नवंबर 1945 की बात है, देश में स्वतंत्रता की लड़ाई ज़ोरों पर थी। विमान दुर्घटना में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के निधन की खबर फैल गई थी और लाल किला समेत अनेक जगहों पर आज़ादी हिंद फौज के सैनिकों के ट्रायल शुरू कर दिए गए थे। देश की आज़ादी का संकल्प लिए अंग्रेज़ी फौज से लड़ने वाले सैनिकों पर मुकदमा चलाया जा रहा था, इन सैनिकों पर अंग्रेजी राज़ के खिलाफ युद्ध छोड़ने के आरोप थे। एक और अदालती लड़ाई चल रही थी तो दूसरी ओर सड़कों पर ‘लाल किले से आई आवाज़-सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़‘ के नारे गूंज रहे थे। ये तीनों प्रेम कुमार सहगल, गुरबक्श सिंह ढिल्लों और शाहनवाज खान नेताजी की आज़ाद हिंद फौज के अधिकारी थे। आज़ादी के नायक ढिल्लों के किस्से देश को प्रेरणा देने वाले हैं। ढिल्लों की जयंती पर जानें उनकी प्रेरणा के किस्से…
आज़ाद हिंद फौज के वीर कर्नल गुरबक्श सिंह ढिल्लों का जन्म 18 मार्च 1914 को तत्कालीन लाहौर जिले के अलगो गांव में हुआ था। वर्तमान में यह अमृतसर ज़िले में स्थित है। उनकी प्रारंभिक शिक्षा लाहौर में हुई थी। कहते हैं कि वे बचपन में डॉक्टर बनना चाहते थे। उनके पिता सेना में थे तो वे कई जगहों पर रहे और उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान हो गया था। उन्होंने कुछ दिनों तक पढ़ाया भी और फिर वे अपने पिता के दोस्त जे.एफ.एल टेलर के कहने पर वे सेना में भर्ती हो गए थे। IMA में उनका प्रशिक्षण चल रहा था और इसी दौरान दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। IMA में उनका प्रशिक्षण समाप्त कर 1940 में सिकंदराबाद चले गए। बाद में जापान में उनकी तैनाती की गई। फरवरी 1942 में सिंगापुर जापानियों के हाथों में चला गया और ब्रिटिश सेना ने बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया था।
कुछ समय बाद मोहन सिंह के नेतृत्व में ढिल्लों आज़ाद हिंद फौज में शामिल हुए और जब नेताजी ने 1943 में आज़ाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया तो ये नेहरू ब्रिगेड के कमांडर बनाए गए। ढिल्लों ने बर्मा के मोर्चे पर कई लड़ाइयों में आज़ाद हिंद फौज का नेतृत्व किया था और ब्रिटिश सेना को शिकस्त दी थी। बर्मा के माउंट पोपा में इरावती नदी के किनारे इनके नेतृत्व में आज़ाद हिंद फौज ने अंग्रेज़ी सेना का जमकर मुकाबला किया था। यहां पर केवल 2000 सैनिकों के साथ ढिल्लों ने फील्ड मार्शल स्लिम के 15000 सैनिकों को रोके रखा था। नेताजी बोस ने खुद ढिल्लों के नेतृत्व की सराहना की थी।
इतिहासकार प्रोफेसर कपिल कुमार ने अपनी पुस्तक ‘नेताजी, आज़ाद हिंद सरकार और फौज भ्रांतियों में यथार्थ की ओर 1942-47’ में गुरबक्श सिंह ढिल्लों की दिलेरी का एक किस्सा साझा किया है। प्रोफेसर कपिल ने लिखा, “बर्मा में जनरल शाहनवाज ने आज़ाद हिंद फौज के सैनिकों के सामने तीन विकल्प रखे थे। पहला विकल्प था, खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर लो। लेकिन उन्होंने खुद ही कहा कि यह कायरता होगी और इसे खारिज कर दिया। दूसरा विकल्प था, दुश्मन की बन्दूकों पर हमला करो या तो उन्हें नष्ट करो या खुद नष्ट हो जाओ। तीसरा विकल्प था, अंग्रेजों की सेना के द्वारा पकड़ा जाना और भारत में कोर्ट मार्शल के बाद गोली से मारा जाना। उनका विश्वास था कि यह तीसरा विकल्प भारत के लोगों को आजाद हिन्द फौज की सच्चाई से परिचित कराएगा और भारत की धरती पर ही उनकी समाधि होगी।
प्रोफेसर कपिल लिखते हैं, “चयन का अधिकार सभी सैनिकों और अधिकारियों पर छोड़ा गया। इसके बाद कर्नल ढिल्लों बोले और आत्महत्या के विकल्प को सिरे से नकार दिया। शाहनवाज के अनुसार वह बोले, दूसरा यद्यपि एक मृत्यु का एक गौरवशाली तरीका है, किन्तु वह यहीं समाप्त हो जाएगा। उन्होंने कहा, यह तीसरा सर्वश्रेष्ठ विकल्प है, क्योंकि यदि हमें मरना ही है तो फिर गोली मरने का यह घिनौना कृत्य अंग्रेजों को ही करने दिया जाए, वह आगे बोले और यह, “हमारे सगे-संबंधियों और देशवासियों के मन-मष्तिष्क में अंग्रेजों के खिलाफ घृणा को जड़ीभूत करेगा जो एक दिन यह महसूस करेंगे कि उनका यह कर्तव्य है कि वह हमारी मौत का बदला लें”। इसलिए उन्होंने अन्तिम विकल्प को चुना और बहुमत ने उसका समर्थन किया।”
आज़ाद हिंद फौज की तरफ से लड़ते हुए इन्होंने ब्रिटिश सेना का बड़ा वीरता पूर्वक सामना किया परंतु वे ब्रिटिश सैनिकों द्वारा बंदी बना लिए गए और प्रेम कुमार सहगल और शाहनवाज खान के साथ दिल्ली भेज दिए गए। गुरबक्श सिंह ढिल्लों को गिरफ्तार करके अंग्रेज़ों ने सलीमगढ़ के किले में कैद कर दिया और वह लाल किले में चले मुकदमों में आरोपी प्रमुख अधिकारियों में से एक थे। इन्हें फांसी की सज़ा दी गई लेकिन बाद में देशभर में लोगों ने इनकी सज़ा के विरोध में गिरफ्तारियां देनी शुरू कर दीं और लोगों के दबाव में इन्हें छोड़ना पड़ा था। देश की आज़ादी के बाद जब नेहरू सरकार ने आज़ाद हिंद फौज के सैनिकों को सेना में लेने से इनकार कर दिया तो ढिल्लों परीक्षा देकर सेना में शामिल हुए।
1998 ई. में तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन द्वारा गुरबक्श सिंह ढिल्लों को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। जीवन के अंतिम दिनों में ढिल्लों ने शिवपुरी के हातौदी मैं अपना स्थाई निवास बना लिया था। आज़ाद हिंद फौज को लेकर उनकी पुस्तक ‘फ्रॉम माई बोन्स’ को एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है। 6 फरवरी 2006 को शिवपुरी में इनका देहान्त हो गया था।