कर्नाटक की कांग्रेस सरकार एक बार फिर भावनात्मक नाटक कर रही है। इस बार उच्च शिक्षा में भेदभाव को रोकने के लिए राजनीति से प्रेरित कानून “रोहित वेमुला विधेयक” का प्रस्ताव रखा गया है। राहुल गांधी के इशारे पर यह विधेयक न केवल एक गलत समय पर पेश की गई नौटंकी है, बल्कि 2028 के चुनावों से पहले पहचान की राजनीति को कैसे हथियार बनाया जा रहा है, इसका खतरनाक उदाहरण भी है। विवादित और विवादास्पद मामले से जुड़ा इस विधेयक का नाम गंभीर सवाल खड़े करता है। क्या यह न्याय के लिए है या दलितों व अन्य पिछड़ा वर्गों और अल्पसंख्यकों के बीच अपने समर्थन को बढ़ाने के लिए कांग्रेस की हताश कोशिश?
राहुल गांधी ने सीएम को पत्र लिख कर की थी मांग
प्रस्तावित कर्नाटक रोहित वेमुला (बहिष्कार या अन्याय निवारण) (शिक्षा और सम्मान का अधिकार) विधेयक, 2025 किसी ठोस नीति-निर्माण या संस्थागत आत्मनिरीक्षण का परिणाम नहीं है। यह राहुल गांधी द्वारा मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को लिखे एक पत्र के माध्यम से एक राजनीतिक हथकंडा है। इसमें रोहित वेमुला के नाम पर एक कानून का नाम रखने की मांग की गई है। बता दें कि रोहित वेमुला वह छात्र था, जिसकी 2016 में आत्महत्या को उसकी जाति की स्थिति स्पष्ट किए बिना वर्षों तक राजनीतिक रंग दिया गया कांग्रेस की यह प्रतिक्रिया उसकी व्यापक रणनीति का प्रतीक है: सबूतों पर भावनाएं, शासन पर वोट। राज्य सरकार द्वारा शैक्षणिक संस्थानों या कानूनी विशेषज्ञों से परामर्श करने क बजाय, एक राजनीतिक उत्तराधिकारी के इशारे पर इतने बड़े कानूनी और सामाजिक निहितार्थ वाले विधेयक को जल्दबाज़ी में पारित करना, व्यवस्था की सड़न को उजागर करता है। यह विधेयक संस्थागत सुधार के वास्तविक प्रयास से ज़्यादा कुछ समुदायों के साथ अपनी पैठ बनाने का एक ज़रिया लगता है।
हिमाचल और तेलंगाना के सीएम को भी लिखा पत्र
इतना ही नहीं, अब राहुल गांधी ने हिमाचल प्रदेश के सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खु और तेलंगाना के सीएम रेवंत रेड्डी को भी पत्र लिखकर ‘रोहित वेमुला एक्ट’ लागू करने का आग्रह किया है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी हर बच्चे को शिक्षा तक समान पहुंच दिलाने और जातीय भेदभाव को खत्म करने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है।’
क्या है रोहित वेमुला एक्ट?
रोहित वेमुला एक्ट एक प्रस्तावित कानून है, जिसका उद्देश्य भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न को रोकना है। इसका नाम रोहित वेमुला, हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक दलित पीएचडी छात्र, के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने 2016 में कथित तौर पर संस्थागत भेदभाव और उत्पीड़न के कारण आत्महत्या कर ली थी। यह एक्ट विशेष रूप से अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और अन्य वंचित समुदायों के छात्रों के अधिकारों की रक्षा करने और शिक्षा प्रणाली में समानता सुनिश्चित करने पर केंद्रित है।
रोहित वेमुला एक्ट के ये हैं प्रावधान
कर्नाटक की कांग्रेस सरकार मॉनसून सत्र में रोहित वेमुला के नाम पर एक्ट लाने जा रही है। राहुल गांधी की मंजूरी के बाद कर्नाटक की सरकार रोहित वेमुला प्रिवेंशन ऑफ एक्सक्लूजन ऑर इनजस्टिस राइट टू एजुकेशन एंड डिग्निटी बिल 2025 को लाने वाली है। इस बिल के पास होने के बाद एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों की शिक्षा और सम्मान को संरक्षण देना जरूरी होगा। ये कानून सभी सरकारी और निजी यूनवर्सिटी में लागू होगा। इसका उल्लंघन संज्ञेय और गैर जमानती होगा। बिल में व्यवस्था की गई है कि ऐसे लोगों का अगर उत्पीड़न होगा, तो पहली बार 10 हजार रुपए और 1 साल की सजा होगी। अगर फिर वही शख्स अपराध करता है, तो उसे 1 लाख रुपए जुर्माना और 3 साल की कैद होगी। अगर किसी संस्थान में एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय से भेदभाव किया जाएगा, तो उस पर भी यही सजा लागू होगी। उस संस्थान को कर्नाटक सरकार वित्तीय मदद भी नहीं देगी। अपराध करने वालों के मददगारों को भी गिरफ्तार करने का भी प्रावधान है।
वेमुला के नाम पर कानून का नामकरण: राजनीतिक प्रतीकवाद?
कांग्रेस और उसके तंत्र द्वारा “रोहित वेमुला” नाम का इस्तेमाल लंबे समय से व्यवस्थागत जातिगत उत्पीड़न की कहानी गढ़ने के लिए होता रहा है, भले ही कई जांचों ने इसके मूल आधार पर ही सवाल उठाए हों। वेमुला की जातिगत स्थिति कभी निर्णायक रूप से सिद्ध नहीं हुई। वास्तव में, गच्चीबावली पुलिस की मार्च 2024 की क्लोजर रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि उनका अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र कानूनी रूप से मान्य नहीं था। उनके मामले में जाति-आधारित उत्पीड़न का कोई सबूत नहीं था, जिसके कारण उन्होंने आत्महत्या की।
इसके बावजूद, कर्नाटक कांग्रेस सरकार, अपने केंद्रीय नेतृत्व को खुश करने और भावनात्मक उत्तेजनाओं का लाभ उठाने के लिए कानून बनाने के लिए उनके नाम का इस्तेमाल करने का विकल्प चुन रही है। यह विकल्प सुधार के बारे में नहीं, बल्कि दिखावे के लिए है। यह एक दुखद मौत का फायदा उठाकर विभाजनकारी राजनीति को हवा देने और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग समूहों के बीच चुनावी लाभ हासिल करने लिए है। यह तथ्य कि वेमुला कर्नाटक से भी नहीं थे और तेलंगाना से थे, इस कदम की अवसरवादी प्रकृति को ही रेखांकित करता है।
कांग्रेस पहल भी ला चुकी है ऐसा कानून
बता दें कि कांग्रेस इससे पहले भी सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक 2011 ला चुकी है। अधिकतर नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना था कि इसे किसी भी हालत में पास नहीं होना चाहिए। आरएसस के तत्कालीन सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने तो इस बिल को देश को दोबारा बांटने वाला बता दिया था। उन्होंने याद दिलाया था कि कैसे बंटवारे के तत्काल बाद मुसलमानों सहित अल्पसंख्यकों के लिए पंडित नेहरू धर्म के आधार पर अलग कानून बनाना चाहते थे। लेकिन, तत्कालीन उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल और उपराष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ने विरोध किया था। जानकारी हो कि इस बिल की बुनियाद यूपीए सरकार ने साल 2005 में रखी थी। हालांकि, अल्पसंख्यक नेताओं ने इसमें और कड़े प्रावधान की मांग कर इसे नकार दिया था। 2009 में इसका संशोधित रूप भी नकार दिया गया। इधर, हिंदू पक्ष के लोगों का कहना था कि यह बिल अल्पसंख्यक समुदाय को खुश करने की राजनीति से प्रेरित है। इससे दो समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा होगा। बता दें कि इस बिल में कुछ ऐसे प्रावधान किये गए थे कि यह दर्शाता था हिंसा करने वाले केवल बहुसंख्यक ही हैं और जो भी कार्रवाई होगी उन्हीं के विरुद्ध होगी।
कठोर प्रावधान, हो सकता है राजनीतिक दुरुपयोग?
विधेयक में “भेदभाव” के कृत्यों के लिए गैर-जमानती, संज्ञेय अपराधों सहित कठोर दंड का प्रस्ताव है। इसमें तीन साल तक की जेल और बार-बार अपराध करने पर ₹1 लाख तक का जुर्माना शामिल है। तथाकथित “समानता” सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले संस्थानों को वित्तीय सहायता पूरी तरह से बंद करनी पड़ सकती है। सतही तौर पर देखें तो यह कानून ज़बरदस्ती का एक ज़रिया लगता है। स्पष्ट रूप से परिभाषित कानूनी सीमाओं के बिना, “भेदभाव” के रूप में क्या गिना जाता है, इसकी व्याख्या और राजनीतिक दुरुपयोग के लिए खुला छोड़ा जा सकता है। शैक्षणिक असहमति, वैचारिक बहस या आंतरिक अनुशासनात्मक कार्रवाइयों को गलत तरीके से जातिगत पूर्वाग्रह का लेबल दिया जा सकता है। यह विधेयक आसानी से उन संस्थानों या व्यक्तियों के खिलाफ एक हथियार बन सकता है जो कांग्रेस की बात मानने को तैयार नहीं हैं। इस विधेयक के साथ राज्य सरकार के पास अब अन्याय से लड़ने के नाम पर उन्हें आर्थिक रूप से पंगु बनाने या व्यक्तियों को जेल में डालने की शक्ति है।
सामाजिक न्याय के नाम पर वोट-बैंक की राजनीति
इस विधेयक के पीछे असली मकसद साफ़ है, वोट-बैंक का एकीकरण। “रोहित वेमुला विधेयक” का समर्थन कर कांग्रेस 2028 के चुनावों से पहले दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों को स्पष्ट संकेत दे रही है। यह पहचान के मुद्दों को भड़काने, समाज को उत्पीड़ित और उत्पीड़क में बांटने और वोट बटोरने की उसी पुरानी रणनीति का एक नमूना है। कोई संयोग नहीं है कि यह कानून जाति जनगणना पर चर्चा, आरक्षण की मांग और राज्य भर में बढ़ती जाति-आधारित लामबंदी के बाद आया है।
पार्टी को बचाने के लिए है कानून
कांग्रेस जहां सामाजिक न्याय के लिए लड़ने का दावा करती है। वहीं सच्चाई यह है कि वह अपनी राजनीतिक अप्रासंगिकता पर मरहम लगाने के लिए जाति के ज़ख्मों का इस्तेमाल कर रही है। कर्नाटक के युवाओं को बेहतर शिक्षा नीति, बुनियादी ढांचे और अवसरों की ज़रूरत है, न कि किसी राजनीति से प्रेरित कानून की जो परिसरों में और ज़्यादा लालफीताशाही और भय पैदा करे। कुल मिलाकर कहें तो यह विधेयक कमज़ोरों की रक्षा के बारे में नहीं है। यह एक कमज़ोर पार्टी को बचाने के लिए है।