17 सितंबर—आज जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना जन्मदिन मना रहे हैं, तब यह महज़ कैलेंडर पर दर्ज़ एक तारीख नहीं है। यह तारीख उस सफ़र की भी याद दिलाती है जिसने भारतीय राजनीति को गहराई तक बदल डाला। मोदी की कहानी एक व्यक्ति की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से कहीं ज़्यादा है। यह कहानी है एक राष्ट्र के सपनों की, उम्मीदों की और उस संघर्ष की, जिसमें लोकतंत्र और राष्ट्रवाद का अनूठा संगम देखने को मिला।
वडनगर का लड़का, जिसने सपनों को थामा
गुजरात के वडनगर की छोटी सी बस्ती। पिता चाय बेचते थे, परिवार संसाधनों से सीमित था। लेकिन उस माहौल में बड़ा हो रहा बालक नरेंद्र अपने जीवन की दिशा पहले ही तय कर चुका था। किताबों से अधिक उसे संगठनों और आंदोलनों ने आकर्षित किया। एनएसएस और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ाव ने उसमें एक अनुशासित कार्यकर्ता की छवि गढ़ी। यही संगठनात्मक अनुभव आगे चलकर उसकी सबसे बड़ी ताक़त बना।
चाय बेचने का प्रसंग राजनीति का नारा बन गया। आलोचक इसे “राजनीतिक मार्केटिंग” कहते हैं, समर्थक इसे “संघर्ष की असली कहानी”। लेकिन यह तय है कि इस कहानी ने भारतीय लोकतंत्र में करोड़ों साधारण लोगों को अपने भीतर झाँकने और यह सोचने का साहस दिया कि सत्ता की सीढ़ियाँ केवल अभिजात्य वर्ग के लिए ही नहीं बनी हैं।
गुजरात मॉडल – प्रयोगशाला से राष्ट्रीय विमर्श तक
2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने नरेंद्र मोदी। यह समय था जब राज्य भूकंप की तबाही से जूझ रहा था। मोदी ने पुनर्निर्माण को सिर्फ राहत कार्य न रहने देकर उसे आर्थिक विकास की नींव बना दिया। सड़कें, बिजली, उद्योग—इन सब पर जिस तरह का ज़ोर दिया गया, उसने धीरे-धीरे “गुजरात मॉडल” का रूप ले लिया।
हालांकि 2002 का सांप्रदायिक दंगा उनके पूरे राजनीतिक करियर पर गहरी छाया की तरह रहा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि को धक्का लगा, आलोचकों ने उन्हें हमेशा कठघरे में खड़ा किया। लेकिन यही दौर वह मोड़ था जब मोदी ने अपने लिए एक नया रास्ता चुना—“विकास पुरुष” की पहचान। उद्योगपतियों के साथ गठजोड़, निवेश सम्मेलनों का आयोजन और आधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर ने उन्हें राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र बना दिया।
दिल्ली का रास्ता – 2014 का विस्फोट
2013 आते-आते बीजेपी को एक ऐसे चेहरे की तलाश थी जो कांग्रेस की थकी-हारी राजनीति के सामने उभर सके। नरेंद्र मोदी ने वही खालीपन भरा। उन्होंने अपने गुजरात मॉडल को राष्ट्र के सामने रखा और “अच्छे दिन आने वाले हैं” का नारा दिया।
2014 का चुनाव भारतीय लोकतंत्र का निर्णायक मोड़ साबित हुआ। दशकों बाद देश ने किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत दिया। कांग्रेस बुरी तरह परास्त हुई और नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा बनकर सामने आए। यह सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं था, बल्कि राजनीतिक संस्कृति का कायाकल्प था।
राष्ट्रवाद की नई परिभाषा
मोदी का शासन केवल विकास तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने राष्ट्रवाद को राजनीतिक नैरेटिव के केंद्र में रखा। सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक ने उनकी छवि को “निर्णायक नेता” की पहचान दी। 2019 में अनुच्छेद 370 हटाने का फ़ैसला, लंबे समय से बीजेपी के एजेंडे में रहा मुद्दा था, लेकिन उसे लागू करने का साहस केवल मोदी सरकार ने दिखाया।
राम मंदिर का निर्माण हो या नागरिकता संशोधन कानून (CAA), हर कदम पर मोदी ने यह स्पष्ट किया कि उनकी राजनीति भारतीयता और राष्ट्रवादी चेतना से संचालित है। यही वजह है कि उनके समर्थक उन्हें “नए भारत का शिल्पकार” मानते हैं।
आलोचनाओं का साया
हर लोकप्रिय नेता की तरह मोदी पर भी आलोचनाएँ बराबर होती रहीं। विपक्ष उन्हें लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने का आरोप लगाता है। मीडिया पर नियंत्रण, असहमति की आवाज़ों को कुचलना, बेरोजगारी, किसान आंदोलन और महँगाई—ये मुद्दे लगातार उनके शासन को घेरे रहे।
लेकिन इन सब आलोचनाओं के बीच सबसे दिलचस्प बात यह रही कि जनता का बड़ा हिस्सा अब भी उन्हें विकल्पहीन नेता मानता रहा। चुनावी नतीजे बताते हैं कि चाहे ग्रामीण इलाक़ों का युवा हो या शहरी मध्यवर्ग, मोदी का नैरेटिव लोगों के भीतर कहीं न कहीं गहराई से बैठ चुका है।
2019 और 2024 – जीत की नई कहानी
2019 का लोकसभा चुनाव मोदी की लोकप्रियता का चरम बिंदु साबित हुआ। पुलवामा हमले और उसके बाद की एयर स्ट्राइक ने चुनावी माहौल को पूरी तरह बदल दिया। मोदी भारी बहुमत से सत्ता में लौटे।
2024 में तीसरी बार जीतकर नरेंद्र मोदी ने इतिहास रच दिया। जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद वे देश के सबसे लंबे समय तक चुने गए प्रधानमंत्री की पंक्ति में शामिल हो गए। यह जीत न केवल मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता का प्रमाण थी, बल्कि बीजेपी की चुनावी मशीनरी और संगठनात्मक ताक़त की भी मिसाल थी।
वैश्विक मंच पर भारत की आवाज़
मोदी का एक और चेहरा है—भारत को विश्व राजनीति में नई पहचान दिलाने वाला नेता। “इंटरनेशनल योग दिवस” से लेकर “G20 शिखर सम्मेलन” की अध्यक्षता तक, उन्होंने भारत को वैश्विक विमर्श के केंद्र में खड़ा किया। अमेरिका से लेकर रूस तक, पश्चिम एशिया से लेकर अफ्रीका तक, मोदी ने भारत की भूमिका को पुनर्परिभाषित किया।
चीन के साथ टकराव, पाकिस्तान पर कड़ा रुख और पड़ोसी देशों के साथ संतुलित संबंध—यह सब उनकी विदेश नीति के अहम हिस्से बने।
व्यक्तिवाद और जनसमर्थन
मोदी की राजनीति का एक अनोखा पहलू यह है कि वह व्यक्तिवाद और संगठनवाद का मिश्रण है। बीजेपी एक मजबूत संगठन है, लेकिन मोदी की छवि ने इसे चुनावी सफलता का इंजन बना दिया। “मोदी है तो मुमकिन है” जैसे नारों ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय राजनीति अब नेताओं के व्यक्तित्व पर अधिक केंद्रित हो गई है।
भविष्य की चुनौतियाँ
आज जब मोदी अपना जन्मदिन मना रहे हैं, तब भारत कई चुनौतियों से भी जूझ रहा है। आर्थिक असमानता, युवा बेरोजगारी, सामाजिक तनाव और जलवायु संकट—ये सब आने वाले समय में उनके नेतृत्व की असली परीक्षा होंगे। सवाल यह भी है कि क्या मोदी अपने तीसरे कार्यकाल में केवल राष्ट्रवादी एजेंडे को आगे बढ़ाएँगे या फिर अर्थव्यवस्था और सामाजिक संतुलन की नई तस्वीर भी पेश करेंगे।
जन्मदिन से आगे का अर्थ
मोदी का जन्मदिन उनके समर्थकों के लिए उत्सव है, उनके विरोधियों के लिए चिंता का कारण और देश के लिए आत्मचिंतन का अवसर। क्योंकि मोदी अब केवल एक राजनेता नहीं रहे, वे एक विचारधारा और एक नैरेटिव का चेहरा हैं।
वडनगर का वह बच्चा, जिसने रेलगाड़ियों में चाय बेची, अब वैश्विक मंच पर भारत की आवाज़ बुलंद कर रहा है। यह कहानी बताती है कि लोकतंत्र में केवल नीतियाँ ही नहीं, बल्कि कहानियाँ और नैरेटिव भी इतिहास बदल देते हैं। नरेंद्र मोदी की कहानी, इसी बदलते भारत की सबसे प्रभावशाली गाथा है।