अररिया के फारबिसगंज में आयोजित कार्यकर्ता सम्मेलन में गृहमंत्री अमित शाह ने जैसे ही मंच संभाला, पूरा मैदान भाजपा के चुनावी घोषणापत्र जैसा प्रतीत होने लगा। उनके भाषण में केवल चुनावी वादों की झलक नहीं थी, बल्कि एक ठोस वैचारिक रेखा भी थी—“यह चुनाव बिहार से घुसपैठियों को चुन-चुनकर बाहर निकालने का चुनाव है।”
शाह का यह बयान केवल एक स्थानीय सभा की उत्तेजना नहीं है। यह उस राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है, जिसमें भाजपा राष्ट्रीय सुरक्षा, सांस्कृतिक पहचान और विकास को एक साथ जोड़कर मतदाताओं को संबोधित करती है। इस लेख में हम समझेंगे कि शाह का यह भाषण क्यों अहम है, सीमांचल की राजनीति में घुसपैठ का मुद्दा किस तरह उभरा, बाढ़ और विकास के सवाल कैसे भाजपा की रणनीति से जुड़े, और इसका बिहार व भारत की राजनीति पर क्या असर पड़ सकता है।
सीमांचल: भारत की राजनीति का संवेदनशील भूगोल
बिहार का सीमांचल अररिया, किशनगंज, कटिहार और पूर्णिया हमेशा से राजनीतिक विश्लेषकों के लिए खास महत्व रखता रहा है। यह इलाका एक ओर बांग्लादेश और नेपाल की सीमा से सटा हुआ है, दूसरी ओर यहां मुस्लिम आबादी का अनुपात राज्य के अन्य हिस्सों से कहीं अधिक है।
इतिहास गवाह है कि यहां का सामाजिक और राजनीतिक समीकरण राष्ट्रीय सुरक्षा से सीधे जुड़ता है। 1947 के विभाजन के बाद यह क्षेत्र धीरे-धीरे उस भूगोल में तब्दील हुआ, जहां अवैध प्रवास, जनसांख्यिकीय बदलाव और पहचान की राजनीति आपस में उलझती रही। सीमांचल हमेशा कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों विशेषकर राजद का गढ़ रहा, क्योंकि यहां मुस्लिम और पिछड़ी जातियों का समीकरण विपक्षी गठबंधन को फायदा पहुंचाता था। लेकिन भाजपा ने पिछले एक दशक में इस समीकरण को बदलने की ठानी है। अमित शाह का अररिया से उठाया गया “घुसपैठ” का मुद्दा दरअसल इसी बड़े राजनीतिक प्रयोग का हिस्सा है।
घुसपैठ: भाजपा का राष्ट्रवादी नैरेटिव
अमित शाह का भाषण सबसे ज्यादा चर्चा में इसलिए रहा, क्योंकि उन्होंने साफ कहा कि “राहुल गांधी चाहते हैं कि घुसपैठियों को वोट का अधिकार मिले। सीमांचल वालों बताओ, घुसपैठियों को वोट का अधिकार मिलना चाहिए क्या? राहुल बाबा कान खोलकर सुन लो, बिहार और देश से चुन-चुनकर घुसपैठियों को बाहर निकालेंगे।”
अमित शाह का यह बयान भाजपा के उस राष्ट्रवादी नैरेटिव का हिस्सा है, जिसे वह पूरे देश में गढ़ती रही है। घुसपैठ का मुद्दा सिर्फ जनसंख्या पर बोझ का नहीं है, बल्कि इसे राष्ट्रीय सुरक्षा और सांस्कृतिक अस्मिता से जोड़ा जाता है। इसके माध्यम से पार्टी यह संदेश देना चाहती है कि अवैध प्रवासी केवल रोजगार छीनते ही नहीं, बल्कि वे आतंकी गतिविधियों और संगठित अपराध से भी जुड़े होते हैं।
भारत की राजनीति में यह मुद्दा नया नहीं है। असम आंदोलन से लेकर एनआरसी और सीएए तक, भाजपा ने लगातार इसे अपनी राजनीति का केंद्र बनाया। सीमांचल में शाह का यह बयान उसी रेखा का विस्तार है, जिससे पार्टी यह साबित करना चाहती है कि वह वोट बैंक की राजनीति करने वाले दलों से अलग है और राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखती है।
बाढ़: स्थायी त्रासदी और चुनावी वादा
अमित शाह ने अपने भाषण में एक और बड़ा मुद्दा उठाया-बाढ़। बिहार हर साल कोसी और गंडक की बाढ़ से जूझता है। सीमांचल का इलाका तो मानो इस त्रासदी का स्थायी शिकार है। लाखों लोग हर साल विस्थापित होते हैं, हजारों एकड़ फसल बर्बाद होती है और राज्य की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ता है।
अब तक की सरकारें इसे चुनावी घोषणाओं में शामिल तो करती रहीं, लेकिन कोई स्थायी समाधान नहीं दे पाईं। अमित शाह ने कोसी लिंक परियोजना का जिक्र कर यह संदेश दिया कि भाजपा इस समस्या को केवल राहत सामग्री बांटने तक सीमित नहीं रखेगी, बल्कि इसे ढांचागत विकास के जरिए खत्म करने का प्रयास करेगी। यह संदेश इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि घुसपैठ का मुद्दा जहां सांस्कृतिक और सुरक्षा से जुड़ा है, वहीं बाढ़ का मुद्दा सीधे-सीधे जनता के जीवन और आजीविका से संबंधित है। भाजपा इन दोनों को जोड़कर “सुरक्षा और विकास” की एक संयुक्त चुनावी रणनीति बना रही है।
‘चार दिवाली’: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और राजनीतिक प्रतीक
अमित शाह ने कार्यकर्ताओं से कहा कि इस बार बिहार में “चार दिवाली” मनाई जाए। उन्होंने इसे चार घटनाओं से जोड़ा-राम मंदिर की वापसी, मोदी सरकार की आर्थिक सहायता योजनाएं, जीएसटी में राहत और एनडीए की जीत।
यह प्रतीकात्मकता ही भाजपा की खास रणनीति है। दिवाली केवल धार्मिक त्योहार नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति का हिस्सा है, जिसे भाजपा “आस्था” और “अर्थव्यवस्था” दोनों से जोड़ती रही है। राम मंदिर का जिक्र भाजपा की सांस्कृतिक राजनीति का हिस्सा है, जबकि आर्थिक सहायता और जीएसटी में राहत इसके विकास के एजेंडे का। चौथी दिवाली-एनडीए की जीत-इन दोनों का मेल है। इस तरह, भाजपा मतदाताओं को यह संदेश देना चाहती है कि उनकी जीत केवल सत्ता का परिवर्तन नहीं होगी, बल्कि यह बिहार के सांस्कृतिक और आर्थिक नवजागरण का प्रतीक भी होगी।
2020 की याद और 2025 का लक्ष्य
अमित शाह ने यह भी कहा कि 2020 में भाजपा किशनगंज को छोड़कर बाकी जिलों में नंबर वन रही थी। इस बार पार्टी किशनगंज भी जीतने का दावा कर रही है। उनका यह बयान महज चुनावी उत्साह नहीं है। बता दें कि किशनगंज मुस्लिम बहुल जिला है, जो हमेशा कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों का गढ़ रहा है। अगर भाजपा यहां पैठ बनाने में सफल होती है, तो यह बिहार की राजनीति के भूगोल को बदल देगा।
भाजपा की नजर साफ है-सीमांचल की 24 सीटें अगर उसके पाले में आती हैं, तो राज्य की सत्ता का रास्ता आसान हो जाएगा। यही कारण है कि अमित शाह ने घुसपैठ का मुद्दा उठाकर स्थानीय राजनीति को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ा और बाढ़ के सवाल को विकास से।
विपक्ष की मुश्किलें और भाजपा की बढ़त
अमित शाह के इस भाषण का असर इसलिए भी गहरा है, क्योंकि विपक्ष इस समय बिखरा हुआ है। कांग्रेस सीमांचल में अपनी परंपरागत पकड़ बनाए रखने की कोशिश में है, लेकिन उसकी राष्ट्रीय राजनीति कमजोर है। राजद की राजनीति मुख्य रूप से यादव-मुस्लिम समीकरण पर टिकी है, लेकिन भाजपा इस समीकरण को तोड़ने के लिए नए मुद्दे ला रही है।
शाह का भाषण इस लिहाज से विपक्ष को बैकफुट पर डालता है। अगर विपक्ष घुसपैठ के मुद्दे को खारिज करता है, तो वह राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल पर कमजोर दिखेगा। अगर मानता है, तो उसका वोट बैंक नाराज होगा। यहां पर भाजपा इसी दुविधा का फायदा उठाना चाहती है।
भारत-केंद्रित दृष्टिकोण: क्यों अहम है यह बयान
अमित शाह का अररिया से दिया गया संदेश केवल बिहार तक सीमित नहीं है। यह भारत-केंद्रित राजनीति का हिस्सा है। भाजपा लगातार यह दिखाना चाहती है कि उसकी राजनीति केवल राज्य स्तर तक सीमित नहीं है, बल्कि हर चुनाव एक राष्ट्रीय नैरेटिव से जुड़ा है।
घुसपैठ का मुद्दा असम में हो, पश्चिम बंगाल में या बिहार में, पार्टी इसे पूरे भारत की सुरक्षा और अस्मिता से जोड़ती है। बाढ़ और विकास के मुद्दे को वह “सबका साथ, सबका विकास” की छतरी में रखती है। वहीं, सांस्कृतिक प्रतीक-राम मंदिर, दिवाली, मखाना बोर्ड-इन्हें वह “भारत की आत्मा” से जोड़ती है। यही कारण है कि शाह का भाषण केवल एक चुनावी सभा नहीं, बल्कि भाजपा की वैचारिक राजनीति का प्रतिबिंब था।
चुनावी वादों से आगे का संदेश
अररिया की रैली ने साफ कर दिया कि भाजपा आने वाले चुनाव में सीमांचल को निर्णायक मोर्चा मानकर चल रही है। शाह का भाषण इस बात का प्रमाण है कि पार्टी अब जातीय समीकरण से आगे बढ़कर सुरक्षा, विकास और सांस्कृतिक पहचान के संयुक्त एजेंडे पर चुनाव लड़ेगी।
भाजपा के लिए यह दांव बड़ा है। अगर वह सीमांचल में पैठ बनाती है, तो न केवल बिहार का राजनीतिक परिदृश्य बदलेगा, बल्कि पूर्वी भारत की राजनीति भी नई दिशा लेगी। अगर वह असफल होती है, तो विपक्ष यह कहेगा कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और सुरक्षा का मुद्दा केवल कुछ इलाकों तक ही सीमित है।
कुल मिलाकर, शाह का अररिया से दिया गया संदेश यही है कि भाजपा इस चुनाव को केवल सत्ता परिवर्तन का अवसर नहीं मानती, बल्कि इसे राष्ट्रीय सुरक्षा और सांस्कृतिक अस्मिता की जंग मानती है। यही वह दृष्टिकोण है, जो भाजपा को विपक्ष से अलग करता है।