वैज्ञानिक और शिक्षक से सरसंघचालक तक: प्रो. राजेन्द्र सिंह उपाख्य ‘रज्जू भैया’ की प्रेरक जीवनयात्रा

14 जुलाई 2003 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह उपाख्य 'रज्जू भैया' का देहावसान हुआ था।

आरएसएस के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया

आरएसएस के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों के लिए ‘14 जुलाई’ का दिन विशेष स्मृति दिवस होता है, क्योंकि 14 जुलाई 2003 को संघ चतुर्थ सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया का देहावसान हुआ था। इस कारण से प्रतिवर्ष 14 जुलाई को रज्जू भैया की पुण्यतिथि  होती है । लगभग 5 वर्ष पूर्व सुप्रसिद्ध लेखक डॉ रतन शारदा जी की पुस्तक ‘आरएसएस 360’ का अनुवाद कार्य करने का अवसर मुझे मिला था, उस दौरान रज्जू भैया के बारे में गहराई से जान पाया था । इस आलेख में रतन जी की पुस्तक के हवाले से संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह उपाख्य ‘रज्जू भैया’ को विनम्र श्रद्धांजलि दी जा रही है

भारत के आधुनिक इतिहास में कुछ ऐसे व्यक्तित्व होते हैं जो बिना किसी दिखावे के, बिना किसी राजनीतिक मंच या प्रचार के, अपने समर्पण, तप और विचारों के माध्यम से समाज की गहराइयों तक प्रभाव डालते हैं। रज्जू भैया ऐसे ही व्यक्तित्व थे। उनका जीवन और योगदान केवल संघ तक सीमित नहीं था बल्कि वे एक वैज्ञानिक, शिक्षक, विचारक और सबसे बढ़कर एक विनम्र, सादे, राष्ट्रभक्त साधक थे।

रज्जू भैया बहुत कुशाग्र बुद्धि के व्यक्तित्व थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के समय वे संघ से जुड़े। अपने उत्कृष्ट संगठनात्मक कौशल के कारण उनकी संघ में तीव्रता से दायित्वोन्नति हुई। वह एक प्रोफेसर के रूप में प्रचारक की तरह ‘झोला’ उठाकर और ‘धोती कुरता’ में व्याख्यान देने हेतु अपनी कक्षाओं में सीधे चले जाते थे। उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा के कारण ही भौतिक विज्ञान में नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक श्री सी.वी. रमण और होमी जहांगीर भाभा जैसे महान न्यूक्लिअर वैज्ञानिकों ने अपने साथ शोधकार्य करने हेतु आमंत्रित किया था। परन्तु, उन्होंने संघ के माध्यम से समाज हित में कार्य करने के लिए अपने मार्ग का चुनाव पूर्व में ही कर लिया था।

वह अत्यंत मृदुभाषी, प्रसन्नचित और ओजस्वी व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनकी अंतरात्मा आध्यात्मिक थी जो उनके व्यक्तित्व से परिलक्षित होता था। जो भी उनसे भेंट करने जाता, उनसे बहुत प्रभावित होता था। अपने मृदु स्वभाव और सहयोगी वृति के कारण अध्यापन के समय से ही सभी उन्हें आदरपूर्वक ‘रज्जू भैया’ कहकर बुलाते थे। वह बहुत अच्छे कवि और गायक थे और उन्होंने संघ के कई गीतों के संगीत निर्धारण में भी मदद की थी।

रज्जू भैया कहते थे, “सभी लोग मूल रूप से अच्छे हैं। प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे की अच्छाई पर विश्वास करके ही व्यवहार करना चाहिए। किसी के प्रति क्रोध, ईर्ष्या, इत्यादि उसके पिछले अनुभवों के प्रतिबिम्ब है, जो उसके व्यवहार को भी प्रभावित करते हैं। मुख्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति अच्छा है और हर कोई विश्वसनीय है।

उनकी स्मृति बहुत तेज थी, वर्षो और दशकों उपरान्त मिलने के बाद भी वे परिचित लोगों और पूर्व छात्रों को नाम लेकर पुकारते थे। वे कुशाग्र बुद्धिजीवी और शारीरिक साहस के साथ साथ दृढ संकल्पित व्यक्ति थे। अपनी राय स्पष्ट रूप से व्यक्त करने से वे कदापि हिचकिचाते नहीं थे। सरसंघचालक के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, शिक्षा के प्रति उनके जुनून ने संघ के अनुसांगिक संगठनों को भारत के नुक्कड़ और कोनों तक पहुंचकर हजारों विद्यालय संचालित करने के लिए प्रोत्साहित किया। आनंददायक तथ्य यह है कि वे श्रीगुरूजी के सहयोग से सन 1948-1950 में संघ के इस शिक्षा आंदोलन का श्री गणेश करने वाले प्रचारकों नानाजी देशमुख और भाऊराव देवरस वाली टोली के सदस्य थे।

अन्य सरसंघचालकों की तरह वे भी स्वदेशी की अवधारणा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने में दृढ़ विश्वास रखते थे। ग्रामीण विकास हेतु गतिविधियों को आरम्भ करते हुए उन्होंने सन 1995 में घोषणा की थी कि गाँवों को क्षुधा मुक्त, रोग मुक्त तथा शिक्षा युक्त करने के प्रयासों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। आज देश में ऐसे सैकड़ों गाँव हैं जहाँ स्वयंसेवकों द्वारा किए गए ग्रामीण विकास कार्यों ने आस-पास के गाँवों के लोगों को प्रेरित किया है और उनके प्रयोगों का उन लोगों द्वारा अनुकरण किया जा रहा है। उनके पास विद्यार्थियों, संगी-साथियों, शिक्षाविदों, आध्यात्मिक और सामाजिक/राजनीतिक नेताओं के साथ मधुर संबंध बनाये रखने का कौशल था। रज्जू भैया भाजपा के कई नेताओं के पालक थे। उनकी राजनीतिक सूझबूझ बहुत तीव्र थी, परन्तु संघकार्य के प्रति निष्ठा के कारण उन्होंने स्वयं को सक्रिय राजनीति से दूर रखा।

संघ में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि आपातकाल के विरोध में हुए भूमिगत संघर्ष के दौरान वे भारत के वरिष्ठ नौकरशाहों, राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं से संपर्क करने वाले प्रमुख व्यक्ति थे। वे राम जन्मभूमि आंदोलन का मार्गदर्शन करने वाले संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं में से एक थे। संघ प्रमुख के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान ही भाजपा राष्ट्रीय राजनीति में दुर्बल खिलाड़ी से अग्रणी खिलाड़ी बनी और अंततः केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार सत्तारूढ़ हुई।

रज्जू भैया की सोच अत्यंत आधुनिक होते हुए भी भारतीय मूल्यों में गहराई से रची-बसी थी। वे मानते थे कि राष्ट्र की उन्नति केवल राजनीति से नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण से संभव है। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने कई बार कहा कि शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजगार नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण होना चाहिए। वे विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय के पक्षधर थे। भौतिकी जैसे वैज्ञानिक विषय में गहन अध्ययन करने के बावजूद वे आध्यात्मिकता और भारतीय संस्कृति को जीवन का मूल आधार मानते थे।

वर्ष 2000 में, जब उनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे कमजोर होने लगा, तब उन्होंने स्वेच्छा से संघ का नेतृत्व छोड़ दिया और अपने उत्तराधिकारी के रूप में कु. सी. सुदर्शन जी को यह दायित्व सौंप दिया। यह भी उनकी विनम्रता और निस्वार्थता का प्रतीक था।

14 जुलाई 2003 को पुणे में उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके निधन के साथ ही भारत ने एक ऐसे सच्चे राष्ट्रसेवक को खो दिया, जो हमेशा पृष्ठभूमि में रहकर भी देश की आत्मा को दिशा देता रहा। रज्जू भैया उन बिरले व्यक्तित्वों में से थे, जिनकी सादगी में गहराई, मौन में विचार और सेवा में शक्ति थी। वे एक विचारक थे, जो मंच से नहीं, बल्कि अपने आचरण से प्रेरणा देते थे। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि देश सेवा किसी विशेष मंच या पद की आवश्यकता नहीं रखती बल्कि वह एक भाव है, जो हृदय से उठता है और जीवन का मार्ग बन जाता है।

आज के समय में जब राष्ट्रभक्ति को केवल राजनीतिक नारों तक सीमित किया जा रहा है, वहीं रज्जू भैया का जीवन हमें बताता है कि सच्ची राष्ट्रभक्ति समाज के हर व्यक्ति को शिक्षित, संगठित और सशक्त करने में है।

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