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एक दूसरे का साथ देना ही ‘स्वयंसेवक’ की परिभाषा

संघ बिना किसी विघटन के 100 साल आयु वाला संगठन है, यह टूटा नहीं बल्कि अपने जैसे ही राष्ट्रव्यापी लगभग 37 संगठन और खड़े कर दिए

drmahender द्वारा drmahender
4 April 2025
in मत
एक दूसरे का साथ देना ही ‘स्वयंसेवक’ की परिभाषा
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संघ शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में एक गीत रिकॉर्ड किया और सभी मित्रों से साझा किया। वही गीत सुप्रसिद्ध लेखक और संघ विचारक श्री रतन शारदा जी को भी भेजा। उन्होंने मुझे चकित करते हुए उस गीत का लिंक सोशल मीडिया मंच एक्स पर पोस्ट कर दिया। मैंने उन्हें सन्देश भेजा कि आपने तो मुझे पुरस्कार दे दिया। इस पर रतन जी ने जो प्रतिक्रिया दी वही इस लेख का आधार है। रतन जी ने लिखा “सबको प्रोत्साहन मिलना चाहिए, आखिर एक दूसरे का साथ देना ही स्वयंसेवक की परिभाषा है।” यह पढ़ते ही मैं ये आलेख लिखने के लिए प्रेरित अथवा विवश हो गया कितने सरल शब्दों में रतन जी ने मुझे संघ का स्वयंसेवक होने का अर्थ समझा दिया। श्रीमद्भगवत गीता का श्लोक यहाँ चरितार्थ होता है:-

“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।”

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अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्य जो–जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा–वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसीके अनुसार आचरण करते हैं।

आइये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक की उक्त परिभाषा को और विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं। सन 1925 में डॉ. हेडगेवार ने समाज के भीतर एक संगठन बनाने के बजाय पूरे समाज को संगठित करने के लिए एक विशेष कार्य पद्धति से काम करने वाले संगठन का बीजारोपण किया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नामक यही संगठन पंच परिवर्तन अभियान का संकल्प लेकर अपना शताब्दी वर्ष मनाने जा रहा है। भारत में संघ से पुराना गैर राजनैतिक संगठन शायद ही कोई हो। राजनीति में इतनी आयु वाले संगठन हो सकते हैं, लेकिन उनमें टूट फूट भी बहुत हुई है। संघ बिना किसी विघटन के 100 साल आयु वाला संगठन है। यह टूटा नहीं बल्कि अपने जैसे ही राष्ट्रव्यापी लगभग 37 संगठन और खड़े किये। जिनमें विद्यार्थियों के बीच में राष्ट्र भक्ति का भाव जगाने के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, महिलाओं के क्षेत्र में राष्ट्र सेविका समिति, मजदूरों के क्षेत्र में भारतीय मजदूर संघ, किसानों के लिए भारतीय किसान संघ और सेवा भारती जैसे अनेक संगठन शामिल हैं। जहाँ बाकी संगठन सिकुड़े हैं या समाप्त हो गए वहीं संघ बड़ा हुआ और अनुषांगिक संगठनों के माध्यम से अपना परिवार और बड़ा किया, जिसे आजकल ‘संघ परिवार’ भी कहा जाता है। इसके साथ ही संघ समाज के हर वर्ग और हर कोने तक भी पहुंचा है। अब ऐसे में प्रश्न उठता है कि बिना किसी विघटन के संघ इतने लंबे कालखंड की यात्रा कैसे पूरी कर पाया?

इस प्रश्न का उत्तर हमें खुले मैदान में लगने वाली संघ की ‘शाखा’ में मिलेगा। शाखा में विविध पारिवारिक, सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के स्वयंसेवक भाग लेते हैं। एक शाखा में आपको एक चिकित्सक भी मिल सकता है तो उसी शाखा में आपको किसान भी मिल सकता है, मजदूरी करने वाला भी उसी शाखा में हो सकता है और दुकानदार भी, विद्यार्थी भी उसी शाखा में मिल सकता है। इन सबका हर प्रकार का स्तर और अनुभव अलग अलग होता है। लेकिन सबमें कुछ साझी बातें या मनोभाव होते हैं और ये मनोभाव हैं कि ‘हम सभी भारत माता के पुत्र हैं’, ‘समाज के प्रति हमारा भी कुछ दायित्व है’, ‘देश हमें देता है सब कुछ हम भी तो कुछ देना सीखें’ और ‘सबको प्रोत्साहन मिलना ही चाहिए’। संक्षेप में कहें तो ‘एक दूसरे का साथ देना ही स्वयंसेवक की परिभाषा’ यह भाव सभी में होता है। यही मनोभाव या अंतर्दृष्टि हर स्वयंसेवक के मन में होती है और इसी अंतर्दृष्टि के आधार पर संघ के स्वयंसेवक की बाह्य दृष्टि भी होती है। अभी हाल ही देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में इसलिए ही कहा है, “हमारा राष्ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ एक ऐसा संस्कार यज्ञ है जो अंतर्दृष्टि और बाह्य दृष्टि दोनों के लिए काम कर रहा है।”

राष्ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ की विशिष्ट कार्य पद्धति का मूल है ‘हर काम मिलकर करना और हर काम और हर परिस्थिति में एक दूसरे को प्रोत्साहित करते हुए एक दूसरे का साथ देने का भाव’। संघ की शाखा में होने वाले खेल, गीत और बैठकें भी यही भाव निर्मित करते हैं। एक दूसरे का साथ देने के भाव के कारण ही संघ के स्वयंसेवक आगे बढ़ रहे हैं और जिस ध्येय को लेकर संघ की स्थापना हुई थी वही दृष्टि आज भी यथावत है। इसी भाव के कारण ही आज सौ वर्ष बाद भी हजारों युवा डॉ. हेडगेवार के बताए मार्ग पर चलकर राष्ट्रहित में अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हैं। अपनी विशिष्ट कार्य पद्धति से स्वयंसेवकों में निर्मित इसी भाव के कारण ही संघ संपूर्ण हिन्दू समाज में आत्मीयता, समरसता और देशहित की भावना उत्पन्न करने के मार्ग पर चल रहा है।

संघ की इस विशिष्ट कार्य पद्धति और एक दूसरे का साथ देने के भाव के मूल में स्वयंसेवकों के बीच शुद्ध सात्विक प्रेम और बंधुत्व की भावना है। प्रेम आधारित बंधुत्व की भावना को और प्रगाढ़ करने के लिए संघ की शाखा या कार्यक्रमों में स्वयंसेवक को प्रोत्साहित करने के लिए कहा जाता है “उत्तम ! उत्तम! उत्तम भाई!, सुंदर! सुंदर! सुंदर भाई!, वाह भई! वाह भई! वाह भई! वाह!” बधुत्व की इसी भावना के आधार पर संघ ने पिछले एक वर्ष में समाज जीवन में विशिष्‍ट स्‍थान रखने वाली लगभग डेढ़ लाख सज्‍जन शक्ति से संपर्क करने का कार्य किया है। एक दूसरे का साथ देने के भाव के कारण ही साधारण पृष्ठभूमि से निकले स्वयंसेवक असाधारण काम करने में सफल हो रहे हैं। अब एक दूसरे का साथ देने का मतलब समझ लेते हैं। इसका मतलब है हर स्वयंसेवक में विद्यमान विशेष गुण की पहचान करके उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना। यदि स्वयंसेवक में कोई कमजोरी है तो उसका निदान करने के लिए मिलकर प्रयास करना।

एक तरफ भारत विरोधी शक्तियाँ विदेशी शक्तियों के साथ मिलकर देश और समाज में विभाजन और अराजकता पैदा करने के लिए रोज नयें नयें हथकंडे अपना रहीं है, वहीं संघ समाज में एकात्मता, आत्मीयता और समरसता का भाव जगाने में कार्यरत है। संघ के स्वयंसेवक अपने निजी और पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए समाज के उत्थान के लिए आवश्यक कार्यों को गति देते हुए आगे बढ़ रहे हैं। एक दूसरे का साथ देने के भाव का प्रकटीकरण बड़े ही सुंदर तरीके से संघ के एक गीत की निम्न पंक्तियों में किया गया है:-

“जो अनपढ़ हैं उन्हें पढ़ायें, जो चुप हैं उनको वाणी दें,
पिछड़ गए जो उन्हें बढायें, प्यासी धरती को पानी दें,
हम मेहनत का दीप जलाकर नया उजाला करना सीखें।
”

स्रोत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, केशव बलिराम हेडगेवार, शाखा, Rashtriya Swayamsevak Sangh, Keshav Baliram Hedgewar, Shakha,
Tags: Dr Ratan SardaKeshav Baliram HedgewarRashtriya Swayamsevak SanghRatan Sardashakhaकेशव बलिराम हेडगेवारराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघशाखा
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