रहे हैं।
रूस के एक टेबलॉयड मॉस्कॉस्की कॉमसॉमोलेट्स ने रूस-अमेरिका के बीच बढ़ती दोस्ती को लेकर लिखा है, “ट्रंप जानते हैं कि उन्हें रूस को रियायत देनी होगी क्योंकि वो उस पक्ष से समझौता कर रहे हैं जो यूक्रेन युद्ध में जीत रहा है। वो रूस को रियायत देंगे लेकिन इसका खामियाजा अमेरिका नहीं बल्कि यूक्रेन और यूरोप को भुगतना होगा।” इस टेबलॉयड ने यूरोप पर तीखा प्रहार किया है। टेबलॉयड ने यूरोप को लेकर लिखा, “लंबे समय से यूरोप दुनिया को बताता रहा है कि वही दुनिया में सबसे सभ्य है, भगवान का दूत है लेकिन वो ये भांपने में विफल रहा है कि उसकी खुद की इज़्ज़त सरे राह उतर रही है।”
भारत ने युद्ध के बीच दोनों देशों के प्रमुखों से मुलाकात की और भारत उन चुनिंदा देशों में था जो इस स्थिति में यूक्रेन और रूस दोनों से बातचीत कर रहे थे। इस बातचीत में भारत ने हमेशा हमलों की निंदा की दोनों देशों के बीच शांति लाने पर ज़ोर दिया। लेकिन यूरोप यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनाने की ज़िद पकड़े थे और दोनों देशों के बीच युद्ध का आर्म्स कंपनियों को खूब फायदा हो रहा था। अब अमेरिका ने यह भी कह दिया है कि यूक्रेन नाटो का सदस्य नहीं बनेगा। रूस के लिए यह राहत भरी खबर है और दोनों देशों के बीच युद्ध के एक बड़े मुद्दे का समाधान ट्रंप ने एक बयान के ज़रिए कर दिया है।
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में अंतरराष्ट्रीय संबंध और अमेरिकी विदेश नीति के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ मनन द्विवेदी ने ‘बीबीसी’ से बातचीत के दौरान कहते हैं कि भारत ने यूक्रेन-रूस जंग में जो नीति अपनाई थी वो बिल्कुल सही लाइन थी। डॉ द्विवेदी ने यूरोप को भी नसीहत देते हुए कहा, “भारत जब रणनीतिक स्वायत्तता की बात करता था तो पश्चिम के लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते थे। लेकिन ट्रंप ने आने के बाद जिस तरह की नीति अपनाई है, उससे यूरोप को भी अब अहसास हो गया है कि अमेरिका की हर बात सुनना या उस पर निर्भर होना ठीक नहीं है।”
डॉ मनन द्विवेदी कहते हैं कि यूक्रेन-रूस की जंग में ट्रंप ने यूरोप को पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया है और यूरोप इस हालत में भी नहीं है कि अमेरिका की मदद के बिना वो यूक्रेन के लिए रूस से भिड़ जाए। उन्होंने कहा, “भारत, रूस को किसी भी सूरत में अमेरिका के दबाव में नहीं छोड़ सकता था। अगर भारत झुक जाता तो आज जो ट्रंप कर रहे हैं, उसमें दोनों तरफ से फंस जाता।” भारत और रूस के संबंध ब्रिटिश काल से रहे हैं, सोवियत यूनियन ने 1900 में पहला वाणिज्यिक दूतावास भारत में खोला लिया था। ऐसे में अमेरिका की बात मानकर रूस का विरोध भारत के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही होता।
ट्रंप के इस नए रुख के बाद अमेरिकी विदेश नीति पर से दुनिया भर के लोगों को भरोसा उठने लगा है। जो यूरोप भारत को नसीहत दे रहा था, अब वो खुद सोचने को मजबूर है कि अमेरिका विदेश नीति के साथ उनका भविष्य क्या होगा। अगर भारत ने अमेरिका की बात मानकर रूस से दुश्मनी मोल ली होती तो भारत की आज क्या स्थिति होती। लेकिन भारत की ताकत यही है कि उसने जो पक्ष चुना था, शांति का, अंत में वही होने जा रहा है। अंतत: किसी भी युद्ध का स्थाई समाधान तो शांति ही हो सकती है और इस युद्ध की परिणति भी शांति में ही होनी है। यह भारत की कूटनीति की सबसे बड़ी जीत है कि उसने किसी भी अंतर्राष्ट्रीय दबाव के आगे घुटने नहीं टेके और अपने रुख पर कायम रहा।