दिल्ली की अदालत में सोमवार सुबह का दृश्य किसी ऐतिहासिक मुकदमे जैसा था। खचाखच भरे कक्ष में वकीलों की फुसफुसाहट और दर्शकों की उत्सुक निगाहें साफ कर रही थीं कि फैसला आने वाला है। मामला था वक्फ़ अधिनियम का—एक ऐसा कानून जिसकी जड़ें औपनिवेशिक दौर तक जाती हैं और जिसकी शाखाएँ आज की राजनीति को गहराई तक छूती हैं।
जैसे ही जजों की बेंच पर हलचल हुई, सन्नाटा छा गया। मुख्य न्यायाधीश ने आदेश पढ़ना शुरू किया। उनका पहला वाक्य ही साफ संकेत था कि अधिनियम पूरी तरह से नहीं गिरेगा: “हर कानून संवैधानिक वैधता की धारणा के साथ आता है। असंवैधानिक ठहराना अपवाद है, नियम नहीं।” अदालत ने माना कि पूरा अधिनियम असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता, लेकिन कुछ धाराएँ ऐसी हैं जो मनमाने अधिकार देती हैं और संविधान की आत्मा को चुनौती देती हैं।
सबसे ज्यादा चर्चा धारा 3(r) पर हुई, जिसमें पांच साल की प्रैक्टिस जैसी शर्तें लगाई गई थीं। अदालत ने कहा कि जब तक इसके नियम नहीं बनते, यह मनमानेपन को जन्म देगा। धारा 2(c) का वह प्रावधान भी खारिज हुआ जिसके तहत संपत्ति अपने आप वक्फ़ मानी जाती थी। इसी तरह, धारा 3C में अधिकारियों को राजस्व रिकॉर्ड में दखल देने का अधिकार देना अदालत ने शक्तियों के विभाजन के खिलाफ बताया। बोर्ड की संरचना में भी बदलाव किया गया—गैर-मुस्लिम सदस्यों की संख्या सीमित कर दी गई और यह स्पष्ट कर दिया गया कि एक्स-ऑफिसियो पद पर वही बैठ सकता है जो मुस्लिम हो।
फैसले के बाद अदालत कक्ष में अलग-अलग प्रतिक्रियाएं दिखीं। याचिकाकर्ताओं ने इसे अपनी आंशिक जीत बताया, जबकि सरकार ने राहत की सांस ली कि अधिनियम की जड़ें सुरक्षित रहीं।
यह फैसला सिर्फ अदालत की कार्यवाही तक सीमित नहीं है। इसके पीछे एक लंबा इतिहास है। 1923 में ब्रिटिश सरकार ने वक्फ़ संपत्तियों को लेकर पहला कानून बनाया था। आज़ादी के बाद 1954 और फिर 1995 में इसे नया रूप मिला। 1995 का अधिनियम ही आज बहस के केंद्र में है। आरोप लंबे समय से लगते रहे हैं कि इससे निजी संपत्तियों पर कब्ज़े का रास्ता खुल जाता है और यह एक खास समुदाय को संस्थागत बढ़त देता है। दूसरी ओर, अल्पसंख्यक संगठनों का कहना है कि वक्फ़ संपत्तियों से मस्जिदों, मदरसों और समाज सेवा संस्थाओं का संचालन होता है।
फैसले का राजनीतिक असर भी गहरा है। भाजपा इसे निजी संपत्ति और संवैधानिक संतुलन की जीत बताएगी, वहीं विपक्ष यह कहेगा कि अदालत ने अधिनियम को जिंदा रखा है। दोनों पक्षों को अपने-अपने तर्क मिल गए हैं।
अब असली सवाल यही है कि आगे क्या होगा। क्या सरकार संसद में व्यापक संशोधन लाएगी या फिर अदालत की टिप्पणियों के आधार पर सीमित सुधारों तक बात रुकेगी? इतना तय है कि यह फैसला केवल कानूनी मोर्चे पर नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक विमर्श में भी नई बहस को जन्म देगा।