स्वदेशी केवल कोई आर्थिक विचार या व्यापारिक रणनीति नहीं है, बल्कि यह भारतीय सभ्यता की आत्मा है। यह हमारी सांस्कृतिक चेतना का वह सहज संस्कार है जो हमें बताता है कि सच्ची शक्ति बाहर से नहीं, बल्कि अपने श्रम, अपने ज्ञान और अपने संसाधनों के उपयोग से आती है। भारत की अस्मिता हमेशा आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान और स्वावलंबन पर आधारित रही है।
स्वामी विवेकानंद ने जब 1893 में शिकागो के धर्म संसद में भारत की आत्मा को जगाते हुए कहा था कि “भारत दुनिया को आध्यात्मिकता का मार्ग दिखाएगा”, तो उसमें स्वदेशी का ही भाव छिपा था। महर्षि दयानंद सरस्वती ने “वेदों की ओर लौटो” का आह्वान किया, जिसका लक्ष्य केवल धार्मिक सुधार नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आत्मविश्वास का निर्माण था। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने स्पष्ट कहा था कि “राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वदेशी एक दूसरे के बिना अधूरी हैं।” भारतेन्दु हरिश्चंद्र, गोपालकृष्ण गोखले और वीर सावरकर जैसे महापुरुषों ने स्वदेशी को राष्ट्रीय पुनर्जागरण का माध्यम माना। महात्मा गांधी ने तो स्वदेशी को जीवनदर्शन बना दिया। उनके लिए चरखा केवल कपड़ा बनाने का यंत्र नहीं था, बल्कि आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान का प्रतीक था।गांधीजी के नेतृत्व में चलाया गया स्वदेशी आंदोलन अंग्रेजी शासन की नींव हिला देने वाला सिद्ध हुआ। विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर और खादी पहनकर भारतवासियों ने संदेश दिया कि आर्थिक गुलामी से मुक्ति के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अधूरी है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भी अपने एकात्म मानववाद में स्वदेशी को भारतीय अर्थनीति की आत्मा कहा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ दशकों तक हम पश्चिमी विकास मॉडल की ओर आकर्षित हो गए। बड़े उद्योग, आयात पर निर्भरता और विदेशी तकनीक को ही प्रगति का प्रतीक मान लिया गया। लेकिन धीरे धीरे स्पष्ट हुआ कि यह मॉडल हमारी जरूरतों और सभ्यता के अनुरूप नहीं है। परिणामस्वरूप गाँव गाँव का उद्योग, स्थानीय कारीगर और पारंपरिक ज्ञान प्रणाली हाशिए पर चले गए।फिर भी स्वदेशी का भाव कभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ। समय समय पर हर संकट ने हमें याद दिलाया कि भारत तभी टिकेगा जब वह अपने बलबूते खड़ा होगा। चाहे 1965 और 1971 के युद्ध हों, 1991 का आर्थिक संकट हो या हाल की वैश्विक महामारी हर बार भारत ने आत्मनिर्भरता की राह पर कदम बढ़ाया।
आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वदेशी को नए स्वरूप में जगाया है। आत्मनिर्भर भारत केवल एक नारा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय रणनीति है। “मेक इन इंडिया”, “वोकल फॉर लोकल”, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल क्रांति के माध्यम से UPI, रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता ये सब कदम स्वदेशी को जन आंदोलन बनाने की दिशा में हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विशेष बल इस बात पर है कि भारत केवल उपभोक्ता न रहे, बल्कि निर्माता बने। मोबाइल से लेकर मेट्रो ट्रेन, ड्रोन से लेकर रक्षा उपकरण और अब अंतरिक्ष मिशनों तक भारत तेजी से अपनी शक्ति का निर्माण कर रहा है। आज हमारे स्टार्टअप्स दुनिया में तीसरे सबसे बड़े इकोसिस्टम के रूप में उभरे हैं।
आज जब वैश्विक बाज़ार अस्थिर हैं, व्यापार युद्ध गहराते जा रहे हैं और आपूर्ति श्रृंखलाएं टूट रही हैं, तब भारत के पास अद्वितीय अवसर है। हमारे 144 करोड़ नागरिक ही सबसे बड़ा उत्पादन बल और उपभोक्ता वर्ग हैं। यदि यह विशाल जनसंख्या स्थानीय उद्योग, कृषि, हस्तशिल्प, डिजिटल सेवाओं और स्वदेशी उत्पादों को अपनाती है तो भारत आर्थिक महाशक्ति बनने से कोई नहीं रोक सकता। खादी का पुनर्जागरण, मिलेट्स (श्री अन्न) को वैश्विक मान्यता, आयुर्वेद और योग का अंतरराष्ट्रीय प्रसार, स्थानीय उद्योगों का उभार और कृषि–तकनीक का संगम ये सब भारत की आत्मा को मजबूती दे रहे हैं।
स्वदेशी केवल अर्थव्यवस्था की बात नहीं करता, यह राष्ट्रीय अस्मिता का घोष है। जब हम स्वदेशी वस्तु खरीदते हैं, स्थानीय सेवाओं को प्राथमिकता देते हैं, अपने कारीगरों और उद्यमियों का समर्थन करते हैं, तब हम केवल लेन देन नहीं करते, बल्कि यह घोषणा करते हैं कि भारत अपनी ताकत खुद गढ़ेगा। यह जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं है। हर नागरिक जब “लोकल के लिए वोकल”बनता है, तब वह राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में सहभागी होता है।स्वदेशी ने स्वतंत्रता आंदोलन को चिंगारी दी थी। आज वही स्वदेशी आत्मनिर्भर और विकसित भारत की यात्रा का ईंधन बनेगा। यदि भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनना है तो हमें अपनी जड़ों को मजबूती से पकड़ना होगा। हम सब 144 करोड़ भारतीयों को य संकल्प लेना होगा कि हम स्वदेशी केवल बोलेंगे नहीं, बल्कि जिएंगे। यही हमारे राष्ट्र की गरिमा, संप्रभुता और भविष्य को सुरक्षित करेगा।