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‘श्री शारदा स्तुति’ पुस्तक विलुप्त ‘शारदा लिपि’ को पुनर्जीवित करने का भगीरथी प्रयास है

शारदा लिपि के महत्त्व को नकारना असंभव है। इसी शारदा लिपि के कारण भारतीय ज्ञान परंपरा के अंतर्गत आने वाली शारदीय ज्ञान परंपरा का प्रादुर्भाव हुआ।

Dr. Mahender द्वारा Dr. Mahender
20 April 2025
in समीक्षा
पुस्तक में विद्यादेवी शारदा की स्तुतियों का शारदा लिपि में हस्तलेखन किया गया है

पुस्तक में विद्यादेवी शारदा की स्तुतियों का शारदा लिपि में हस्तलेखन किया गया है

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क्या अपने कभी सोचा है कि विदेशी आक्रान्ताओं ने भारतीयों पर अपनी भाषा थोपने का प्रयास क्यों किया था? उन्होंने भारतीय भाषाओँ से ही काम क्यों नहीं चलाया? भाषा थोपने के प्रयास में अंग्रेजों को सफलता मिली। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि अंग्रेजों की इस सफलता का दुष्परिणाम आज पूरा भारत विशेषकर हिन्दू समाज भुगत रहा है। भाषा का संबंध अस्मिता या पहचान से जुड़ा है। भाषा बदलते ही पहचान बदल जाती है और यदि पहचान बदल जाए तो फिर सब कुछ बदल जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यदि भाषा गई तो सब कुछ चला जाता है।

आजकल के बच्चे और युवा भी हिंदी भाषा के सैंतालिस, चौहत्तर, या नवासी नहीं जानते हैं, लेकिन उन्हें फोर्टी सेवेन, सेवंटी फोर या एटी नाइन पता होता है। अंग्रेजी भाषा भारत के लिए विनाशक सिद्ध हुई ऐसा कहना भी कोई अतिश्योक्ति नहीं है। जिस अंग्रेजी भाषा के पास ‘धर्म’, ‘गुरु’ और ‘आत्मा’ के लिए पर्याप्त शब्द नहीं हैं, या जिनके पास ॐ, देवता’ आदि  शब्दों (ऐसे अनेक शब्द हैं) के लिए कोई शब्द नहीं है वे लोग सनातन धर्म या हिंदुत्व या भारतीय चिंतन को कैसे समझेंगे या समझाएंगे? लेकिन, साजिशपूर्ण प्रयास हुए हैं और आज भी चल रहे हैं। यह भाषा के साथ की गई साजिश ही है जिसके आधार पर भारतीय इतिहास को मिथक (अंग्रेजी में माइथोलॉजी) बनाने का खेल हुआ है और यह खेल आज भी चल रहा है। इसके कारण ही भारत की गौरवशाली संस्कृति और विज्ञान आधारित परंपराओं पर संदेह करना आज शोभाचार (जिसे अंग्रेजी में फैशन कहते हैं) बन गया है।

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भाषा का मूल ‘लिपि’ होता है। लिपि ही भाषा को भौतिक स्वरूप और पहचान देती है। लिपि प्रतीक-चिह्नों की एक व्यवस्था है जिसके अंतर्गत भाषाओं का लेखन किया जाता है। भारत में अनेक भाषाएँ प्रचलित हैं और लिपियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं, जैसे, ब्रह्मी, देवनागरी, शारदा, गुरुमुखी, तेलुगू एवं कन्नड़ लिपि, तमिल-मलयालम लिपि आदि। जिस देश में अपनी कई लिपियाँ और अनेक भाषाएँ हों वहाँ आज भी विदेशी अंग्रेजी भाषा का बोलबाला हो तो यह दयनीय स्थिति नहीं है तो और क्या है? सोशल मीडिया के इस युग में यह स्थिति और भी विकराल होती जा रही है। उदाहरण राष्ट्र भाषा हिंदी के साथ होने वाला सौतेला व्यवहार है और समय समय पर राजनेताओं द्वारा छेड़ा जाने वाला भाषा संबंधी विवाद है।

देव असुर संग्राम अनवरत चलता रहता है। ऐसे में विलुप्त होने की कगार पर खड़ी शारदा लिपि को पुनर्जीवित करने के प्रयास के अंतर्गत लिखी एक पुस्तक हाथ लगी। हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में स्थित केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कश्मीर अध्ययन केंद्र के शोधार्थियों प्रवीन कुमार और आदित्य अवस्थी द्वारा लिखित इस पुस्तक का नाम है ‘श्री शारदा स्तुति’। पुस्तक का प्रकाशन समकालीन प्रकाशन दिल्ली से हुआ है। पुस्तक में विद्यादेवी शारदा की स्तुतियों का शारदा लिपि में हस्तलेखन किया गया है। यह प्रयास अपने आप में एक उत्कृष्ट प्रयास है। अपनी बात कहूँ तो ‘शारदा लिपि होती है’ मैंने ऐसा केवल सुन रखा था। जानने का प्रयास कभी नहीं किया था। इस पुस्तक के माध्यम से मुझे भी पहली बार शारदा लिपि के दर्शन हुए हैं। जब मैंने शारदा लिपि में देवी सरस्वती की स्तुति लिखी हुई देखी तो मुझे अपने ऊपर तरस आ रहा था। साथ ही यह विचार भी मस्तिष्क में चलने लगा था कि एक अंग्रेजी के कारण हमने कितना कुछ खो दिया है।

पुस्तक श्री शारदा स्तुति

जहाँ तक लिपियों की बात है तो यह बात बिलकुल सत्य है। इस पुस्तक की प्रस्तावना में नारदीय संचार नीति जैसी उत्कृष्ट पुस्तक के रचियता विद्वान लेखक जयप्रकाश सिंह एक अत्यंत गम्भीर सत्य लिखते हैं, “ऐसे समय में जब पहचान का संकट गहराता जा रहा है और पहचान को लेकर होने वाले संघर्ष निरंतर बढ़ते जा रहे हैं, लिपि की प्रासंगिकता और महत्ता को भी नए सिरे से रेखांकित करने की आवश्यकतार बढ़ती जा रही है। शांति-स्थापित करने के उपकरणों के रूप में भाषा और संवाद को लेकर तो पर्याप्त चर्चा होती है, लेकिन लिपियों की भूमिका को लेकर अभी तक अपेक्षित चर्चा तक प्रारम्भ नहीं हुई हैं। मूल-लिपि में लिखी गई भाषा विचारों और भावनाओं का उनके गहनतम रुप में संवहन तो करती ही हैं, साथ में यह संबंधित समुदाय को उसकी वास्तविक पहचान से भी जोड़े रखती है। इसके कारण पहचान सम्बंधी संघर्षों की संभावनाएँ भी कम हो जाती हैं। इसलिए पहचान के प्रश्नों को सुलझाने और शांति-स्थापित करने के प्रयासों के संदर्भ में लिपि के निर्धारण का विषय महत्वपूर्ण हो जाता है।”

भाषा तभी बचेगी जब लिपि बचेगी। उदाहरण के लिए हिमाचल प्रदेश में भी एक लिपि है जिसे ‘टांकरी’ लिपि कहा जाता है, लेकिन यह लिपि भी आज विलुप्त हो गई है और शायद कुल्लू जिला में कुछ लोग ही इसके जानकार हैं। मेरे गाँव और घर में कुछ पीतल के बर्तन हैं जिन पर ‘टांकरी’ में कुछ अंकित है। यह प्रमाण है कि कुछ समय पहले गाँव में टांकरी जानने वाले लोग थे। लेकिन अगली पीढ़ी ने यह लिपि नहीं सीखी इसलिए आज कोई भी इसे नहीं जानता। प्रस्तावना में लिखा एक वाक्य बहुत महत्त्वपूर्ण है जो भारत को भारत की दृष्टि से देखने वालों को झकझोरने के लिए पर्याप्त है, वह वाक्य है, “लिपियां ही वह सुरक्षा कवच होती हैं, जिनमें देशज भाषाओं का संरक्षण-संवर्द्धन संभव होता है।”

सोशल मीडिया के इस युग में जब भी कोई नवीन वैज्ञानिक खोज होती है तो यह बात भी सामने आती है भारत के ऋषि मुनियों ने तो ऐसा बहुत पहले ही कर दिया था। इसके बाबजूद आज के भारत की युवा पीढ़ी पाश्चात्य जगत का अनुसरण करने के लिए विवश है। यह बात भी उभर कर आती रहती है कि आज भी अंसख्य पुरातन पांडुलिपियाँ ऐसी हैं जिनको किसी ने स्पर्श तक नहीं किया है। इन पांडुलिपियों में वैश्विक कल्याण के लिए न जाने क्या क्या लिखा हुआ है। उस ज्ञान का रहस्योद्घाटन करने के लिए उनका अध्ययन करना आवश्यक है और उस अध्ययन के लिए उनका संरक्षण आवश्यक है। इन पांडुलिपियों के अध्ययन के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है भारतीयों के बीच लिपि ज्ञान का विस्तार हो।

यह शाश्वत सत्य है कि भारतीय ज्ञान परम्परा की ‘श्रुति’ से ‘स्मृति’ की यात्रा लिपियों पर आधारित है। इस यात्रा में शारदा लिपि के महत्त्व को नकारना असंभव है। इसी शारदा लिपि के कारण भारतीय ज्ञान परंपरा के अंतर्गत आने वाली शारदीय ज्ञान परंपरा का प्रादुर्भाव हुआ। लेकिन आज यह शारदीय ज्ञान परंपरा कोने में पड़ी हुई दुबकी हुई सी प्रतीत होती है। शीधे शब्दों में कहूँ तो विलुप्त हो गई है और इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है इस ज्ञान परंपरा के मूल आधार कहलाने वाली शारदा लिपि का विलुप्त होना। इस लिपि को पुनर्जीवित करने के प्रयास भी विलुप्त के समान ही हैं। लेकिन, यह भी सत्य है कि प्रयास अभी जारी है भले ही सूक्ष्म स्तर पर हो रहा है। कहा जाता है निराशा में ही आशा का प्रकाश छिपा रहता है।

लिपि ज्ञान के विस्तार हेतु प्रवीन कुमार और आदित्य अवस्थी द्वारा हाथों से लिखी ‘श्री शारदा स्तुति’ नामक यह पुस्तक एक उत्कृष्ट और उल्लेखनीय प्रयास है। इसमें विद्या देवी भगवती शारदा की स्तुतियों को दो अलग अलग लिपियों में लिखा गया। वास्तव में यह पुस्तक एक संग्रह मात्र नहीं है, बल्कि यह स्मृतियों और ज्ञान के अछूते संग्रह तक पहुंचने का एक आवश्यक सभ्यतागत कर्म भी है। भारत सरकार के ‘ज्ञान भारतम् मिशन’ की उपयोगिता को सार्थक करता हुआ पुस्तक लेखन का यह प्रयास प्रशंसनीय है। इस पुस्तक में शारदा लिपि के दर्शन करने के बाद मैं भी अपना नाम इस लिपि में लिखने का प्रयास करने लगा हूँ।

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मानवीय वकालत के क्षेत्र में, निरंतरता न केवल नैतिक विश्वसनीयता के लिए, बल्कि लोकतांत्रिक संदर्भ में नेतृत्व की वैधता के लिए भी मायने रखती है।...

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