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संविधान की प्रस्तावना उस समय बदली गई, जब हजारों लोग जेलों में बंद थे: जानें और क्या कहा उपराष्ट्रपति ने

न्यायाधीश से संबंधित संवैधानिक प्रक्रिया अपनाना समाधान नहीं है यह धन किसका था और इसका स्रोत क्या है?

Vibhuti Ranjan द्वारा Vibhuti Ranjan
7 July 2025
in भारत, राजनीति
संविधान की प्रस्तावना उस समय बदली गई, जब हजारों लोग जेलों में बंद थे: जानें और क्या कहा उपराष्ट्रपति ने

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़

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उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सोमवार को कहा कि “संवैधानिक प्रावधानों के तहत किसी न्यायाधीश के विरुद्ध कार्रवाई करना एक विकल्प हो सकता है, लेकिन यह समाधान नहीं है। हम एक लोकतंत्र होने का दावा करते हैं और वास्तव में हैं भी। दुनिया हमें एक परिपक्व लोकतंत्र के रूप में देखती है, जहाँ कानून का शासन और कानून के समक्ष समानता होनी चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि हर अपराध की जांच होनी चाहिए। यदि धनराशि इतनी अधिक है, तो यह जानना आवश्यक है कि क्या यह काला धन है? इसका स्रोत क्या है? यह किसी न्यायाधीश के सरकारी आवास में कैसे पहुंचा? यह धन किसका है? इस पूरे घटनाक्रम में कई दंडात्मक प्रावधानों का उल्लंघन हुआ है। मुझे आशा है कि एफआईआर दर्ज की जाएगी। हमें इस मुद्दे की जड़ तक जाना होगा, क्योंकि लोकतंत्र में यह महत्वपूर्ण है। हमारी न्यायपालिका, जिस पर लोगों का विश्वास अडिग है, आज इस घटना के कारण उसकी नींव डगमगा गई है।”

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से विवश है केंद्र सरकार

उपराष्ट्रपति ने कहा “मेरे युवा मित्रों, यदि आपने ‘आइड्स ऑफ मार्च’ के बारे में सुना है, तो आप जानते होंगे कि कैसे एक ज्योतिषी ने सीज़र को चेताया था। जब सीज़र ने कहा कि ‘आइड्स ऑफ मार्च’ आ गया है, तो ज्योतिषी ने उत्तर दिया ‘हां, लेकिन गया नहीं’, और उसी दिन सीज़र की हत्या हो गई। इसी तरह, हमारी न्यायपालिका के लिए 14-15 मार्च की रात एक दुर्भाग्यपूर्ण समय रहा। एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के आधिकारिक आवास से भारी मात्रा में नकदी मिली। यह अब सार्वजनिक डोमेन में है और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसकी पुष्टि की है। ऐसी स्थिति में, सबसे पहले इसे एक आपराधिक कृत्य मानकर तत्काल कार्रवाई होनी चाहिए थी। दोषियों की पहचान कर उन्हें न्याय के कटघरे में लाना चाहिए था। लेकिन अब तक कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई है। केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के 1990 के दशक के एक निर्णय के कारण विवश है।”

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विद्यार्थियों को समस्याओं से जूझने का किया आह्वान

उपराष्ट्रपति ने कहा कि हमें समस्याओं का सामना करने का साहस रखना चाहिए। विफलताओं को तर्कसंगत ठहराने की प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए। हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि हम उस राष्ट्र के नागरिक हैं जिसे वैश्विक विमर्श को दिशा देनी है। हमें एक ऐसे विश्व का निर्माण करना है, जहां शांति और सौहार्द हो। हमें पहले अपने ही संस्थानों के भीतर असहज सच्चाइयों का सामना करने का साहस रखना चाहिए। मैं न्यायपालिका की स्वतंत्रता का प्रबल पक्षधर हूं। मैं न्यायाधीशों की सुरक्षा के पक्ष में हूं। वे कार्यपालिका के विरुद्ध निर्णय देते हैं, और विधायिका के मामलों को भी देखते हैं। हमें उन्हें तुच्छ मुकदमों से बचाना चाहिए। लेकिन जब कुछ ऐसी घटनाएं सामने आती हैं, तो चिंता स्वाभाविक है।

उपराष्ट्रपति ने कहा कि हाल के वर्षों में हमारी न्यायपालिका ने एक अशांत दौर देखा है। लेकिन सुखद बात यह है कि अब एक बड़ा परिवर्तन आया है। वर्तमान मुख्य न्यायाधीश और उनके पूर्ववर्ती ने जवाबदेही और पारदर्शिता का एक नया युग शुरू किया है। अब चीजें पटरी पर लौट रही हैं। लेकिन उससे पहले के दो वर्ष अत्यंत चुनौतीपूर्ण और असामान्य रहे। कई निर्णय बिना सोच-विचार के लिए गए—जिन्हें सुधारने में समय लगेगा। क्योंकि यह अत्यंत आवश्यक है कि संस्थान अपनी पूर्ण क्षमता से कार्य करें।

न्यायपालिका प्राप्त है अपार विश्वास और सम्मान

उपराष्ट्रपति ने कहा कि हमारी न्यायपालिका को जनता का अपार विश्वास और सम्मान प्राप्त है। यदि उस विश्वास में दरार आती है, तो हम एक गंभीर संकट में फंस सकते हैं। 1.4 अरब की आबादी वाले देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। उन्होंने कहा कि कुछ संवैधानिक प्राधिकरणों को सेवानिवृत्ति के बाद कोई सरकारी पद स्वीकार करने की अनुमति नहीं होती; जैसे लोक सेवा आयोग के सदस्य, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG), मुख्य चुनाव आयुक्त आदि। ऐसा इसलिए है ताकि वे प्रलोभनों और दबावों से मुक्त रहें। यही स्थिति न्यायाधीशों के लिए भी अपेक्षित थी। लेकिन अब सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों को चुनिंदा पद दिए जा रहे हैं। जब सभी को नहीं, बल्कि कुछ को ही पद मिलते हैं, तो यह चयन और संरक्षण का मामला बनता है—जो न्यायपालिका को गंभीर रूप से प्रभावित करता है।

राष्ट्रपति और राज्यपाल की शपथ के महत्व पर दिया जोर

उपराष्ट्रपति ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल ही ऐसे दो संवैधानिक पद हैं, जिनकी शपथ अन्य सभी से भिन्न होती है। उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक और न्यायाधीश सभी संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं। लेकिन राष्ट्रपति और राज्यपाल ‘संविधान की रक्षा, संरक्षण और सुरक्षा’ की शपथ लेते हैं। यह एक अत्यंत विशिष्ट दायित्व है। और केवल इन्हें अपने कार्यकाल के दौरान अभियोजन से प्रतिरक्षा प्राप्त होती है—किसी और को नहीं। मुझे प्रसन्नता है कि राज्यपाल राजेंद्र वी. अर्लेकर इस पद की मर्यादा बनाए हुए हैं, जबकि राज्यपाल को अक्सर निशाना बनाया जाता है।

उपराष्ट्रपति ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना बच्चों के लिए माता-पिता की तरह होती है। आप उन्हें बदल नहीं सकते। दुनिया में किसी भी देश की प्रस्तावना नहीं बदली गई है। लेकिन हमारे देश में यह बदली गई। वह भी उस समय, जब आपातकाल लगा था, हजारों लोग जेल में थे, जब न्यायिक व्यवस्था तक आम जनता की पहुंच नहीं थी और मौलिक अधिकार पूरी तरह निलंबित थे। उस समय लोकसभा का कार्यकाल भी 5 वर्षों से अधिक बढ़ाया गया। आप इसे गहराई से समझें—हम अपने माता-पिता को नहीं बदल सकते, वैसे ही प्रस्तावना को नहीं।

उपराष्ट्रपति ने कहा कि आपको यह सोचने की आवश्यकता है कि 42वें संविधान संशोधन अधिनियम में क्या हुआ? 44वें में क्या बदला और क्या छूट गया? लाखों लोग न्यायपालिका तक पहुंच से वंचित क्यों रह गए? जब 9 उच्च न्यायालयों ने नागरिकों के पक्ष में निर्णय दिया, तब सुप्रीम कोर्ट—देश की सर्वोच्च अदालत ने नागरिकों को निराश किया। ADM जबलपुर मामले में यह दर्शाया गया कि कार्यपालिका को आपातकाल लगाने का पूर्णाधिकार है और आपातकाल के दौरान न्यायपालिका तक पहुंच नहीं होगी। उस समय हमने अपने लोकतांत्रिक दावे को खो दिया।

एकजुट होकर काम करें न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका

उपराष्ट्रपति ने कहा कि संवैधानिक मूल्यों का पालन तब ही होता है जब विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—तीनों एकजुट होकर कार्य करें। यदि इनमें सामंजस्य नहीं होगा, तो स्थिति चिंताजनक हो सकती है। आप विधि के छात्र हैं, आपके लिए यह आवश्यक है कि आप शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत को समझें। प्रश्न यह नहीं है कि कौन सर्वोच्च है, बल्कि यह है कि प्रत्येक संस्था अपने क्षेत्र में सर्वोच्च है। उन्होंने कहा कि यदि कोई संस्था न्यायपालिका, कार्यपालिका या विधायिका दूसरी के क्षेत्र में हस्तक्षेप करती है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक स्थिति उत्पन्न कर सकती है। उदाहरण के लिए न्यायिक निर्णय केवल न्यायपालिका द्वारा दिए जाने चाहिए, न कि विधायिका या कार्यपालिका द्वारा। इसी तरह कार्यपालिका के कार्य, केवल कार्यपालिका को ही करने चाहिए, क्योंकि उन्हें जनता द्वारा चुना गया है और वे उत्तरदायी हैं। लेकिन यदि कार्यपालिका के कार्य न्यायपालिका या विधायिका द्वारा किए जाते हैं, तो यह संविधान के मूल सिद्धांत के विरुद्ध है।

CBI निदेशक की नियुक्ति पर जताया आश्चर्य

उपराष्ट्रपति ने कहा कि मैं हैरान हूं कि कार्यपालिका का एक पदाधिकारी, जैसे कि CBI निदेशक की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश की भागीदारी से होती है। क्यों? यह कार्यपालिका का कार्य है। वह न्यायिक नियुक्ति नहीं है। यह हमारे संविधान के ढांचे में कहां उपयुक्त बैठता है? क्या ऐसा दुनिया के किसी और लोकतंत्र में होता है? कार्यपालिका की नियुक्ति केवल कार्यपालिका द्वारा ही होनी चाहिए।”

Tags: jagdeep dhjankharvice presidentउपराष्ट्रपतिजगदीप धनखड़न्यायपालिका
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