Kesari 2 में जिस तरह ब्रिटिश हुकूमत के अमानवीय चेहरे को बेनकाब किया गया है, उसने एक बार फिर 1919 के जलियांवाला बाग़ जैसे ज़ख्मों को ताज़ा कर दिया है। उस हृदयविदारक नरसंहार की कहानी कोई इतिहास नहीं, बल्कि आज़ादी की कीमत पर लिखे गए लहू के वो धब्बे हैं जिन्हें आज भी देशभक्त भूल नहीं पाए हैं। सोशल मीडिया पर एक बार फिर क्राउन से माफ़ी की मांग उठ रही है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि जलियांवाला बाग़ में निहत्थे नागरिकों पर 1650 गोलियां चलाने के बाद भी जब आज़ादी की चिंगारी बुझती न दिखी, तो ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी सबसे घिनौनी चाल चली। अगले ही दिन, 14 अप्रैल 1919 को, पंजाब के गुजरांवाला (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) में इस नरसंघार का विरोध कर रहे भारतियों को पहले तीन लड़ाकू विमानों में लगी मशीन गन से चलनी किया गया और फिर उनके घरों से लेकर स्कूलों तक पर बमबारी की गई।
मशीनगनों से दागी गई गोलियां, आसमान से बरसाए गए बम, और एक डरावनी ख़ामोशी जो आज भी उस ज़मीन की रूह में गूंजती है। इस लेख में हम बात करेंगे ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा गुजरांवाला में की गई उसी भुला दी गई बर्बरता की, जो जलियांवाला बाग़ से कहीं कम नहीं थी बल्कि एक ऐसा सच थी जिसे इतिहास की किताबों में जानबूझकर दबा दिया गया।
पृष्ठभूमि: जब ब्रिटिश कानून ने इंसानियत का गला घोंटा
1919 का जलियांवाला बाग़ हत्याकांड महज़ इतिहास की एक तारीख़ नहीं, बल्कि वो जख्म है जो आज भी भारतीय आत्मा में धधकता है। यह घटना सिर्फ़ जनरल डायर की सनक नहीं थी बल्कि अंग्रेज़ी हुकूमत की एक ठोस रणनीति का हिस्सा थी, जिसके तहत पूरे भारत में उभरती आज़ादी की लहर को कुचलने का फैसला किया गया था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत में जब राजनैतिक चेतना तेज़ी से बढ़ने लगी, तब ब्रितानी साम्राज्य ने इसे अपनी सत्ता के लिए ख़तरा माना। विरोध को रोकने के लिए उन्होंने एक ऐसा क़ानून पास किया जिसने नागरिकों की स्वतंत्रता की नींव ही हिला दी। ये था 1919 का रॉलेट एक्ट जिसने बिना किसी मुकदमे के गिरफ्तारी और अनिश्चितकालीन हिरासत जैसे अधिकार पुलिस को सौंप दिए। प्रेस की आज़ादी और सार्वजनिक अभिव्यक्ति पर भी कड़ी बंदिशें लगा दी गईं।
यह कानून ब्रिटिश न्यायाधीश सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में बनी समिति के सुझावों पर आधारित था, और इसीलिए इसे रॉलेट एक्ट कहा गया। इसके खिलाफ़ देशभर में जबरदस्त विरोध शुरू हो गया। इतना कि मोहम्मद अली जिन्ना जैसे नेता ने भी लेजिस्लेटिव काउंसिल से इस्तीफा दे दिया। इन आंदोलनों का दमन करने की मंशा से ही 13 अप्रैल 1919 को जनरल डायर ने अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में जुटे हज़ारों निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियां चलवा दीं। एक बंद बाग़ में चारों ओर से घिरे लोगों पर 1650 गोलियां दागी गईं। यह न केवल अमानवीय था, बल्कि भारत में ब्रिटिश शासन के असली चेहरे को भी सामने लाने वाला कुकृत्य था। लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि यह कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। जलियांवाला में हुए नरसंहार के अगले ही दिन, ब्रिटिश हुकूमत ने अपने बर्बर इरादों को और गहरा करते हुए पंजाब के गुजरांवाला इलाके पर तीन लड़ाकू विमानों से बमबारी करवाई। घर, स्कूल, बाज़ार कुछ भी नहीं छोड़ा गया। आसमान से बरसती गोलियों और बमों ने यह साफ़ कर दिया कि ब्रिटिश सरकार सिर्फ विरोध नहीं कुचलना चाहती थी, वो पूरे देश को खामोशी की ट्रेनिंग देना चाहती थी।
गुजरांवाला, जो आज पाकिस्तान का हिस्सा है, उस वक़्त एक शांत इलाका था लेकिन जब वायुसेना से हमला हुआ, तो यह औपनिवेशिक शासन के उस अध्याय में बदल गया जिसे पढ़ना भी रूह कंपा देता है। इस घटना की जांच के लिए बनी हंटर कमेटी (Disorder Inquiry Committee) ने उस वक़्त की रिपोर्ट में गुजरांवाला पर हुए इस हमले का बहुत सतही ज़िक्र किया। लेकिन उन्हीं रिपोर्ट्स से पता चलता है कि कैसे ब्रिटिश वायसराय और प्रशासन ने पूरे इलाके को दहशत में झोंकने के लिए सैन्य बल का खुलेआम दुरुपयोग किया।
वायुसेना ने बरसाए बम….. आसमान से दागी गोलियां
14 अप्रैल 1919 की सुबह गुजरांवाला रेलवे स्टेशन के पास स्थित कच्ची पुल पर एक बछड़े की लाश लटकी हुई पाई गई। जैसे ही यह खबर फैली, तत्कालीन डिप्टी सुपरिटेंडेंट पुलिस चौधरी ग़ुलाम रसूल मौके पर पहुंचे और बछड़े को नीचे उतरवाकर दफना दिया। लेकिन शहर में यह अफ़वाह तेज़ी से फैल गई कि हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए यह सब खुद प्रशासन ने करवाया है। रौलट एक्ट के विरोध में पहले से ही लोग आक्रोशित थे, और इस अफ़वाह ने आग में घी डालने का काम किया।
दिन चढ़ते ही शहर के विभिन्न हिस्सों में भीड़ जुटने लगी। लोगों ने दुकानों को बंद करवाना शुरू कर दिया। रौलट एक्ट के खिलाफ और हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थन में गली-कूचों में नारे गूंजने लगे। प्रदर्शन लगातार उग्र होते जा रहे थे। हालात पर काबू पाने के लिए डिप्टी एसपी चौधरी ग़ुलाम रसूल ने फिर हस्तक्षेप किया, लेकिन तब तक भीड़ ने सरकारी इमारतों, रेलवे स्टेशन और पोस्ट ऑफिस को निशाना बनाना शुरू कर दिया था। दिनभर शहर के अलग-अलग हिस्सों में जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध में प्रदर्शन होते रहे।
पुलिस के साथ आम लोगों की झड़पें बढ़ती चली गईं। कई इलाकों में पुलिस को गोली चलानी पड़ी। स्टेशन की ओर बढ़ रही भीड़ ने रेलवे स्टेशन में आग लगा दी, गोदामों से माल लूटा, ‘सेशन इंडस्ट्रियल स्कूल’ को फूंक डाला। चर्चों पर हमले किए गए और उन्हें भी जला दिया गया। अब प्रशासन को यह अहसास हुआ कि स्थितियाँ उनके नियंत्रण से बाहर हो चुकी हैं। सेना बुलाने का निर्णय लिया गया, लेकिन सबसे निकट की टुकड़ी सियालकोट में थी, जो तत्काल नहीं पहुंच सकती थी। ऐसे में एयर फोर्स की सहायता ली गई। दोपहर करीब 3:10 बजे लाहौर के वाल्टन एयरपोर्ट से रॉयल एयर फोर्स के तीन BE2c युद्धक विमान कैप्टन डीएचएम कारबेरी की अगुवाई में उड़ान भरते हैं। कैप्टन कारबेरी प्रथम विश्व युद्ध के अनुभवी पायलट थे और यह विमान स्क्वाड्रन नंबर 31 के अंतर्गत आते थे।
सबसे पहले गुजरांवाला के पास स्थित गांव दुल्ला को निशाना बनाया गया, जहां 20-20 पाउंड के तीन बम गिराए गए। इनमें से एक बम फटा नहीं। इसके बाद विमान जब गुजरांवाला की ओर बढ़ा, तो रास्ते में लगभग 150 लोगों की भीड़ पर मशीनगन से 50 राउंड गोलियां दागीं। अंग्रेजी दस्तावेज़ों के अनुसार इस हमले में एक महिला और एक लड़की की मौत हो गई, जबकि दो अन्य लोग घायल हुए। कुछ ही मिनटों बाद विमान ने पास के ही गांव घरजाख पर दो बम गिराए। इसके साथ ही लगभग 50 लोगों की भीड़ पर मशीनगन से 25 राउंड फायरिंग की गई। अंग्रेजी रिकॉर्ड यह दावा करता है कि इस हमले में कोई नहीं मारा गया, लेकिन स्थानीय जनश्रुतियों में इससे अलग तस्वीर मिलती है।
इसके बाद कैप्टन कारबेरी का विमान गुजरांवाला शहर के खालसा हाई-स्कूल और बोर्डिंग हाउस की ओर मुड़ा, जहां उस वक्त करीब 200 भारतीय नागरिक इकट्ठा थे। इन पर एक बम गिराया गया और फिर मशीनगन से 30 राउंड फायरिंग की गई। इस हमले में कई लोगों की जान गई और कई गंभीर रूप से घायल हुए। जब बाद में कारबेरी से पूछा गया कि उन्होंने मासूमों पर क्यों हमला किया, तो उनका जवाब साम्राज्यवादी मानसिकता की क्रूरता को उजागर करता है। उसने कहा, “गुजरांवाला में 200 फीट की ऊंचाई से मुझे कोई निर्दोष भारतीय नजर नहीं आया, इसलिए मैंने मशीनगन का उपयोग किया।” ये वही वक्त था जब अंग्रेजी राज, जिसे खुद को न्याय और सभ्यता का प्रतीक बताने का शौक था, हकीकत में अपने ही नागरिकों पर हवाई हमलों और बमबारी से जवाब दे रहा था। इन हमलों ने न सिर्फ पंजाब की धरती को रक्तरंजित किया, बल्कि भारत की स्वतंत्रता की चेतना को और तेज कर दिया।