नक्शे पर देखिए—दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया। समंदरों और पहाड़ों से घिरा यह इलाका इस समय दुनिया की राजनीति का सबसे बड़ा अखाड़ा है। यहां केवल व्यापारिक जहाज़ नहीं चलते, यहां महाशक्तियों की महत्वाकांक्षाएं भी टकराती हैं और इसी शोर में जनता की आवाज़ भी गूंज रही है—कभी लोकतंत्र की मांग में, तो कभी पेट की आग से बेचैन होकर।
हिंद महासागर से लेकर दक्षिण चीन सागर तक एशिया का यह इलाका महाशक्तियों का सीधा खेल का मैदान है। चीन बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव के जरिए बंदरगाह और सड़कें बना रहा है, लेकिन असल में अपने लिए ठिकाने गढ़ रहा है। अमेरिका “इंडो-पैसिफिक” का झंडा लहराते हुए नौसैनिक ताकत दिखा रहा है। भारत क्वाड और “एक्ट ईस्ट” से यह जताना चाहता है कि वह केवल दर्शक नहीं, बल्कि इस खेल का असली खिलाड़ी है। लेकिन इस बिसात पर जनता भी अपनी चाल चल रही है। म्यांमार में टैंकों के सामने खड़े लोग, श्रीलंका में राष्ट्रपति भवन की दीवारों को फांदते प्रदर्शनकारी, बांग्लादेश और नेपाल में सड़कों पर उतरे नौजवान—ये सब बताते हैं कि भू-राजनीतिक समीकरणों से बढ़कर यहां भूख, लोकतंत्र और पहचान के सवाल हैं।
एशिया के छोटे देशों की मुश्किल सबसे बड़ी है। श्रीलंका का उदाहरण आंखें खोलने वाला है। चीन से ऋण लिया, बंदरगाह बने, लेकिन आखिरकार संप्रभुता गिरवी रखनी पड़ी। वियतनाम और फिलीपींस चीन से डरते हैं, अमेरिका से सहारा लेते हैं, मगर दोनों ही स्थितियों में अपनी आज़ादी खोने का डर बना रहता है। आसियान संगठन है जरूर, लेकिन उसकी आवाज़ महाशक्तियों के शोर में दबकर रह जाती है।
भारत के लिए यह इलाका सिर्फ पड़ोसी भूगोल नहीं, बल्कि उसकी सुरक्षा की ढाल है। मलक्का जलडमरूमध्य से गुजरते जहाज़ भारत की अर्थव्यवस्था की नसें हैं। यही कारण है कि भारत हिंद महासागर में अपनी नौसैनिक ताकत लगातार बढ़ा रहा है। लेकिन चुनौती यह है कि वह अमेरिका का साझेदार बने, मगर कठपुतली न लगे; चीन का सामना करे, मगर टकराव में फंसे नहीं।
इसी बीच चीन की पनडुब्बियां हिंद महासागर में गश्त लगाने लगी हैं। पाकिस्तान पहले से उसकी जेब में है। अब समुद्र में भी उसका साया भारत की आंखों की नींद उड़ा रहा है। और फिर असली सवाल—जनता का। क्या लोकतंत्र की मांग एशिया के इस भू-राजनीतिक शोर में दब जाएगी? क्या आंदोलनों का इस्तेमाल बड़ी ताकतें मोहरे की तरह करेंगी? और क्या भारत इस अखाड़े में रेफरी बनेगा या खिलाड़ी?
भविष्य की तस्वीर दो ही हो सकती है। या तो यह इलाका 21वीं सदी का सबसे बड़ा सहयोगी मंच बनेगा। या फिर यह दुनिया की सबसे खतरनाक असुरक्षा का गढ़ साबित होगा। भारत के पास विकल्प है—आगे बढ़कर नेतृत्व करे, या किनारे बैठकर खेल देखता रहे। इतिहास इंतज़ार कर रहा है कि भारत किस रास्ते को चुनता है।