हिंदी फिल्म उद्योग, जिसे आमतौर पर बॉलीवुड कहा जाता है, भारत में हर वर्ग के व्यक्ति को प्रभावित करता है। यह न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि जनमानस, सामाजिक मान्यताओं और सांस्कृतिक मूल्यों पर असर छोड़ता है। हाल के वर्षों में इसकी प्रस्तुतियों की दिशा इस ओर इशारा करती है कि यह उद्योग उत्तरदायी कहानी कहने की परंपरा से हटकर उन प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रहा है जो सामाजिक मूल्यों के लिए संकट पैदा कर सकती हैं। किस प्रकार बॉलीवुड में उभरती कुछ प्रवृत्तियाँ व्यापक सामाजिक विघटन का कारण बन सकती हैं, इस आलेख में यह संकेत करने का प्रयास किया गया है।
नारी के वस्तुकरण और पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण की पुनरावृत्ति
बॉलीवुड की फिल्मों पर ध्यान दें तो पता चलता है कि यह महिलाओं को भौतिक वस्तु के रूप में प्रस्तुत करता है। फिल्मों में ‘आइटम सॉन्ग’ जैसी प्रवृत्तियाँ, जहाँ महिलाओं को केवल पुरुष दृष्टिकोण से आकर्षक रूप में दिखाया जाता है, स्त्री की गरिमा का हनन करती हैं। यह प्रवृत्ति न केवल स्त्रीविरोधी मानसिकता को पुष्ट करती है, बल्कि महिलाओं की सामाजिक स्थिति को भी कमजोर करती है। इसके अतिरिक्त, बॉलीवुड फिल्मों में ऐसे कथानक बार-बार दिखाई देते हैं जहाँ महिलाएँ माफिया डॉन, अपराधियों या नैतिक रूप से संदेहास्पद पुरुषों के साथ प्रेम-संबंध में दिखाई जाती हैं। इस प्रकार की कहानियाँ विषाक्त पुरुषत्व (toxic masculinity) को आकर्षक बनाकर प्रेम संबंधों में हिंसा और शोषण को वैध बना देती हैं। इसके साथ ही टीवी धारावाहिक भी पीछे नहीं हैं। आज के धारावाहिकों में नारी को अक्सर दो चरम सीमाओं पर प्रस्तुत किया जाता है: एक ओर वह अबला, दुखियारी, हर वक्त रोने वाली और दूसरों पर निर्भर महिला होती है; तो दूसरी ओर वह चालाक, साजिश रचने वाली, घर तोड़ने वाली “विलेन” के रूप में दिखाई जाती है। कहीं वह “संस्कारी बहू” बनकर आदर्शों के नाम पर आत्म-बलिदान करती रहती है, तो कहीं वह चुड़ैल, डायन, नागिन जैसे रूपों में दिखाई जाती है।
धन, अपराध और विषाक्त संबंधों का महिमामंडन
बॉलीवुड फिल्मों में विलासिता, भोगवाद और उपभोक्तावाद का अंधाधुंध प्रदर्शन चिंता का विषय है। फिल्मों के चरित्र अक्सर अनैतिक तरीकों से धन कमाते हैं और फिल्में इन्हें पुरस्कार के रूप में प्रस्तुत करती हैं, जिससे यह संदेश जाता है कि नैतिकता की तुलना में धन अधिक महत्वपूर्ण है। इससे समाज में असमानता की खाई और गहरी हो सकती है। इसी तरह, भावनात्मक शोषण और हिंसा से भरे संबंधों को ‘सच्चे प्रेम’ के रूप में दिखाना दर्शकों को भ्रमित करता है, विशेषकर युवतियों को, जो ऐसे संबंधों को आदर्श मान सकती हैं।
सांस्कृतिक क्षरण और पारंपरिक मूल्यों का ह्रास
बॉलीवुड का बढ़ता रुझान विवाहेतर संबंधों, नैतिक द्वंद्व और पारिवारिक अस्थिरता को आकर्षक बनाकर प्रस्तुत करने की ओर बढ़ रहा है। इससे पारंपरिक नैतिक मूल्यों की नींव कमजोर होती है और परिवार संस्था की सामाजिक उपयोगिता पर प्रश्न खड़े होते हैं। इसके साथ ही, शराब और मादक द्रव्यों के सेवन को फिल्मी किरदारों द्वारा सहज रूप से अपनाना इन घातक प्रवृत्तियों को सामान्य बना देता है। यह समाज में असंवेदनशीलता और जोखिमपूर्ण व्यवहार को बढ़ावा दे सकता है।
सौंदर्य मानकों की समस्या
इसी प्रकार, फिल्मों में सौंदर्य के नकली मानकों को बढ़ावा दिया जाता है, जिसके कारण बच्चों और युवाओं में गोरा रंग, छरहरा शरीर पाने की लालसा जगती है और पश्चिमी जगत के लोग ही सुंदर होते हैं ऐसी भावना भी पैदा होती है। इससे उनमें असंतोष और आत्मविश्वास की कमी जन्म लेती है।
रैप संगीत और बंदूक संस्कृति का महिमामंडन
अब रैप संगीत और बंदूक संस्कृति को आप कहेंगे? बॉलीवुड में समकालीन रैप संगीत का उपयोग, विशेषकर ऐसे गीतों का जिनमें बंदूक संस्कृति और आक्रामकता का गुणगान होता है, अत्यंत चिंताजनक है। ऐसे गीत युवाओं के बीच हिंसात्मक प्रवृत्तियों को सामान्य बना सकते हैं और संवाद की जगह संघर्ष को प्राथमिकता दे सकते हैं।
लौरा मल्वी की “Male Gaze” अवधारणा के अनुसार, मुख्यधारा की फिल्में महिलाओं को पुरुष दर्शक की दृष्टि से दिखाती हैं, जिससे वे केवल देखने की वस्तु बनकर रह जाती हैं। बॉलीवुड में ‘आइटम गीतों’ और ‘ग्लैमराइज्ड’ महिला पात्रों के माध्यम से यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है। उदाहरण के लिए, कबीर सिंह और एनिमल जैसी फिल्मों में स्त्री पात्रों की चुप्पी, और हिंसक पुरुष पात्रों के प्रति आकर्षण को आदर्श प्रेम के रूप में दिखाया जाता है। इससे युवा दर्शकों में विषाक्त संबंधों (toxic relationships) की स्वीकृति बढ़ सकती है।
अपराध और विलासिता का महिमामंडन
बॉलीवुड में धन, अपराध और विलासिता का संयोजन आम बात हो गई है। पुष्पा और गैंग्स ऑफ़ वासेपुर जैसी फिल्मों में अपराधियों को नायक के रूप में चित्रित किया गया है, जो समाज के नैतिक ढाँचों को विघटित करता है। यह उपभोक्तावाद और वर्ग-आधारित भेदभाव को सामान्य बना देता है। इससे यह धारणा बनती है कि नैतिकता से अधिक महत्वपूर्ण ‘सफलता’ और ‘धन’ है, चाहे वह किसी भी मार्ग से प्राप्त हो।
बॉलीवुड जिस तरह से महिलाओं की छवि गढ़ रहा है वह अत्यंत चिंताजनक है। यह प्रवृत्ति केवल कल्पना तक सीमित नहीं रहती बल्कि ये छवियाँ समाज के मनोविज्ञान को प्रभावित करती हैं। जब बार-बार यह दिखाया जाता है कि महिलाएँ केवल षड्यंत्र करती हैं, वो केवल भोग विलास की वस्तु हैं, वे किसी गुंडे मवाली पर मोहित हो जाती हैं, वे आइटम डांस करने वाली, पब या बार में जाकर दारूबाजी और अनैतिक संबंध बनाती हैं, तो यह समाज में महिलाओं के प्रति अविश्वास, असम्मान और रूढ़िवादी सोच को जन्म देता है।
बॉलीवुड जैसी प्रभावशाली संस्था के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक भूमिका को आत्मसात करे। जहाँ कुछ समकालीन फिल्मकार जाति, लिंग पहचान, ग्रामीण संकट, और पारिस्थितिक न्याय जैसे मुद्दों को गंभीरता से उठा रहे हैं, वहीं यह प्रयास अब भी मुख्यधारा से बाहर हैं। बॉलीवुड के पास समाज को प्रभावित करने और दिशा देने की अद्वितीय क्षमता है। परंतु जब यह उद्योग सनसनीखेजता, उपभोक्तावाद, और सामाजिक रूढ़ियों पर निर्भर होकर अपनी भूमिका निभाता है, तो वह सामाजिक और नैतिक पतन को आमंत्रित करता है। यदि समय रहते संभले नहीं, तो यह प्रवृत्तियाँ सांस्कृतिक और नैतिक संकट में बदल सकती हैं। अतः यह बॉलीवुड की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह समाज में सकारात्मक मूल्यों को बढ़ावा दे और सामाजिक पूर्वग्रहों को चुनौती दे। तभी यह उद्योग वास्तव में समाज का आईना बन सकेगा जो उसकी जटिलताओं को दिखाए, उसकी मान्यताओं को सशक्त करे, और एक न्यायपूर्ण भविष्य की कल्पना प्रस्तुत करे।
जहाँ तक स्त्री अथवा नारी की बात है तो नारी के भीतर वह भावनात्मक संतुलन होता है, जो परिवार, समाज और संबंधों को जोड़कर रखता है। वह जब माँ होती है, तो अपने बच्चों में मानवीय मूल्यों का सिंचन करती है; जब पत्नी होती है, तो अपने जीवनसाथी का संबल बनती है; और जब बेटी होती है, तो पूरे परिवार में मुस्कान बिखेर देती है।
ऐसे में मीडिया समाज का दर्पण माना जाता है, लेकिन आज के समय में वह केवल दर्पण नहीं, बल्कि विचार निर्माण का सबसे बड़ा उपकरण बन चुका है। यही कारण है कि उसे यह तय करना चाहिए कि वह समाज को क्या दिखा रहा है और उससे क्या सन्देश प्रसारित हो रहा है। बॉलीवुड और टीवी को चाहिए कि वे नारी को केवल मनोरंजन का साधन न बनाकर, उसकी वास्तविक, जटिल, और सशक्त छवि को प्रस्तुत करें।
नारी के भीतर वह शक्ति है जो पूरे समाज को बदल सकती है। वह केवल दुख सहने वाली नहीं, बल्कि अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली भी है। वह बदलाव की वाहक है। नारी को “डायन” या “चालाक स्त्री”, चुड़ैल, भोग की वस्तु और अश्लील नंगेपन के किरदारों तक सीमित कर देना, उसकी असल पहचान का अपमान है। हमें यह समझना होगा कि नारी को जिस तरह से हम अपनी कहानियों, विज्ञापनों और सिनेमा में प्रस्तुत करते हैं, वह अगली पीढ़ी की सोच को गहराई से प्रभावित करता है। इसलिए ज़रूरत है उस बदलाव की, जहाँ नारी को उसकी संपूर्णता, विविधता और गरिमा के साथ प्रस्तुत किया जाए।
नारी एक सजीव दर्शन है, वह प्रेम है, करुणा है, शक्ति है और सृजन की देवी है। उसे “चुड़ैल”, “डायन”, या “विलेन” बनाकर प्रस्तुत करना केवल उसकी छवि को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज की मानसिकता को भी विकृत करना है। जयशंकर प्रसाद ने अपनी कविता में नारी को केवल शारीरिक अस्तित्व के रूप में नहीं, बल्कि श्रद्धा, विश्वास, करुणा और सौंदर्य के प्रतीक के रूप में चित्रित किया है।
नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग-पग तल में,
पीयूष स्रोत सी बहा करो,
जीवन के सुन्दर समतल में।
नारी जीवन के भावनात्मक संतुलन, प्रेम, और सृजनात्मक ऊर्जा की प्रतिनिधि है। वह केवल प्रेमिका या पत्नी नहीं, माँ, सखी, शक्ति और सृजन की देवी है।
बॉलीवुड और टीवी को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए कि वह केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक सोच का निर्माण भी करता है। जब स्क्रीन पर नारी की वास्तविक, सशक्त और प्रेरणादायक छवि दिखेगी, तभी समाज में भी उसका स्थान और सम्मान सुरक्षित रहेगा।