देश की आज़ादी में जिन नायिकाओं ने अहम योगदान दिया उनकी वीरता की कहानियां खोती जा रही हैं। जिन शख्सियतें को देश के सामने एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए था उनकी कहानियों पर वक्त की धूल जमती जा रही है। इन महिलाओं ने अपने हौसले के दम पर आज़ादी की लड़ाई को एक नई ताकत दी। पिछली कड़ी में आपने सती सेन सहाय की कहानी पढ़ी थी जिन्होंने आज़ादी के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा दी थी। आज हम जानेंगे आज़ादी की एक और नायिका सती सेन सहाय की बेटी भारती आशा सहाय चौधरी की कहानी, जो महज 17 वर्ष की उम्र में ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल हो गई थीं।
भारती आशा सहाय का जन्म 1928 में जापान के कोबे में भारतीय स्वतंत्रता सेनानी आनंद मोहन सहाय और सती सेन सहाय के घर हुआ था। भारत की आज़ादी की उम्मीद में उनका नाम ‘भारती आशा’ रखा गया था। आशा के पिता आनंद मोहन सहाय आज़ाद हिंद सरकार के मंत्रिमंडल में मंत्री और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के राजनीतिक सलाहकार थे। आनंद मोहन ने कोबे में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की शाखा शुरू की थी और इससे पहले वे रास बिहारी बोस और राजेंद्र प्रसाद के करीबी सहयोगी रहे थे। घर का माहौल क्रांति का था तो बचपन से आशा के मन में भी यही भावना घर कर गई थी।
15 वर्ष की उम्र में भारतीय मूल की जापानी छात्रा आशा की पहली बार नेताजी से मुलाकात हुई थी। उन्होंने अपनी मां सती सेन सहाय के साथ नेताजी से मुलाकात की थी और इस मुलाकात को लेकर उन्होंने जापानी भाषा में लिखी अपनी डायरी में लिखा कि ‘आज़ाद हिंद फौज के सैनिक जापानी सेना के साथ मिलकर बर्मा में लड़ेंगे और उनके बीच कोई ऊंच-नीच या छोटा-बड़ा नहीं होगा, वहां सब बराबर होंगे’। इसके कुछ समय बाद उन्होंने नेताजी की तारीफ करते हुए लिखा कि उनसे नज़रें हटाना मुश्किल है। वह एक दिव्य आत्मा हैं जिनकी झलक मात्र से ही मन में स्पष्टता और जागरूकता आ जाती है।
आशा ने एक इंटरव्यू में अपने छात्र जीवन को लेकर कहा था, “उस समय हम उम्र युवाओं व बुजुर्गों तक में बला की देशभक्ति दिखती थी। हम लोग फैशन तो दूर टॉफी तक का ख्याल मन में नहीं लाते थे। हम लोगों पर एक ही धुन सवार रहती थी कि जल्द से जल्द हमारी मातृभूमि स्वतंत्र हो जाए।” बैंकाक में 17 वर्ष की आयु में आशा ने मई 1945 में आज़ाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजिमेंट में लेफ्टिनेंट का दायित्व संभाल लिया था और प्रशिक्षण शिविर में शामिल होने के लिए अपना घर छोड़ दिया। भारती आशा, बर्मा के सैन्य अभियान का महत्वपूर्ण हिस्सा रहीं। बाद में जब आज़ाद हिंद फौज ने पीछे हटना शुरू किया तो वह भी सेना के साथ बैंकाक आ गईं। वहां उन्हें मित्र देशों की सेनाओं ने एक शिविर में बंदी बना लिया। युद्ध समाप्त होने के बाद भी आशा कुछ समय तक बैंकाक में ही रहीं।
मई 1945 में बैंकाक में 17 वर्ष की आयु में आशा ने रानी झांसी रेजिमेंट में लेफ्टिनेंट का दायित्व सम्भाला और इन्होने प्रशिक्षण शिविर में शामिल होने के लिए इसी आयु में घर छोड़ दिया। बैंकाक में आशा की 9 महीने की युद्ध संबंधी ट्रेनिंग हुई जिसमें उन्हें राइफल चलाना, एंटी एयरक्राफ्ट गन चलाना, गुरिल्ला युद्ध की बारीकियां आदि का प्रशिक्षण दिया गया था। बर्मा अभियान का यह महत्वपूर्ण हिस्सा रहीं। बाद में जब आजाद हिन्द फौज ने वापसी शुरू की तो ये वापस लौट रही सेना के साथ ही बैंकाक चली आई। इन्हें मित्र देशों की सेनाओं ने शिविर में ही कैद कर दिया। युद्ध समाप्त होने के बाद कुछ समय तक ये बैंकाक में ही रहीं। अप्रैल 1946 में वह अपने पिता से फिर से मिलीं और वे आशा के चाचा सत्यदेव सहाय के साथ भारत लौट आए। भारत आने के बाद इन तीनों ने आज़ाद हिंद फौज के अन्य अधिकारियों के साथ कई शहरों का दौरा किया ताकि इस फौज के बारे में लोगों को जागरूक किया जा सके जिससे वे भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने को प्रेरित हो सकें।
भारती आशा की एशिया की यात्रा (स्रोत:The war Diary of Asha-san)
प्रोफेसर कपिल कुमार ने अपनी किताब ‘नेताजी, आज़ाद हिन्द सरकार और फौज: भ्रांतियों से यथार्थ की ओर (1942-47)’ में लिखा है, “इन्होंने आज़ाद सेवा दल की सदस्यता ग्रहण की और सामाजिक भलाई के कार्य किए।” इस पुस्तक में आशा की मोहनदास करमचंद गांधी से मुलाकात की घटना का वर्णन भी दिया गया है जिसमें गांधी ने बोस के जीवित होने को लेकर आशा के पिता से कई सवाल पूछे थे और कहा था ‘हमें इस समय उनकी (नेताजी) बहुत ज़रूरत है। मैं उससे प्यार करता हूं और उसे भारत में देखना चाहता हूं’।
प्रोफेसर कपिल लिखते हैं, “आशा ने अपने पिता के साथ गांधी से भी मुलाकात की। उस समय ये रानी झांसी रेजीमेंट की वर्दी पहने हुए थीं। गांधी ने आशा से पूछा कि उसने नेताजी को आखिरी बार कब देखा था? आशा ने नेताजी के बैंकाक आखिरी बार आने की पूरी कहानी गांधी को सुना दी। इसके साथ ही इन्होंने रानी झांसी रेजीमेंट को भंग किए जाने की भी पूरी कहानी गांधी को बताई। आशा के अनुसार, गांधी की टिप्पणी थी- ‘वह एक महान योद्धा है, साहस और दृढ़विश्वास का एक महान मर्मज्ञ। वह भारत के लिए एक बहुत बड़ी सम्पत्ति होगा। यदि वह जीवित नहीं है तो यह हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा’।”
आशा फिलहाल बिहार की राजधानी पटना में रह रही हैं। 1946 में भारत लौटने के बाद आशा ने अपने माता-पिता और एक हिंदी प्रोफेसर की मदद से अपनी डायरी के जापानी संस्करण का हिंदी में अनुवाद किया और इसे हिंदी पत्रिका ‘धर्मयुग’ में एक श्रृंखला के रूप में प्रकाशित किया गया। इसे ‘आशा-सान की सुभाष डायरी’ नामक एक पुस्तक में भी संकलित किया गया था। इसके कुछ समय बाद उनकी पोती तन्वी श्रीवास्तव ने उनकी डायरियों का अंग्रेजी में अनुवाद किया जिसे ‘द वॉर डायरी ऑफ़ आशा-सान’ के नाम से प्रकाशित किया गया है। यह डायरी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तिगत विवरणों में से एक मानी जाती है।
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