मैं जब छठी कक्षा में पढ़ता था तब एक श्लोक पढ़ा था:
अभिवादन शीलस्य, नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम्।।
भावार्थ: जो सदैव अपने से बड़ों का अभिवादन करता है और उनकी सेवा करता है, उसके आयु, विद्या, यश और बल बढ़ते हैं।
उस समय ये सब केवल परीक्षा पास करने के लिए पढ़ते थे। लेकिन, आगे चलकर जब हिन्दू धर्मशास्त्रों का थोड़ा सा अध्ययन शुरू किया तब यह श्लोक फिर से मनुस्मृति में मिला। श्लोक पढ़ने के बाद थोडा विचार किया, तब समझ आया कि यह श्लोक जीवन को सफल बनाने का एक बहुत सुंदर सूत्र अर्थात् ‘फ़ॉर्मूला’ है। फ़ॉर्मूला क्यों है? यह जानने के लिए आईये थोड़ा विचार करें। आखिर एक व्यक्ति को जीवन में क्या चाहिए? उत्तर मिलेगा कि लंबी आयु चाहिए, अच्छा स्वास्थ्य चाहिए, अच्छी विद्या चाहिए, अच्छे स्किल चाहिए, प्रसिद्धि चाहिए, यश चाहिए, लोग सेलेब्रिटी बनना चाहतें है, और पैसा चाहिए, शक्ति चाहिए या अंग्रेजी में कहूँ तो ‘पॉवर’ चाहिए। मोटा मोटा ये चार कैटेगरी हैं जिनमें व्यक्ति के जीवन की हर इच्छा समाहित हो जाती है। जिसका स्वास्थ्य अच्छा होगा, जो अपनी फिल्ड का ज्ञानी होगा, जो पॉपुलर होगा और जिसके पास पॉवर होगी ( परिवार की, समाज की, पैसे की शरीर की या हर तरह की पॉवर) वह व्यक्ति क्या नहीं कर सकता? इन्ही चार चीजों के पीछे व्यक्ति जीवन भर भागता रहता है।
अब ऊपर लिखे श्लोक का अर्थ दोबारा पढ़िये ! क्या समझ आया? थोड़ा विस्तार देता हूँ। यह श्लोक कहता है कि जो व्यक्ति अपने बड़े बुजुर्गों का नित्य अभिवादन करता है या नमस्ते करता है या प्रणाम करता है या चरण छूता है या उनकी बात मानता है और उनकी सेवा करता है उसके चार गुण बढ़ते हैं और वे चार गुण हैं आयु, विद्या यश और बल। मतलब यह है कि हिन्दू शास्त्रों के अनुसार यदि किसी को अपनी आयु, विद्या, यश और बल बढ़ाना है तो रोज अपने से बड़े बुजुर्गों, माता-पिता, दादा-दादी या और भी जो बड़े लोग हैं उनका अभिवादन करना चाहिए और उनकी सेवा करनी चाहिए। है न ये एक सूत्र?
अब ये सूत्र रूपी श्लोक मनुस्मृति में हैं। इसी मनुस्मृति को ‘मानव धर्म शास्त्र’ भी काहा जाता है। ये वही मनुस्मृति है जिसे लोग आये दिन बिना पढ़े ही बुरा भला कहते रहते हैं। या कुछ चुनिन्दा बातों को पकड़कर इसे जलाते रहते हैं। जितना विवाद मनुस्मृति के नाम पर भारत में होता है उतना शायद ही किसी और चीज को लेकर होता है। हिन्दू शास्त्रों के साथ ईसाई अंग्रेजों और उनके पिठुओं ने कितनी बड़ी साजिश की है यह जानना है तो आपको गुरूजी सुंदर राज अनंत द्वारा लिखित उत्कृष्ट पुस्तक ‘व्हाई द शिव लिंग इज नॉट अ फल्लस (अ मेल जेनिटल ऑर्गन)’ पढ़नी होगी।
अभी हाल ही में इंडिका सेंटर फॉर मोक्ष स्टडीज के निदेशक नितिन श्रीधर द्वारा अंग्रेजी भाषा में लिखित ‘चतुः श्लोकी मनुस्मृति: एन इंग्लिश कमेन्ट्री’ पुस्तक हाथ लगी। इस पुस्तक का प्रकाशन वितस्ता प्रकाशन ने किया है। नितिन भारत को भारत की दृष्टि से देखने वाले विद्वान लेखक हैं। उनकी एक और शानदार रचना ‘द सबरीमला कंफ्यूजन: मेंस्ट्रुएशन अक्रॉस द कल्चर्स’ भी मैंने पढ़ी है। विषय का गंभीरता से सरल प्रस्तुतीकरण करना नितिन की विशेषता है।
चतुः श्लोकी मनुस्मृति: एन इंग्लिश कमेन्ट्री’ में भी इन्होने यही किया है। जैसा की इसके शीर्षक से ही समझ आता है इसमें मनुस्मृति के मूल विचारों को अपने समाहित करने वाले चार प्रमुख श्लोकों पर विशेष टिका लिखी गयी है। इन चार श्लोकों के आधार पर उन्होंने मनुस्मृति को समग्रता से प्रस्तुत करने का उत्कृष्ट प्रयास किया है। आज के समय के अनुसार विश्लेषण करते हुए और प्रचुर संदर्भों के साथ मनुस्मृति पर ऐसी टिका लिखना अपने आप में एक बड़ा प्रयास माना जाना चाहिए।
386 पृष्ठों की दो भागों में लिखी इस पुस्तक का प्राक्कथन सुप्रसिद्ध विद्वान, पद्म श्री डॉ. भरत गुप्त द्वारा लिखा गया है। यह प्राक्कथन पाठक को पुस्तक के महत्त्व को समझने के लिए पर्याप्त है। यह प्राक्कथन पाठक को पुस्तक को अंत तक पढ़ने की प्रेरणा देता है। पुस्तक के मुख्य अध्याय गहन शोध के बाद लिखे गए प्रतीत होते हैं क्योंकि ये साधारण टिप्पणियाँ नहीं हैं।
लेखक ने इस कार्य में आधुनिक विद्वानों, विशेषकर पश्चिमी जगत के विद्वानों के मनुस्मृति के समझने के स्तर का भी अच्छा मुल्यांकन किया गया है। इसका एक उदाहरण यहाँ देना उचित रहेगा। प्रथम अध्याय के पृष्ठ 10-11 पर पश्चिमी विद्वान ‘जॉली’ (1889) का एक उद्धरण है, जिसमें जॉली सुमति को भृगु का पुत्र बताता है। नितिन जॉली को सुधारते हुए लिखते हैं, “जिसे जॉली ‘सन ऑफ़ भृगु’ लिख रहे हैं वह वास्तव में ‘भार्गव’ शब्द है, जिसका अर्थ है भृगु का वंशज, सुमति भार्गव भृगु के वंशज हैं नाकि उनके पुत्र अर्थात् ‘बायोलॉजिकल सन’।
इतना पढ़ते ही हमें पश्चिमी विद्वानों ने हमारे शास्त्रों का कैसा अनुवाद किया होगा यह समझ आ जाता है। अपनी इस पुस्तक में नितिन ने यदि मैं अभद्रता नहीं कर रहा हूँ तो ‘कई जगह पर विदेशी विद्वानों की पोल खोली है’। यह बात और पक्की होगी जब पाठक पुस्तक पूरी पढ़ेंगे। इसी अध्याय में आपको नारदस्मृति के उद्धरण के बाद कामशास्त्र और वेदान्त का उद्धरण भी मिलेगा जिसके माध्यम से ज्ञान का विस्तार कैसे हुआ था, इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। इस विषय में पृष्ठ 19 पर दिया गया चित्र बहुत सहायक है। यदि मैं पहले अध्याय की विशेषता एक पंक्ति में लिखूं तो नितिन ने इस अध्याय में वामपंथियों की चहेती वेंडी डॉनिगर के उस दावे की धज्जियाँ भी उड़ाई हैं जिसमें उसने 1991 में मनुस्मृति के अपने अनुवाद में मनुस्मृति को ‘पैचवर्क’ बताया था।
पुस्तक का दूसरा अध्याय बहुत रोचक और झकझोरने वाला है। हिन्दू शास्त्रों को लेकर दिन भर सोशल मीडिया, मीडिया और सामाजिक जीवन में जो जो बातें हो सकती हैं उनको बिंदु बार लिखा गया है और फिर हिन्दू धर्मशास्त्रों को लेकर जो मूल वास्तविक समझ होनी चाहिए उसके बारे में विस्तार से बताया गया है। इस अध्याय ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया है। क्योंकि जो बिंदु इस अध्याय के शुरू में उठाये गये हैं ठीक वैसी ही बातें कभी कभी मैं भी करता रहता हूँ। यह इस बात का प्रमाण है कि मैं भी बहुत भीतर से उपनिवेशवादी ईसाई मानसिकता से ग्रसित हूँ। मेरा भी बौद्धिक शुद्धिकरण होना चाहिए। नितिन की इस पुस्तक ने मुझे एक नयी दिशा दी है।
अध्याय 3 में मनुस्मृति की ‘डिकोडिंग’ करने का उत्कृष्ट प्रयास किया गया है। इस अध्याय में यह भी बताया गया है कि धर्म शास्त्रों के अध्ययन के लिए श्रद्धा होना क्यों आवश्यक है? आये दिन मनुस्मृति को लेकर हमला किया जाता है कि इसमें महिलाओं लेकर बहुत गलत लिखा हुआ है। इस बात को लेकर बहुत बबाल मचाया जाता है। यह पुस्तक पढने के बाद अब मुझे यह समझ आ गया है कि लोग कहाँ गलती करते हैं। पाठकों के समझने के लिए दूसरे अध्याय के पृष्ठ 71-79 दो केस स्टडीज दी गयी हैं जो इन बबाल मचाने वालों को तो अवश्य पढनी चाहिए। ये केस स्टडीज हमें बताती हैं कि हम श्लोकों के अर्थ को समझने में कहाँ भूल करते हैं। ये केस स्टडीज मनुस्मृति में महिलाओं को लेकर लिखी बातों पर होने वाले बबाल का पूरा नैरेटिव बदलने का सामर्थ्य रखती हैं।
पुस्तक के भाग 2 मैं चार श्लोकों पर विस्तार से टिका की गयी है। ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि गागर में सागर भरी गयी है। चार श्लोकों के माध्यम से सम्पूर्ण मनुस्मृति का सारतत्व प्रस्तुत करने का अद्भुत प्रयास किया गया है। नितिन श्रीधर की यह पुस्तक हर तरह की संकीर्णता को दूर रखते हुए भारत की विराट ज्ञान परम्परा और बौद्धिक परम्परा के व्यापक स्वरुप का सुंदर प्रस्तुतिकरण है। आधुनिक समय में विदेशी लेखकों द्वारा की गलत व्याख्याओं की पोल इसमें सप्रमाण खोली गयी है। विदेशी लेखक अपना उचित ज्ञान वर्धन करने के लिए इस पुस्तक का उपयोग कर सकते हैं, इससे उन्हें बहुत लाभ होगा और वे अज्ञानता वश हिन्दू धर्मशास्त्रों की गलत व्याख्या करके जो पापकर्म कर रहे हैं वे उससे बच सकते हैं।
इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने हिन्दू धर्मशास्त्रों को समझने का एक सुंदर तरीका बताया है। नितिन श्रीधर की यह पुस्तक पाठकों को मानव धर्म शास्त्र की गहरी समझ प्रदान करने का उत्कृष्ट प्रयास है। नितिन जैसे विद्वान् इसी तरह की पुस्तकें लिखकर अपना धर्म अच्छे से निभा रहे हैं, अब आज का हिन्दू समाज यह नहीं कह सकता कि अपने शास्त्रों को कैसे और कहाँ से समझें। अब बारी हिन्दू समाज की है कि वह इस उत्कृष्ट पुस्तक को पढ़े और लेखक के कठोर परिश्रम को सार्थक करे और मानसिक उपनिवेशवाद से बाहर निकलने का अपना मार्ग प्रशस्त करे। नारायणायेती समर्पयामि…