पंजाब के बरगाड़ी में गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटना ने वहां की सामूहिक चेतना को झकझोर दिया था। इसके नौ साल बाद, राज्य ने आख़िरकार भारत का पहला व्यापक बेअदबी-विरोधी कानून पेश किया है। आम आदमी पार्टी (आप) सरकार द्वारा पारित पंजाब पवित्र धर्मग्रंथों के विरुद्ध अपराध निवारण विधेयक 2025 किसी भी धार्मिक ग्रंथ का अपमान करने पर आजीवन कारावास का प्रस्ताव करता है।
सीएम ने बताया ऐतिहासिक क्षण
मुख्यमंत्री भगवंत मान ने इस कदम को सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए एक ‘ऐतिहासिक क्षण’ बताया। लेकिन, आलोचकों का कहना है कि यह क़ानून न्याय से कम और राजनीतिक लाभ, बहुसंख्यकों के तुष्टिकरण और संभवतः अल्पसंख्यकों को दबाने के औज़ारों से ज़्यादा जुड़ा है। कई लोगों का तर्क है कि यह कानून बेहद अस्पष्ट, कानूनी रूप से निरर्थक और राजनीतिक रूप से समयबद्ध है। इसका उद्देश्य राहत पहुंचाना नहीं, बल्कि असहमति को दबाना, अल्पसंख्यक समुदायों को डराना और पिछले तीन वर्षों में AAP की अपनी शासन संबंधी विफलताओं से ध्यान हटाना है।
एक दशक की देरी, अचानक विधेयक
जानकारी हो कि AAP 2022 में पंजाब में बेअदबी के मामलों में निर्णायक न्याय का वादा करके सत्ता में आई थी। इसके बाद भी आज तक किसी भी मामले में बड़ी सजा नहीं मिली है। इधर, बरगाड़ी, बहबल कलां और कोटकपुरा सहित पिछली घटनाओं की जांच भी धीमी पड़ गई है। कार्यकर्ता गुरजीत सिंह खालसा द्वारा एक मोबाइल टावर के ऊपर लगभग 280 दिनों तक विरोध प्रदर्शन करने के बाद ही सरकार ने आखिरकार विधेयक पेश किया, जिससे संकेत मिलता है कि यह कानून दबाव से आया है, नीति से नहीं, और निश्चित रूप से किसी सैद्धांतिक तात्कालिकता से नहीं।
व्यापक परिभाषाएं, कठोर दंड
यह विधेयक किसी भी धर्म के पवित्र ग्रंथ के किसी भी भाग के अपमान को अपराध बनाता है। इसके तहत ये प्रस्ताव हैं:
अपवित्रीकरण के लिए आजीवन कारावास
सामान्य अपराधों के लिए ₹5-10 लाख का जुर्माना
यदि बेअदबी के कारण सांप्रदायिक हिंसा या मृत्यु होती है तो 20 साल से आजीवन कारावास
दोषियों के लिए पैरोल या छुट्टी नहीं
नाबालिगों द्वारा किए गए कृत्यों के लिए माता-पिता या अभिभावकों को उत्तरदायी ठहराया जाएगा
ग्रंथियों, मौलवियों और पुजारियों जैसे धार्मिक पदाधिकारियों के लिए विशेष दंड
ये अपराध गैर-जमानती, गैर-समझौता योग्य और संज्ञेय हैं, जिनकी जांच केवल डीएसपी रैंक या उससे ऊपर के पुलिस अधिकारियों द्वारा ही की जा सकती है।
पहली नज़र में, यह कानून समावेशी लगता है। इसमें गुरु ग्रंथ साहिब, कुरान शरीफ, बाइबिल, श्रीमद्भगवद्गगीता और अन्य पवित्र ग्रंथों का उल्लेख है। लेकिन कई नागरिक अधिकार अधिवक्ताओं का कहना है कि खतरा लिखित में नहीं, बल्कि कानून के लागू होने के तरीके में है।
अस्पष्ट भाषा, लक्षित प्रभाव?
कानूनी विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि बेअदबी की व्यापक परिभाषाएं, जिनमें धर्मग्रंथों का ‘जानबूझकर अपमान’ भी शामिल है, दुरुपयोग के लिए तैयार हैं। कौन तय करता है कि क्या अपमान माना जाएगा? क्या किसी आयत को संदर्भ से बाहर उद्धृत करना अपराध माना जाएगा? क्या व्यंग्य, आलोचना या धार्मिक बहस को ईश निंदा के बराबर माना जा सकता है? इधर, अल्पसंख्यक समूहों का कहना है कि जोखिम यह है कि व्याख्या निष्पक्ष नहीं होगी।
लुधियाना के एक मानवाधिकार वकील ने कहा, “ईसाई और मुस्लिम समुदायों में इस बात को लेकर गहरी चिंता है कि इस कानून को चुनिंदा तौर पर लागू किया जाएगा।” “हमने अतीत में देखा है कि अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों, पादरियों और यहां तक कि दलित धर्मोपदेशकों पर भी अक्सर ‘आहत भावनाओं’ का हवाला देकर आरोप लगाए जाते हैं।” हाल के वर्षों में, पादरियों को धार्मिक साहित्य वितरित करने के लिए गिरफ्तार किया गया है, और मुस्लिम नेताओं को सोशल मीडिया पोस्ट के लिए एफआईआर का सामना करना पड़ा है। डर यह है कि यह कानून अब राज्य द्वारा अनुमोदित ईश निंदा संहिता बन सकता है। पाकिस्तान में देखे जाने वाले कानूनों की तरह, जिसका इस्तेमाल धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि उसे रोकने के लिए किया जाता है।
‘अपवित्रीकरण’ के माध्यम से असहमति का दमन
यह चिंता केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक भी है। विधेयक की भाषा में अस्पष्टता अधिकारियों को कार्यकर्ताओं, विद्वानों और कलाकारों को चुप कराने के हथियार दे सकती है। नागरिक स्वतंत्रता समूहों का कहना है कि एक सोशल मीडिया पोस्ट, एक विश्वविद्यालय संगोष्ठी या यहां तक कि एक विरोध नारे को भी अपवित्रता के मामले में बदल दिया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट की वकील और पूर्व शिक्षाविद जसप्रीत कौर ने कहा, “जो आस्था की रक्षा के रूप में शुरू होता है, वह आसानी से विचारों के दमन में बदल सकता है। इस सरकार ने पहले ही आलोचना के प्रति बहुत कम सहिष्णुता दिखाई है। इस कानून के साथ, अब उनके पास धर्म की रक्षा के नाम पर आपको गिरफ्तार करने की शक्ति है।” कुछ लोग बताते हैं कि पंजाब में पहले से ही भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 298-300 के तहत कानूनी प्रावधान हैं, जो जानबूझकर धार्मिक उकसावे पर दंड का प्रावधान करते हैं। कौर ने कहा, “जो पहले से मौजूद है उसे लागू करने के बजाय, आप ने एक नाटकीय नया कानून चुना है, जो नैतिक आतंक और कानूनी अस्पष्टता से भरा है।”
न्याय की ओर कदम या चुनावी इंजीनियरिंग?
आप की टाइमिंग ने भी राजनीतिक संदेह पैदा किया है। इस विधेयक को एक विशेष विधानसभा सत्र में जल्दबाजी में पारित किया गया, जिसमें केवल दो घंटे की बहस का समय था। विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा ने सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि ‘इस सरकार के पास कार्रवाई करने के लिए तीन साल थे। अब क्यों? इतनी जल्दी क्यों? और बिना सलाह-मशविरा किए क्यों?’ बाजवा ने सदन को याद दिलाया कि कांग्रेस ने 2018 में भी ऐसा ही विधेयक पारित किया था, लेकिन केंद्र ने उसे एक खास बात के कारण खारिज कर दिया था।