82,698 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की हैदराबाद रियासत की गिनती हमेशा से भारत के प्रमुख और अमीर रियासतों में की जाती थी। इसका क्षेत्रफल ब्रिटेन और स्कॉटलैंड के क्षेत्र से भी अधिक था और आबादी (एक करोड़ 60 लाख) यूरोप के कई देशों से अधिक थी। मजे की बात ये थी कि इसमें से 10 प्रतिशत ज़मीन के सीधे मालिक निजाम थे, जबकि 30 प्रतिशत अन्य ज़मीन पर वो अपने कारकुनों, जागीरदारों के ज़रिए कंट्रोल करता था। शायद इसके विशेष दर्जे की वजह से ही उसे आज़ादी के बाद भारत में शामिल होने या न होने के लिए तीन महीने का अतिरिक्त समय दिया गया था।
लेकिन हैदराबाद के निजाम की जिन्ना से करीबियां किसी से छिपी नहीं थीं और वो भारत के भीतर एक आज़ाद देश की तरह रह कर ब्रिटिश क्राउन के अंदर एक डोमिनियन स्टेटस बनाए रखना चाहते थे। जिन्ना और निजाम की साठगांठ थी कि आज़ाद हैदराबाद एक तरह के दक्षिण पाकिस्तान (पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान पहले ही बँट चुका था) के तौर पर काम करेगा।समुद्री रास्ते से संपर्क बनाए रखने के लिए निजाम गोवा में बंदरगाह बनाने के लिए पुर्तगाल की सरकार से बातचीत कर रहे थे।यही नहीं वो यूरोप में अपने लोग भेजकर हथियार खरीदने की जुगत में भी लगे थे कि ताकि अपनी सेना को और मज़बूत बनाया जा सके।
स्वायत्त हैदराबाद को भारत के लिए कैंसर मानते थे सरदार पटेल
ज़ाहिर है कि ये भारत के लिए अच्छी स्थिति नहीं थी और सरदार पटेल इसे अच्छी तरह समझते थे। उस समय भारत के गृह सचिव रहे एच वीआर आयंगर ने एक इंटरव्यू में कहा था, ”सरदार पटेल का शुरू से ही मानना था कि भारत के दिल में एक ऐसे क्षेत्र हैदराबाद का होना, जिसकी निष्ठा देश की सीमाओं के बाहर हो. भारत की सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा ख़तरा था.’
आयंगर बताते हैं कि पटेल चाहते थे कि निज़ाम का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। हालाँकि नेहरू और माउंटबेटन की राय कुछ और थी और इसलिए निजाम अपनी जगह टिके रहे।
दरअसल नेहरू पर हैदराबाद और निजाम को लेकर कश्मीर की ही तरह सॉफ्ट रुख़ अपनाने का आरोप लगता रहा है। नेहरू पटेल को एक तरह से चेतावनी देते रहे कि हैदराबाद में बड़ी संख्या में मुस्लिम अल्पसंख्यक रहते हैं। ऐसे में निजाम की कुर्सी गई तो वो भड़क सकते हैं और इसका खामियाजा पूरे भारत को भुगतना पड़ सकता है।
हालांकि पटेल साफ़ कहते थे कि निजाम के राज में हैदराबाद ‘भारत के पेट में कैंसर‘ की तरह था जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था।
‘हैदराबाद’ को भी ‘कश्मीर’ बनाना चाहते थे नेहरू!
आख़िरकार जब निजाम पूरी तरह से भारत के विरोध में उतर आया और उसकी मिलीशिया आर्मी (रजाकारों) ने हिंदुओं पर हमले शुरू कर दिए, तब भारत सरकार पर भी हैदराबाद में कार्रवाई का दबाव बढ़ गया।
सरदार पटेल ने मन बना लिया कि वो हैदराबाद में सेना भेजेंगे और उसे जूनागढ़ की तरह ही भारत का अभिन्न हिस्सा बनाएंगे।
लेकिन नेहरू हैदराबाद में सेना भेजने के पक्ष में नहीं थे। पटेल पर जीवनी लिखने वाले राजमोहन गांधी लिखते हैं, ”नेहरू को लगता था कि अगर हैदराबाद में सेना भेजी गई तो इससे कश्मीर में भारतीय सैनिक ऑपरेशन को नुक़सान पहुँच सकता है (कश्मीर में पहले ही पाक समर्थित कबीलाइयों से युद्ध चल रहा था)।’’
पुराने रिकॉर्ड्स और लोगों के संस्मरण बताते हैं कि नेहरू और सरदार पटेल उस वक्त हैदराबाद को लेकर पूरी तरह आमने–सामने आ चुके थे।
इसे लेकर सबसे विस्तृत जानकारी डॉ. के.एम मुंशी की लिखी किताब में मिलती है। के.एम. मुंशी हैदराबाद पर सैन्य एक्शन से पहले भारत सरकार के एजेंट जनरल थे। बाद में उन्होने Pilgrimage to Freedom के नाम से एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में हैदराबाद और हैदराबाद के भारत में विलय पर एक अध्याय है। इस पुस्तक में हैदराबाद और हैदराबाद के भारत में विलय पर एक अध्याय है।
उसमें वो लिखते हैं
“भारतीय राजाओं में सबसे महत्वाकांक्षी निज़ाम–ए–हैदराबाद थे। उन्होंने 12 जून 1947 को घोषणा की कि ‘निकट भविष्य में अंग्रेज़ों की paramount power (सर्वोच्च सत्ता) के समाप्त होने का मतलब होगा कि मैं फिर से स्वतंत्र संप्रभु शासक का दर्ज़ा हासिल करूँगा।’ उन्होंने बेरार प्रांत की वापसी की माँग की, जो कभी उनके राज्य का हिस्सा रहा था, और गोवा का बंदरगाह हासिल करने के लिए पुर्तगाल से बातचीत शुरू की ताकि अपने राज्य के लिए समुद्र तक पहुँच बना सकें।“
निज़ाम का सपना था कि वे ब्रिटिश कॉमनवेल्थ में “तीसरा डोमिनियन” बनें, हालांकि 29 नवंबर 1947 को लंबी बातचीत के बाद हैदराबाद और भारत के बीच एक साल का स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट हुआ। उस समय सरदार ने संविधान सभा में बयान दिया कि इस दौरान स्थायी विलय का रास्ता साफ़ हो जाएगा।
सरदार ने मुझसे (डॉ. के.एम. मुंशी) कहा कि मुझे भारत सरकार का एजेंट–जनरल बनकर हैदराबाद जाना चाहिए, क्योंकि इस समझौते के तहत दोनों पक्षों को एजेंट–जनरल नियुक्त करना था। मैंने महात्मा गांधी से परामर्श किया, उन्होंने इसकी स्वीकृति दी। मैंने यह काम स्वीकार किया लेकिन कोई वेतन नहीं लिया।
जब हैदराबाद में सेना भेजने को लेकर पटेल पर भड़क उठे नेहरू
आगे मुंशी लिखते हैं:
हैदराबाद में मेरी स्थिति बेहद मुश्किल थी क्योंकि दिल्ली की सत्ता सँभाल रहे लोगों की नीतियों में विरोधाभास था। सरदार और वी.पी. मेनन मेरी मदद से हैदराबाद का भारत में पूर्ण विलय कराना चाहते थे, जैसे अन्य रियासतों का हुआ। लेकिन गवर्नर जनरल माउंटबेटन निज़ाम के प्रधानमंत्री लैयक अली से बातचीत कर रहे थे।वो हैदराबाद को भारत के अंदर ऑटोनामी देने को तैयार थे, बशर्ते निज़ाम दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर कर दें।
मुंशी लिखते हैं कि जवाहरलाल नेहरू का हैदराबाद पर रुख़ थोड़ा नर्म था और वो हैदराबाद के पूर्ण विलय को लेकर सरदार पटेल की नीति से सहमत नहीं थे। एक समय तो यह सुझाव भी दिया गया कि मुझे एजेंट–जनरल से हटा दिया जाए, लेकिन सरदार ने यह अस्वीकार कर दिया। मुंशी कहते हैं कि “कई बार प्रधानमंत्री (नेहरू) के मुझ पर अविश्वास की वजह से मुझे बहुत अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ा। हर बार जब मैंने इत्तेहादियों के अत्याचार की रिपोर्ट दी, मुझसे स्वतंत्र सबूत माँगे गए। अगर सरदार का विश्वास न होता, तो मैं यह काम छोड़ चुका होता।”
जैसे–जैसे निज़ाम और उनके सलाहकार हठधर्मी रवैया अपनाते गए, हालात टकराव की ओर बढ़ने लगे। सरदार ने उचित समझा कि निज़ाम की सरकार को साफ़ चेतावनी दी जाए कि भारत सरकार का धैर्य अब टूट रहा है। इसके लिए वी.पी. मेनन के माध्यम से संदेश भेजा गया।
लेकिन जब नेहरू को यह पता चला तो वे बेहद नाराज़ हुए। सेना को हैदराबाद भेजने के ठीक एक दिन पहले उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में रक्षा समिति की विशेष बैठक बुलाई, जिसमें तीनों सेना प्रमुखों को बुलाया ही नहीं गया। बैठक में नेहरू, सरदार, मौलाना आज़ाद, तत्कालीन रक्षा और वित्त मंत्री, राज्य सचिव वी.पी. मेनन और रक्षा सचिव एच.एम. पटेल मौजूद थे।
बैठक शुरू होते ही नेहरू भड़क गए और बुरी तरह नाराज़ होते हुए ‘सरदार’ पर हैदराबाद को लेकर उनके रुख़ के लिए हमला बोला। उन्होंने वी.पी. मेनन को भी जमकर फटकार लगाई और अंत में कहा कि अब से हैदराबाद से जुड़ा हर मामला वे ख़ुद देखेंगे। उनका ये रवैया और टाइमिंग देखकर बैठक में मौजूद सभी लोग हैरान रह गए। हालांकि पूरी बहस के दौरान सरदार कुछ नहीं बोले– वो बीच बैठक से उठे और चुपचाप बाहर चले गए। वी.पी. मेनन भी उनके पीछे पीछे बाहर चले गए। वो बैठक बिना किसी निर्णय के समाप्त हो गई।
जब पटेल ने कहा– नेहरू अपने आप को समझते क्या हैं? आज़ादी की लड़ाई दूसरे लोगों ने भी लड़ी है
के .एम. मुंशी अपनी किताब में आगे लिखते हैं कि
वी.पी. मेनन ने नेहरू के सामने विरोध जताया और उनसे कहा कि अगर यही हाल है तो उनके स्टेट डिपार्टमेंट (तत्कालीन गृह मंत्रालय ) में काम करने का कोई मतलब नहीं। तब नेहरू को लगा कि उन्होंने सीमा लांघ दी है। उन्होंने मेनन से माफ़ी माँगी और हैदराबाद को कैसे डील किया जाए– ये पटेल पर ही छोड़ने का आश्वासन दिया?
बाद में पटेल ने तय कार्यक्रम के अनुसार ही हैदराबाद में सेना की कार्रवाई को हरी झंडी दी। बाद में दोनों के बीच इस विषय पर फिर कोई चर्चा नहीं हुई।
उस समय के रिफ़ॉर्म्स कमिश्नर वीपी मेनन ने भी इसका जिक्र किया है। मेनन ने एक इंटरव्यू में बताया कि ”नेहरू ने बैठक की शुरुआत में ही मुझपर हमला बोला… असल में वो मेरे बहाने सरदार पटेल को निशाना बना रहे थे। पटेल थोड़ी देर तो चुप रहे लेकिन जब नेहरू ज़्यादा कटु हो गए तो वो बैठक से वॉक आउट कर गए। मैं भी उनके पीछे–पीछे बाहर आया क्योंकि मेरे मंत्री की अनुपस्थिति में वहाँ मेरे रहने का कोई तुक नहीं था।”
“इसके बाद राजा जी ने मुझसे संपर्क करके सरदार को मनाने के लिए कहा। फिर मैं और राजा जी सरदार पटेल के पास गए। वो बिस्तर पर लेटे हुए थे. उनका ब्लड प्रेशर बहुत हाई था। सरदार गुस्से में चिल्लाए– नेहरू अपने आप को समझते क्या हैं? आज़ादी की लड़ाई दूसरे लोगों ने भी लड़ी है।
हालांकि राजा जी ने किसी तरह सरदार पटेल को डिफ़ेंस कमेटी की बैठक में दोबारा शामिल होने के लिए मना लिया।
हालांकि नेहरू यहीं नहीं रुके। एचवी आर आयंगर अपने संस्मरण में लिखते हैं कि 13 सितंबर, 1948 को जब भारतीय सेना मेजर जनरल जेएन चौधरी के नेतृत्व में हैदराबाद में घुसने ही वाली थी कि नेहरू ने आधी रात को सरदार पटेल को फ़ोन कर जगा दिया।
नेहरू ने कहा, ”जनरल बूचर ने मुझे फ़ोन कर इस हमले को रुकवाने का अनुरोध किया है। मुझे क्या करना चाहिए?”
पटेल ने जवाब दिया था, ”आप सोने जाइए। मैं भी यही करने जा रहा हूँ।’
यानी माउंटबेटन और भारतीय सेना के तत्कालीन ब्रितानी मुखिया अंत तक हैदराबाद पर भारतीय सैन्य कार्रवाई को टालने का प्रयास करते रहे और नेहरू भी इसमें पीछे नहीं रहे। हालांकि पटेल ऑपरेशन पोलो को लेकर अड़े रहे और जैसे ही भारतीय सेना हैदराबाद पहुँची, निज़ाम की ताक़त बिखर गई।
ऑपरेशन पोलो के कामयाब होने के बाद डॉ. के.एम. मुंशी ने एजेंट–जनरल के पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
अपनी किताब Pilgrimage to Freedom में मुंशी लिखते हैं:
“दिल्ली लौटने पर सरदार ने मुझसे कहा कि मुझे शिष्टाचारवश नेहरू से मिल लेना चाहिए। जब मैं संसद भवन में प्रधानमंत्री कार्यालय पहुँचा तो नेहरू बाहर आए और ठंडे स्वर में बोले: ‘हैलो मुंशी।’ मैंने जवाब दिया और कहा: ‘अब जब मैं दिल्ली लौट आया हूँ तो आपसे मिलने आया हूँ।’ वे लगभग मुड़े और जाने लगे, फिर अचानक रुके, हाथ मिलाया और चले गए।“
मुंशी लिखते हैं:
“मैंने सरदार से कहा कि नेहरू से मिलने की उनकी सलाह मानकर मुझे खेद है।”
सरदार हँसते हुए बोले:
“कुछ लोग नाराज़ हैं कि तुमने इत्तेहाद की ताक़त खत्म करने में मदद की। कुछ नाराज़ हैं कि तुमने निज़ाम को तुरंत हटाने नहीं दिया। कुछ लोग मुझसे नाराज़गी नहीं जता सकते, इसलिए तुम्हें निशाना बना रहे हैं“
वी.पी. मेनन ने भी अपनी किताब The Integration of States में कासिम रिज़वी के भाषण का एक अंश लिखा है, जिसमें उसने कहा था कि अगर भारतीय सेनाएं हैदराबाद आईं तो उसे सिर्फ़ सवा करोड़ हिंदुओं की हड्डियाँ और राख ही मिलेंगी–
लेकिन महज 108 घंटे की कार्रवाई में ही निजाम घुटनों पर आ गए। 17 सितंबर को लैयक अली और उनकी कैबिनेट ने इस्तीफ़ा दे दिया और निज़ाम ने अपनी सेना को भारतीय सशस्त्र बलों के सामने आत्मसमर्पण का आदेश दिया।
यही नहीं जैसा कि नेहरू का इस एक्शन की प्रतिक्रिया के तौर पर सांप्रदायिक हिंसा भड़कने का जो डर था, वो भी निराधार साबित हुआ। क्योंकि “ निजाम को हटाने के बावजूद पूरे देश में कहीं भी कोई सांप्रदायिक हिंसा नहीं हुई।”
हैदराबाद के भारत में विलय के बाद जब फ़रवरी 1949 को जब सरदार पटेल हैदराबाद पहुंचे, तो एयरपोर्ट पर उन्हें रिसीव करने के लिए निज़ाम हैदराबाद वहाँ पहले से ही मौजूद थे। पटेल जैसे ही विमान से उतरे, निजाम उनके सामने पहुंचे और सिर झुका कर अपने दोनों हाथ जोड़ लिए। जवाब में पटेल ने भी मुस्कुरा कर उनके अभिवादन का जवाब दिया और इस तरह हैदराबाद हमेशा के लिए भारत संघ का हिस्सा बन गया।