हर साल पुरी की धरती पर एक ऐसा दृश्य सामने आता है, जो हमारी आस्था को एक नया आकार देता है। यह सिर्फ एक त्योहार नहीं बल्कि यह वह पल है जब ईश्वर रथों पर सवार होकर, प्रेम की डोर से बंधे हुए खुद भक्तों के बीच आते हैं। हम बात कर रहे हैं जगन्नाथ रथ यात्रा की, यह यात्रा सिर्फ कोई धार्मिक आयोजन नहीं है बल्कि भगवान और उनके भक्तों के बीच एक जीवंत संवाद है। हजारों कदम, एक धड़कन और एक ही दिशा, भक्ति की ओर। इस लेख में हम आपको लेकर चलेंगे उस दिव्य यात्रा में, जहां परंपरा केवल इतिहास नहीं बल्कि आज भी उतनी ही जीवंत, उतनी ही चमत्कारी है।
जल से होती है उत्सव की शुरुआत
यात्रा के इस उत्सव की शुरुआत होती है स्नान से। भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा को स्नान यात्रा के लिए मंदिर से बाहर लाया जाता है। इसके बाद मंदिर के प्रांगण में बने सोने के कुएं के पानी से इन्हें नहलाया जाता है, इस कुएं में सभी तीर्थों से आया जल शामिल होता है। इस कुएं को लेकर कहा जाता है कि इसमें मालवा प्रदेश के राजा इंद्रद्युम्न ने सोने की ईंटें लगवाईं थीं। इसके ढक्कन में एक छेद है, जिसमें से श्रद्धालु सोने की वस्तुएं डालते हैं। इसे यात्रा से पहले का सार्वजनिक शुद्धिकरण माना जाता है, इसके बाद भगवान ग़ायब हो जाते हैं।
ग़ायब इसलिए क्योंकि वे अगले 15 दिनों के लिए बीमार पड़ जाते हैं, भगवान जगन्नाथ को स्नान पूर्णिमा के बाद सर्दी लगने की मान्यता है। इसके पीछे मान्यता है कि भगवान भी उतने ही कोमल और मानवीय हैं, जैसे उनके भक्त। 15 दिनों तक भगवान की विशेष सेवा की जाती है और उनकी एक बच्चे की तरह सेवा की जाती है। उन्हें देसी जड़ी-बूटियों से बना काढ़ा और भोजन में मौसमी फल और परवल का रस अर्पित किया जाता है।
भगवान का गजवेश
इसी दिन शाम को भगवान गजवेश धारण करते हैं, यानी उन्हें हाथी के रूप में सजाया जाता है। यह परंपरा एक विशेष कथा से जुड़ी है, कहा जाता है कि कर्नाटक से आए एक वृद्ध भक्त ने भगवान से प्रार्थना की थी कि वह उन्हें गणेश रूप में दर्शन दें। भगवान ने इस भक्त की भावना को स्वीकार किया और तब से यह परंपरा चली आ रही है।
मंदिर बंद, भगवान विश्राम पर
जब भगवान बीमार पड़ते हैं तो इस वक्त को ‘अनवसर काल’ कहा जाता है। इस अवधि में मंदिर के पट पूरी तरह बंद रहते हैं। यहां तक कि पुरी के राजा को भी भगवान के दर्शन की अनुमति नहीं होती। राजा की उपाधि गजपति महाराज दिव्यसिंह देव चतुर्थ को दी गई है जो जो भोई राजवंश से ताल्लुक रखते हैं और जगन्नाथ मंदिर के मुख्य सेवक व प्रबंधन समिति के अध्यक्ष हैं।
शहर की साधना
पुरी शहर इस अवधि को श्रद्धा और अनुशासन से स्वीकार करता है। किसी तरह का हंगामा या असंतोष शहर में नहीं दिखता है बल्कि पूरे 2 किलोमीटर के दायरे में धार्मिक अनुशासन का पालन होने लगता है। मांसाहार पूरी तरह बंद कर दिया जाता है, शराब की दुकानें बंद कर दी जाती हैं, और अस्थायी खानपान स्टॉल तक हटा दिए जाते हैं। ऐसा मानते हैं कि जब भगवान स्वयं विश्राम कर रहे हैं, तो शहर को भी आत्मशुद्धि करनी चाहिए।
कारीगरों की रथ साधना
भगवानों के विश्राम के समय, कारीगर अपने काम में लग जाते हैं। यह कार्य सिर्फ निर्माण का नहीं, श्रद्धा और सेवा का होता है। हर साल तीन नए रथ बनाए जाते हैं, भगवान जगन्नाथ के लिए नंदिघोष, बलभद्र के लिए तालध्वज और सुभद्रा के लिए दर्पदलन। इन रथों का निर्माण विशेष प्रकार की पवित्र लकड़ियों से किया जाता है। इन रथों के निर्माण में न कोई मशीन लगती है, न ही पिछले साल का रथ दोबारा इस्तेमाल किया जाता है। हर बार नया रथ बनता है और हर बार वही पुरानी कहानी नए रूप में जीवित होती है। यह पूरी प्रक्रिया परंपरा, शिल्पकला और धार्मिक आस्था का संगम होती है। इन रथों को केवल वाहन नहीं माना जाता बल्कि ये चलते-फिरते मंदिर होते हैं। जब भगवान इन पर सवार होते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे पूरा मंदिर ही सड़कों पर उतर आया हो।
नवयौवन दर्शन
अनवसर काल की समाप्ति के बाद भगवान जगन्नाथ पहली बार सार्वजनिक दर्शन देते हैं। इसे नवयौवन दर्शन कहा जाता है, जिसमें भगवान रोगमुक्त होकर अपने नए स्वरूप में भक्तों को दिखाई देते हैं। यह दर्शन केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि धार्मिक रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। हजारों श्रद्धालु इस दर्शन के लिए पुरी पहुंचते हैं, क्योंकि यह वर्ष में केवल एक बार होता है।
रथ यात्रा की शुरुआत
इसके बाद अगले दिन होता है वो उत्सव जिसका सभी को बेसब्री से इंतज़ार रहता है। यानी रथ यात्रा, इस दिन भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा को मंदिर से बाहर लाया जाता है और उन्हें एक विशेष शोभायात्रा में ले जाया जाता है, जिसे पहांडी बीजे कहा जाता है। इस दौरान पुरी की धरती ‘जय जगन्नाथ’ के जयघोष से गूंज जाती है और लोग भजन गाते हुए झांझ, मंजीरा और मृदंग जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाते हैं। पुरी के गजपति महाराज, जिन्हें भगवान जगन्नाथ का प्रथम सेवक माना जाता है, ‘छेरा पहरा’ नामक परंपरा निभाते हैं, जिसमें वे भगवान के रथों और मार्ग सोने की झाड़ू से साफ करते हैं। यह अनुष्ठान विनम्रता और इस भाव का प्रतीक है कि भगवान के सामने सभी समान हैं।
इसके बाद लकड़ी के इन विशाल रथों को मोटी रस्सियों से हजारों भक्त खींचते हैं और भगवान अपनी पवित्र यात्रा पर निकल जाते हैं। यहां से यह यात्रा करीब 3 किलोमीटर दूर स्थित गुंडिचा मंदिर तक जाती है, जिसे भगवान की मौसी का घर माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि रथ को छूना, उसकी रस्सी को खींचना या बस भगवान के रथ पर एक झलक पा लेना भी अनेक पुण्य कर्मों या वर्षों की तपस्या के बराबर फल प्रदान करता है। रथ यात्रा वह एकमात्र अवसर होता है जब भगवान अपने भक्तों के पास स्वयं आते हैं और उनके पापों को हरते हैं।
गुंडिचा मंदिर में विश्राम
रथ यात्रा के दौरान जब भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा अपने रथों पर सवार होकर पुरी के मुख्य मंदिर से निकलते हैं, तो वे 9 दिनों के लिए गुंडिचा मंदिर में ठहरते हैं। यह कोई साधारण ठहराव नहीं होता, यह एक भावनात्मक वापसी है, जैसे कोई व्यक्ति वर्षों बाद अपने बचपन के घर लौटता है। ऐसा माना जाता है कि गुंडिचा मंदिर वही स्थान है जहां भगवान का जन्म हुआ था, और यह यात्रा उसी तरह की होती है जैसे भगवान कृष्ण कभी वृंदावन जाया करते थे।
हेरा पंचमी
यह अनुष्ठान भगवान जगन्नाथ और उनकी पत्नी देवी महालक्ष्मी के बीच संबंधों को दर्शाता है। ‘हेरा’ का अर्थ है खोजना या तलाशना और ‘पंचमी’ का अर्थ है पांचवां। यह अनुष्ठान रथ यात्रा के पांचवें दिन मनाया जाता है। माना जाता है कि जब भगवान जगन्नाथ अपने भाई और बहन के साथ गुंडिचा मंदिर में प्रवास के लिए निकलते हैं, तो वे देवी महालक्ष्मी को अगले दिन वापस आने का वादा करके पीछे छोड़ देते हैं। चार दिन बीत जाने के बाद भी वे वापस नहीं आते। पांचवें दिन उन्हें उनकी इतनी याद आने लगती है कि वे उनसे मिलने जाने का फैसला करती हैं।
महालक्ष्मी एक सुंदर सजी हुई पालकी में गुंडिचा मंदिर जाती हैं। जब वे मंदिर पहुंचते हैं, तो वे भगवान जगन्नाथ के दासों को पकड़ना शुरू कर देते हैं और उन्हें जल्द से जल्द उनके पास लौटने के लिए बाध्य करते हैं। तब देवी को प्रसन्न करने के लिए, प्रभु जगन्नाथ उन्हें आज्ञा माला (सहमति की माला) भेंट करके उनकी बात मान लेते हैं। मंदिर से लौटते समय मां लक्ष्मी के दासों द्वारा भगवान जगन्नाथ के रथ नंदीघोष का एक हिस्सा तोड़ लिया जाता है।
वापसी की यात्रा
9 दिनों के बाद भगवान फिर से अपने भक्तों के बीच लौटने निकलते हैं। इस वापसी यात्रा को ‘बहुदा यात्रा’ कहा जाता है। इस रास्ते में एक विशेष पड़ाव आता है, मौसी मां का मंदिर। यह मंदिर माँ अर्धासिनी को समर्पित है, इसलिए इसे अर्धासिनी मंदिर भी कहा जाता है। भक्तों का मानना था कि देवी अर्धसिनी कपालमोचन शिव के साथ मिलकर पुरी के संरक्षक के रूप में कार्य करती हैं। यहां भगवानों को चावल और गुड़ से बना हुआ उनका प्रिय भोग पोड़ा पीठा चढ़ाया जाता है। यह उस स्नेह की तरह होता है, जो घर लौटते मेहमानों के लिए मौसी रखती हैं।
नीलाद्रि बिजे
नीलाद्रि बिजे रथ यात्रा का अंतिम और सबसे भावनात्मक अनुष्ठान होता है, जो आषाढ़ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है। इस दिन भगवान जगन्नाथ गुंडिचा मंदिर से लौटकर श्रीमंदिर में प्रवेश करते हैं। ‘गोटी पहंडी’ परंपरा के अनुसार, देवताओं को एक-एक करके रथ से उतारकर रत्न सिंहासन तक पहुंचाया जाता है। इस दौरान देवी लक्ष्मी भगवान जगन्नाथ से नाराज़ हो जाती हैं और मंदिर के द्वार को बंद कर लेती है जिससे भगवान को प्रवेश नहीं मिलता है। इसके बाद सेवकों के बीच रस्साकशी होती है। अंत में भगवान लक्ष्मी को ‘रसगुल्ला’ भेंट कर माफ़ी मांगते हैं और देवी उन्हें क्षमा कर मंदिर में प्रवेश की अनुमति देती हैं।