भारत की सभ्यतागत या सांस्कृतिक विरासत के विशाल सागर में कुछ ग्रंथ ही ऐसे हैं जो ‘मनुस्मृति’ जितना उत्साह, विवाद और भ्रम उत्पन्न करते हैं। मानव धर्मशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध यह प्राचीन ग्रंथ दो सहस्त्राब्दियों से अधिक समय से भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म, नैतिकता और सामाजिक व्यवस्था के सबसे प्रारंभिक और विस्तृत रूप में विद्यमान है। आधुनिक भारतवासियों, विशेषकर युवाओं के लिए, मनुस्मृति एक ऐसा नाम है जिसे अधिकतर सुना जाता है, लेकिन पढ़ा नहीं जाता है। यह गर्मागर्म बहसों में जरूर उद्धृत होती है, आंदोलनों में प्रतीक के रूप में जलाई जाती है और अक्सर जातिगत दमन के स्रोत के रूप में कठोर आलोचना का शिकार बनती है, विशेष रूप से कठोर वर्ण व्यवस्था के संदर्भ में।
किन्तु जो बात अक्सर भुला दी जाती है, वह यह है कि मनुस्मृति प्राचीन समाज का एक दर्पण है। यह उन मान्यताओं, चिंताओं, आकांक्षाओं और विरोधाभासों का संहिताकरण है, जिन्होंने सदियों तक भारतीय सभ्यता की संरचना की। इसे पूर्णतः खारिज कर देना, वास्तव में उस अवसर को खो देना है जहाँ हम भारत की सभ्यतागत प्रकृति (civilizational DNA) को समझ सकते हैं, उसकी संस्थाओं के विकास की यात्रा को पहचान सकते हैं और सामाजिक न्याय तथा सुधार की अपनी चेतना को और अधिक धार दे सकते हैं।
आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि भारत का युवा वर्ग मनुस्मृति जैसे ग्रंथों के प्रति न तो आंख मूंदकर श्रद्धा रखे और न ही विरासत में मिले ‘पूर्वाग्रह’ या नफरत के साथ उसे ठुकराए, बल्कि उसे उस आलोचनात्मक जिज्ञासा के साथ पढ़े, जिसकी अपेक्षा किसी भी प्राचीन ज्ञान-स्रोत से की जाती है। मनुस्मृति का अध्ययन एक जागरूक और विवेकशील नागरिक समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है; इसे आलोचनात्मक दृष्टिकोण से पढ़ना जितना ज़रूरी है, उतना ही आवश्यक है उन शिक्षाओं को समझना भी है जो आज की पीढ़ी के लिए कभी चेतावनी हैं, तो कभी दिशा-प्रदर्शक।
मनुस्मृति को समझना जरूरी है: यह केवल नियमों की पुस्तक नहीं
सबसे पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि मनुस्मृति वास्तव में है क्या और क्या नहीं है। ऋषि मनु द्वारा रचित यह ग्रंथ मूलतः एक धर्मशास्त्र है और प्राचीन भारतीय संदर्भ में धर्म का अर्थ केवल धार्मिक कर्तव्यों से नहीं, बल्कि विधि, नैतिकता, कर्तव्य और सामाजिक व्यवस्था से भी था।
संस्कृत में रचित यह ग्रंथ संभवतः ईसा पूर्व 200 से ईस्वी 200 के बीच लिखा गया था और इसमें कुल 2,684 श्लोक हैं, जिनमें विविध विषयों जैसे राजाओं के कर्तव्य, परिवारिक जीवन का नियमन, न्याय व्यवस्था का संचालन और व्यक्तिगत आचरण के नियम आदि बताये गए हैं।
मनुस्मृति को केवल जातिगत उत्पीड़न की एक नियमावली मान लेना उसकी जटिलता को एकदम सपाट कर देने जैसा है। निस्संदेह, यह ग्रंथ एक स्तरबद्ध (वर्गीकृत) समाज को संहिताबद्ध करता है और कई ऐसी प्रथाओं को स्वीकार करता है जिन्हें आज की चेतनशीलता और नैतिकता न्यायसंगत नहीं मानती। किंतु यह केवल यहीं तक सीमित नहीं है। यह शासन-व्यवस्था, अपराध और दंड, संपत्ति अधिकार, लैंगिक भूमिकाएँ, प्रायश्चित और नैतिक दर्शन जैसे विषयों पर भी गहनता से प्रकाश डालता है।
जिस प्रकार हम्मूराबीस कोड या जस्टीनियनस कॉर्पस ज्यूरिस सिविलिस को उनके समय और सामाजिक संदर्भ में समझना आवश्यक है, उसी प्रकार मनुस्मृति को भी इसके युग को ध्यान में रखते हुए पढ़ा जाना चाहिए । यह एक ऐसा प्रयास है जिसमें एक प्राचीन समाज ने जीवन की अनिश्चितताओं के बीच व्यवस्था और संतुलन की परिभाषा गढ़ने की कोशिश की थी। आज इसका महत्व इसके नियमों या निर्देशों को शाब्दिक रूप से मानने में नहीं, बल्कि इसे एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में पढ़ने में है। जो हमें यह दिखाता है कि भारत के लोगों ने उस काल में विधि, सत्ता और सामाजिक एकता के बारे में कैसे सोचा और उसे कैसे संहिताबद्ध किया।
पूर्वग्रह से मुक्ति: क्यों मनुस्मृति कोई पवित्र और अपरिवर्तनीय ग्रंथ नहीं है
भारत का युवा वर्ग मनुस्मृति से अक्सर इसलिए दूरी बनाए रखता है क्योंकि उसे यह भ्रम होता है कि यह हिंदुओं का कोई “पवित्र ग्रंथ” है। यह धारणा भ्रामक और आधी अधूरी है।
मनुस्मृति, वेदों की तरह श्रुति (अर्थात् ईश्वर से सुना गया या प्रकट हुआ ज्ञान) नहीं है, बल्कि यह स्मृति है अर्थात् जो सुनकर स्मरण किया गया है अर्थात् यह मानव द्वारा रचित है। हिंदू दार्शनिक परंपरा में श्रुति को सर्वोच्च प्रामाणिकता प्राप्त होती है, जबकि स्मृति ग्रंथ जिनमें मनुस्मृति भी शामिल है, को बहस, व्याख्या और यहाँ तक कि अस्वीकृति के लिए भी खुला माना गया है। ये ग्रंथ ऋषियों द्वारा रचित थे और इनका उद्देश्य समय, समाज और संदर्भ के अनुसार मार्गदर्शन देना था, न कि स्थायी और अपरिवर्तनीय नियम बनाना।
भारत के इतिहास में मनुस्मृति को लगातार आलोचना, संशोधन, और असहमति का सामना करना पड़ा है। बौद्ध और जैन परंपराओं ने इसकी सामाजिक वर्ग-व्यवस्था को पूरी तरह अस्वीकार कर दिया। मध्यकालीन भारत में बसवेश्वर जैसे विचारकों और भक्ति आंदोलन के संतों ने जातिगत भेदभाव और ऊँच-नीच के विचारों का खुला विरोध किया। यहाँ तक कि हिंदू विधिशास्त्र की परंपरा में भी मनुस्मृति अकेली स्मृति नहीं थी, बल्कि अनेक स्मृतियाँ प्रचलित थीं जिन्हें समान रूप से, या कई बार मनुस्मृति के स्थान पर भी माना और परामर्श में लिया जाता था।
आधुनिक युग में राजा राम मोहन राय और स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे समाज-सुधारकों ने भी इन धर्मशास्त्रों की तर्क और नैतिकता की कसौटी पर पुनर्परीक्षा की माँग की। यह जीवंत विमर्श की परंपरा आज के युवाओं को यह प्रेरणा देती है कि वे मनुस्मृति को भय नहीं, बल्कि विवेक के साथ पढ़ें। इसे समझना इसका समर्थन करना नहीं है; इसकी आलोचना करने के लिए पहले इसे जानना होगा।
भ्रांतियों की जड़ें
यह प्रश्न भी उठना स्वाभाविक है: आख़िर मनुस्मृति आज इतनी विवादास्पद क्यों मानी जाती है? इसका एक महत्वपूर्ण उत्तर छिपा है औपनिवेशिक इतिहास-लेखन और देश की राजनीति में।
जब ब्रिटिश प्रशासकों और ओरिएंटल विद्वानों ने भारत की अत्यंत विविध सांस्कृतिक और सामाजिक संरचनाओं का सामना किया, तो वे एक ऐसे ग्रंथ की तलाश में लग गए जो संपूर्ण “हिंदू विधि” का प्रतिनिधित्व कर सके। मनुस्मृति, अपनी विस्तृत विधिक व्याख्याओं के साथ, उन्हें इसके लिए उपयुक्त लगी। इसी कारण 1794 में सर विलियम जोन्स ने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद किया, और इसके आधार पर “एंग्लो-हिंदू विधि” की नींव रखी गई।
किन्तु ऐसा करते हुए, ब्रिटिश शासन ने एक लचीली और विकसित होती परंपरा को एक कठोर और स्थिर संहिता में बदल दिया। सदियों में विकसित हुई सामाजिक प्रथाओं को अचानक एक प्राचीन ग्रंथ की दृष्टि से देखा जाने लगा और वह भी ऐसा ग्रंथ जिसे वास्तव में बहुत कम लोग अपने दैनिक जीवन में वास्तविक मार्गदर्शक के रूप में मानते थे।
साथ ही, भारतीय समाज-सुधारकों ने जब जातिगत अन्याय को चुनौती देने का बीड़ा उठाया, तो मनुस्मृति को एक प्रतीकात्मक खलनायक के रूप में चिन्हित अथवा प्रस्तुत किया। डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा 1927 में मनुस्मृति को सार्वजनिक रूप से जलाना, जातीय भेदभाव के विरुद्ध एक ऐतिहासिक और साहसिक प्रतिरोध का क्षण बन गया, जो आज भी भारतीय सामाजिक न्याय की चेतना में गूंजता है।
यहाँ डॉ. अंबेडकर की विलक्षण बुद्धिमत्ता को समझना अत्यंत आवश्यक है। वास्तव में वे इस ग्रंथ से डरते नहीं थे; उन्होंने मनुस्मृति का गहन अध्ययन किया था और उसी को एक शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था पर आरोप सिद्ध करने के साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने इसके ज्ञान को नहीं ठुकराया, बल्कि उस ज्ञान के दुरुपयोग को चुनौती दी। आज के युवाओं के लिए इसमें स्पष्ट संदेश है कि किसी विचार या ग्रंथ की आलोचना करने या नकारने से पहले, उसके स्रोत को जानो और समझो।
मनुस्मृति को कैसे पढ़ें? युवाओं के लिए एक मार्गदर्शिका
अब प्रश्न उठता है कि आज के युवा मनुस्मृति की ओर किस दृष्टिकोण से बढ़ें? इसके लिए एक प्राथमिक मार्गदर्शक सूत्र हो सकता है: पढ़ो, तुलना करो, विश्लेषण करो, और संदर्भ से जोड़ो।
मनुस्मृति को कभी भी एकाकी रूप में न पढ़ें। इसे अन्य धर्मशास्त्रों जैसे याज्ञवल्क्य स्मृति और साथ ही कौटिल्य की अर्थशास्त्र जैसी समकालीन कृतियों के साथ पढ़ें। । इसके साथ ही प्राचीन भारतीय विद्वान मेधातिथि जैसे टीकाकारों की व्याख्याओं को भी पढ़ें। यहाँ पर यह ध्यानाकर्षण आवश्यक है कि भारतीय न्यायशास्त्र की परंपरा में व्याख्याओं की विविधता और बहसों की परंपरा कितनी समृद्ध और जीवंत रही है।
साथ ही, मनुस्मृति की तुलना अन्य प्राचीन विधिक संहिताओं से भी करें, जिनमें हम्मूराबीस कोड, मोज़ेक विधि (यहूदी कानून), या प्राचीन रोमन कानून प्रणाली आदि शामिल हैं। इस तुलनात्मक दृष्टिकोण से यह स्पष्ट होता है कि नैतिक संहिताएँ सदैव अपने-अपने समाजों की आवश्यकताओं, जटिलताओं और अंतर्विरोधों का प्रतिबिंब रही हैं।
इसके बाद, मनुस्मृति के उन अंशों की पहचान करने का प्रयास करें जो आधुनिक मानकों के अनुसार अन्यायपूर्ण लगते हैं, जैसे भेदभावपूर्ण कानून, कठोर दंड, या सामाजिक पाबंदियाँ आदि।
फिर स्वयं से पूछें कि ऐसे नियम क्यों बनाए गए होंगे? वे किस प्रकार की सामाजिक या सांस्कृतिक चिंताओं या असुरक्षाओं को संबोधित कर रहे थे? सत्ता का संचालन किस रूप में होता था? कौन-से भाग समय के साथ नज़रअंदाज़ किए गए या बदल दिए गए? इस प्रक्रिया के दौरान, रचनात्मक संवाद भी विकसित किए जा सकते हैं। लक्ष्य केवल यह जानना नहीं होना चाहिए कि मनुस्मृति क्या कहती है, बल्कि यह भी समझना चाहिए कि वह शासन व्यवस्था, अधिकार, सामाजिक नियंत्रण और मानव व्यवहार के बारे में क्या उजागर करती है।
आश्चर्यजनक रूप से, मनुस्मृति शासन-व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ सिखाती है। इसमें शासकों के कर्तव्यों, निष्पक्ष न्याय के महत्व, और राजसत्ता पर नियंत्रण से संबंधित जो विचार प्रस्तुत किए गए हैं, वे राजनीति विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए अत्यंत मूल्यवान हैं। ये अवधारणाएँ आज के दौर में भ्रष्टाचार, राज्य की शक्ति और कानून के शासन जैसे विषयों पर गंभीर विचार की मांग करती हैं।
साथ ही, मनुस्मृति का निष्पक्ष अध्ययन कई विचलित करने वाले विचारों को भी उजागर करेगा, जैसे अस्पृश्यता का समर्थन, लैंगिक असमानता, और कठोर दंडों की स्वीकृति। इन बातों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, बल्कि सीधे और साहसपूर्वक उनका सामना करना आवश्यक है। इस प्रकार का सीधा और ईमानदार सामना दो महत्वपूर्ण लाभ प्रदान करता है।
पहला, यह हमें अतीत को रोमांटिक या आदर्श बनाने की प्रवृत्ति से बचाता है। कोई भी सभ्यता पूर्ण नहीं होती, और कोई भी परंपरा आलोचना से परे नहीं होती। दूसरा, यह हमें भारतीय समाज की अद्भुत विकास यात्रा की सराहना करना सिखाता है। एक ऐसा समाज जिसने मनुस्मृति जैसे ग्रंथ भी रचे और बुद्ध, कबीर, तथा अंबेडकर जैसे महान चिंतक और सुधारक भी जन्म दिए जिन्होंने परंपरावाद को खुली चुनौती दी।
जब युवा इस विचार-प्रवाह को समझते हैं, तो उन्हें अपने वर्तमान को सुधारने की शक्ति पर भरोसा होता है। यदि प्राचीन समाज बदल सकते थे, तो हम भी बदल सकते हैं। इस विमर्श का नेतृत्व युवाओं को करना होगा आज का भारत दुनिया का सबसे युवा राष्ट्र है इसकी लगभग 65% जनसंख्या 35 वर्ष से कम उम्र की है। यह जनसांख्यिकीय लाभ तभी सार्थक होगा, जब युवा वर्ग बौद्धिक निष्ठा और ऐतिहासिक जिज्ञासा को अपनाएगा।
मिथ्या सूचनाओं और जानकारी से भरे आज के युग में, बिना स्रोत की पड़ताल किए केवल नारे लगाना आसान हो गया है। लेकिन मनुस्मृति युवाओं को आमंत्रण देती है कि वे आसानी से की जाने वाली अंध श्रद्धा या अंध अस्वीकृति की वृत्ति को त्यागें, और सटीक जानकारीपूर्ण आलोचना के कठिन लेकिन मूल्यवान मार्ग को अपनाएँ।
मनुस्मृति जैसे प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन आपकी विश्लेषणात्मक सोच को धार देता है। यह आपको शासन, सामाजिक संरचना, और न्याय के विचारों के क्रमिक विकास से परिचित कराता है। यह सिखाता है कि समाज किस प्रकार सत्ता को न्यायोचित ठहराते हैं, धर्म और राजनीति कैसे आपस में गुँथे होते हैं, और नैतिक मानदंड कैसे बनाए जाते हैं तथा उनके विरुद्ध प्रतिवाद कैसे उभरते हैं।
राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र, इतिहास और विधि के विद्यार्थियों के लिए यह अध्ययन अत्यंत मूल्यवान है। लेकिन मनुस्मृति की प्रासंगिकता केवल शैक्षणिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे उद्यमी, कलाकार, नीति-निर्माता और सामाजिक कार्यकर्ता अर्थात् सभी को भारत की सामाजिक संरचना की जड़ों को समझने से गहरा लाभ मिल सकता है।
सामाजिक सुधार का उत्प्रेरक: मनुस्मृति
कोई यह प्रश्न कर सकता है कि यदि मनुस्मृति में कई ऐसे विचार हैं जिन्हें हम आज अस्वीकार करते हैं, तो फिर इसे जीवित रखने की आवश्यकता ही क्या है? तो इसका उत्तर सीधा है, क्योंकि यह हमें सतर्क बनाए रखती है।
यह ऐतिहासिक स्मृति, हमें पुनः पतन की दिशा में जाने से रोकने का माध्यम है। दमनकारी संहिताओं का अध्ययन हमें उनके आधुनिक रूपों की पहचान करना सिखाता है। आज भी जातिगत भेदभाव, लैंगिक पक्षपात, और सामाजिक बहिष्कार जैसी समस्याएँ मौजूद हैं, भले ही वे अब अधिक सूक्ष्म और छिपे रूपों में प्रकट होती हों। इन कुप्रथाओं के पीछे के ऐतिहासिक औचित्य को जानना, उन्हें जड़ से मिटाने में मदद करता है।
साथ ही, मनुस्मृति केवल अन्याय का प्रतीक नहीं है, बल्कि ये यह भी दर्शाती है कि समाज समय के साथ कैसे परिवर्तित होते हैं। बाद के धर्मशास्त्रों, टीकाओं और स्थानीय परंपराओं ने अक्सर इसके कठोर नियमों को बदल दिया या अनदेखा कर दिया। यह परिवर्तनशीलता बताती है कि सुधार न केवल संभव है, बल्कि तब अनिवार्य भी हो जाता है जब लोग ज्ञान के साथ आस्थाओं को चुनौती देते हैं।
निष्कर्ष: एक जागरूक और न्यायसंगत भविष्य की ओर
मनुस्मृति को बिना पढ़े ही अस्वीकार कर देना अज्ञानता को स्वीकार करने जैसा है और इसे बिना आलोचना के मान लेना अंधविश्वास को मान्यता देने जैसा है। परंतु, निडर होकर इसका अध्ययन करना स्वयं को ज्ञान से सशस्त्र करना है, जो परिवर्तन का सबसे शक्तिशाली साधन है।
भारत के युवा आज एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहाँ उन्हें परंपरा और आधुनिकता, विश्वास और तर्क, निरंतरता और परिवर्तन के बीच संतुलन स्थापित करना होगा। मनुस्मृति आज के प्रश्नों का उत्तर नहीं है, लेकिन इसे समझना बेहतर प्रश्न पूछने का एक हिस्सा है। यह दर्शाता है कि हम अब तक कितनी दूर आए हैं और हमें अभी भी कितना आगे जाना है।
युवाओं को मनुस्मृति को हाथ में लेकर उसके श्लोकों को पढ़ना चाहिए। उसकी अन्यायपूर्ण बातों की आलोचना करनी चाहिए। उसके सबक सीखने चाहिए और ऐसा करते हुए, वे न केवल अतीत का सम्मान करें, बल्कि भविष्य का भी सम्मान करें। ऐसा भविष्य जो जानकारी रखने वाले अर्थात् जागरूक, साहसी और प्रश्न करने तथा सुधार करने से नहीं डरने वाले बुद्धिजीवी युवाओं द्वारा निर्मित किया जाएगा।
आखिरकार, भारत की कहानी हमेशा संवाद, असहमति और खोज की कहानी रही है। आइए हम ज्ञान को अपना मार्गदर्शक और न्याय को अपना लक्ष्य बनाकर इस कहानी को जारी रखें ।