हिंदू पंचांग के अनुसार, कुछ ही दिनों में सावन का पावन महीना शुरू होने वाला है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर में शिव भक्तों को इस पवित्र महीने का इंतज़ार रहता है। इस पावन महीने में भगवान शिव के भक्त कांवड़ यात्रा के माध्यम से अपने आराध्य को याद करते हैं। दशकों, सदियों से कांवड़ यात्रा चल रही है और ऐसे में यह सवाल लोगों के मन में आता है कि असल में पहली कांवड़ कौन लाया था। इस लेख में यही जानने की कोशिश करेंगे कि भगवान शिव की इस पावन यात्रा की शुरुआत कहां से और कैसे हुई थी।
कैसे हुई थी कांवड़ यात्रा की शुरुआत
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कांवड़ यात्रा की शुरुआत भगवान परशुराम ने की थी, जो ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे। कहा जाता है कि उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर धाम से पवित्र गंगाजल लाकर उत्तर प्रदेश के बागपत ज़िले में स्थित पुरा महादेव में भगवान शिव को अर्पित किया था। यह प्राचीन परंपरा आज भी श्रद्धा और आस्था के साथ निभाई जाती है।
एक अन्य लोककथा के अनुसार, श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर तीर्थयात्रा कराई थी और बाद में उन्होंने भी गंगाजल लाकर भगवान शिव को अर्पित किया था। इस कारण उनके इस कार्य को भी कांवड़ यात्रा की उत्पत्ति से जोड़ा जाता है।
सावन महीने में शिवभक्ति का पर्व
सावन का महीना ही वो समय होता है जिसका शिवभक्त पूरे वर्ष बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। इस पावन महीने में शिव मंदिरों में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है, और ‘बम बम भोले’ के जयकारे गूंजते हैं। यही वह समय होता है जब देशभर में कांवड़ यात्रा निकाली जाती है। इस यात्रा में श्रद्धालु गंगा नदी में स्नान करके कांवर में गंगाजल भरते हैं और उसे लेकर शिव मंदिरों में अभिषेक (जल अर्पण) के लिए जाते हैं।
हर साल सावन महीने में कांवड़ यात्रा का आयोजन होता है। इस वर्ष 2025 में यह यात्रा 11 जुलाई से शुरू होगी और 23 जुलाई को सावन शिवरात्रि पर समाप्त होगी। हालांकि, सावन का महीना 9 अगस्त 2025 तक चलेगा।
पुरा महादेव में जलाभिषेक की परंपरा और इतिहास
हर साल सावन के महीने में लाखों कांवड़िये बागपत ज़िले में स्थित पुरा महादेव मंदिर में जलाभिषेक करते हैं। यह मंदिर दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के शिवभक्तों के लिए विशेष धार्मिक स्थल है। हर साल हजारों कांवड़िये हरिद्वार से पवित्र गंगाजल लाकर यहां भगवान शिव को अर्पित करते हैं। सावन की प्रत्येक सोमवार और महाशिवरात्रि के दिन यहां भारी भीड़ उमड़ती है। मान्यता है कि भगवान शिव अपने भक्तों की इस भक्ति से प्रसन्न होते हैं और उनकी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।
जहां आज परशुरामेश्वर पुरा महादेव मंदिर स्थित है, वह स्थान कभी एक घना जंगल था जिसे कजरी वन कहा जाता था। इसी वन में ऋषि जमदग्नि अपनी पत्नी रेणुका के साथ एक आश्रम में रहते थे। रेणुका प्रतिदिन मिट्टी का घड़ा बनाकर हिण्डन नदी से पानी लाती थीं और भगवान शिव को अर्पित करती थीं। यह नदी पुराणों में पंचतीर्थी या हरणंदी के नाम से भी जानी जाती है। यह मंदिर मेरठ से 36 किलोमीटर और बागपत से 30 किलोमीटर दूर स्थित है।
किंवदंती के अनुसार, एक बार राजा सहस्रबाहु शिकार के दौरान उस आश्रम में पहुंचे। उस समय ऋषि आश्रम में नहीं थे लेकिन रेणुका ने दिव्य कामधेनु गाय की सहायता से राजा का आदर सत्कार किया। राजा सहस्रबाहु कामधेनु की चमत्कारी शक्तियों से प्रभावित होकर उसे बलपूर्वक ले जाना चाहता था लेकिन वह इसमें सफल नहीं हो सके। क्रोधित होकर उसने रेणुका का अपहरण कर लिया और उसे हस्तिनापुर स्थित अपने महल में बंदी बना लिया।
बाद में रेणुका अपनी छोटी बहन की मदद से भाग निकलीं और आश्रम लौट आईं। जब उन्होंने ऋषि जमदग्नि को पूरा घटनाक्रम बताया, तो ऋषि ने संदेहवश उन्हें आश्रम छोड़ने का आदेश दिया। रेणुका ने अपने पति से विनती की कि वह पवित्र हैं और आश्रम नहीं छोड़ेंगी। उन्होंने यह भी कहा कि यदि उन पर संदेह है, तो वे स्वयं उन्हें मार दें ताकि उन्हें मोक्ष मिल सके। फिर भी ऋषि अपने निर्णय पर अडिग रहे।
ऋषि जमदग्नि ने अपने चारों पुत्रों से कहा कि वे अपनी मां का वध करें। पहले तीन पुत्रों ने मना कर दिया लेकिन सबसे छोटे पुत्र परशुराम ने इसे पिता का आदेश मानकर माता का सिर काट दिया। बाद में परशुराम पश्चाताप से व्याकुल होकर थोड़ी दूरी पर तपस्या में लीन हो गए। उन्होंने एक शिवलिंग की स्थापना की और उसकी उपासना की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा।
परशुराम ने वरदान स्वरूप अपनी माता को पुनर्जीवित करने की प्रार्थना की। भगवान शिव ने न केवल रेणुका को जीवित किया बल्कि परशुराम को एक दिव्य फरसा (पार्शु) भी प्रदान किया और आशीर्वाद दिया कि वह युद्ध में हमेशा विजयी रहेंगे।
मंदिर की स्थापना और विरासत
इसके बाद परशुराम ने वहीं एक कुटिया बनाकर रहना शुरू किया। बाद में उन्होंने राजा सहस्रबाहु और उसकी पूरी सेना का वध कर दिया। क्षत्रियों के अत्याचारों से आहत होकर उन्होंने 21 बार पृथ्वी से क्षत्रियों का संहार करने का संकल्प लिया।
जहां उन्होंने शिवलिंग की स्थापना की थी, वह स्थान आगे चलकर मंदिर बना। समय के साथ यह मंदिर खंडहर में बदल गया। एक दिन लंढौरा की रानी उस क्षेत्र से गुजर रही थीं, तभी उनका हाथी वहीं रुक गया और आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। बहुत प्रयासों के बाद भी जब हाथी नहीं चला, तो रानी ने जमीन खुदवाने का आदेश दिया। खुदाई में शिवलिंग प्राप्त हुआ। रानी ने वहीं मंदिर निर्माण का आदेश दिया, जो आज परशुरामेश्वर मंदिर के रूप में प्रसिद्ध है।
आध्यात्मिक महत्व
यह मंदिर भगवान शिव के भक्तों के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल है और इसे एक प्राचीन सिद्धपीठ माना जाता है। यह मंदिर न केवल स्थानीय श्रद्धालुओं के लिए बल्कि पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए धार्मिक महत्व रखता है। इस पवित्र स्थल पर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी कृष्णबोध आश्रम जी महाराज ने भी तपस्या की थी। उन्हीं के मार्गदर्शन में पुरा महादेव महादेव समिति का गठन किया गया, जो अब मंदिर के संचालन और देखरेख का कार्य करती है। मंदिर परिसर में नंदी (भगवान शिव का वाहन) की मूर्तियां भी हैं, जो यहां की आध्यात्मिकता और ऐतिहासिकता को और बढ़ाती हैं।
(यह लेख अधीश वत्स ने लिखा है)