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पेरियार: मिथक, वास्तविकता और तमिल अस्मिता के साथ विश्वासघात

20वीं सदी की शुरुआत में जब जातिगत भेदभाव और सामाजिक अन्याय तमिल समाज को जकड़े हुए थे, तब पेरियार ने खुद को सुधारक के रूप में प्रस्तुत किया।

Vibhuti Ranjan द्वारा Vibhuti Ranjan
17 September 2025
in इतिहास, ज्ञान, धर्म, भारत, संस्कृति
पेरियार: मिथक, वास्तविकता और तमिल अस्मिता के साथ विश्वासघात

आयोथिदास पंडितर जैसे नेता पहले ही दलित अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। लेकिन पेरियार ने उनके संघर्षों का मजाक उड़ाया।

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तमिलनाडु की राजनीति और समाज में एक नाम दशकों से छाया हुआ है—ई.वी. रामासामी नायकर, जिन्हें उनके अनुयायी “पेरियार” यानी “महान व्यक्ति” कहते हैं। उन्हें द्रविड़ आंदोलन का पितामह, आत्मसम्मान आंदोलन का जनक और सामाजिक न्याय का प्रवक्ता बताया जाता है। डीएमके और एआईएडीएमके जैसी द्रविड़ पार्टियाँ आज भी अपनी वैचारिक जड़ें पेरियार से जोड़ती हैं। स्कूलों और कॉलेजों में उनके विचार पढ़ाए जाते हैं, और सार्वजनिक जीवन में उनकी मूर्तियों पर नियमित रूप से मालाएँ चढ़ाई जाती हैं।

लेकिन सवाल यह है कि क्या पेरियार सचमुच तमिल अस्मिता के रक्षक थे? या फिर उनकी बनाई छवि राजनीतिक मिथक से ज़्यादा कुछ नहीं? जब उनके भाषणों, लेखों और राजनीतिक निर्णयों को विस्तार से पढ़ा जाता है, तो उनके भीतर से एक ऐसे व्यक्ति की तस्वीर उभरती है जो न केवल तमिल भाषा और साहित्य का अपमान करता था, बल्कि तमिल समाज को भी पिछड़ा और नकारा कहता था।

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मिथक का निर्माण

20वीं सदी की शुरुआत में जब जातिगत भेदभाव और सामाजिक अन्याय तमिल समाज को जकड़े हुए थे, तब पेरियार ने खुद को सुधारक के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ आवाज़ उठाई और ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की शुरुआत की। इस आंदोलन के जरिए उन्होंने जाति प्रथा को चुनौती देने का दावा किया। उनके अनुयायी कहते हैं कि उन्होंने स्त्रियों को शिक्षा दिलाने, विधवा विवाह का समर्थन करने और धर्म के नाम पर पाखंड को चुनौती देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यही वह पहलू है जिसने उनके चारों ओर एक सुधारक और विद्रोही का मिथक खड़ा किया।

लेकिन जब हम इस परत के पीछे देखते हैं तो तस्वीर बदल जाती है। वही व्यक्ति जिसने आत्मसम्मान का नारा दिया, उसने तमिल भाषा को “जंगली और बर्बर” कहा। वही व्यक्ति जिसने स्त्रियों के अधिकारों की बात की, उसने अपने भाषणों में महिलाओं का अपमान किया। और वही व्यक्ति जिसने जाति-भेद को तोड़ने का दावा किया, उसने दलितों की पीड़ा को बार-बार नज़रअंदाज़ किया।

तमिल भाषा के प्रति अवमानना

पेरियार की छवि तमिल अस्मिता से जोड़ दी गई है। लेकिन उनके असली विचार तमिल के प्रति बेहद नकारात्मक थे। 1967 में विदुथलाई नामक अखबार में उन्होंने तमिल को “काटुमिरांडी मोझी”—जंगली और बर्बर भाषा—कहा। उन्होंने कहा कि तमिल तोख़ता है कि भीख माँगने के लायक भी नहीं।

उनका मानना था कि तमिल छोड़कर अंग्रेज़ी सीखनी चाहिए, क्योंकि अंग्रेज़ी ही आधुनिकता और तरक्की का रास्ता है। तमिल समाज, जिसने उन्हें अपने नायक के रूप में पूजा, उसी समाज की भाषा को उन्होंने अपमानित किया। विडंबना यह है कि आज वही व्यक्ति “तमिल गौरव” का प्रतीक बना दिया गया है, जबकि उनकी असल राय तमिल भाषा और साहित्य को मिटाने वाली थी।

साहित्य और सभ्यता का अपमान

तमिल सभ्यता का स्वर्णकाल उसके साहित्य में बसता है। शिलप्पदिकरम जैसी संगम युगीन कृतियाँ तमिल समाज की आत्मा मानी जाती हैं। कंब रामायणम और थिरुक्कुरल तो न केवल तमिल बल्कि पूरी भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की अमूल्य निधि हैं।

लेकिन पेरियार ने इन रचनाओं का मजाक उड़ाया। उन्होंने शिलप्पदिकरम को आर्य षड्यंत्र बताया, कंब रामायणम को “झूठ का भंडार” कहा और थिरुक्कुरल को “सोने की थाली में गंदगी” करार दिया। ये केवल साहित्यिक आलोचनाएं नहीं थीं, बल्कि तमिल अस्मिता पर सीधे हमले थे। एक तरफ़ वे खुद को तमिल पहचान का प्रतीक बताते थे, दूसरी तरफ़ तमिल सभ्यता के सबसे बड़े खजाने को नीचा दिखाते थे।

तमिल समाज के प्रति तिरस्कार

पेरियार के भाषणों और लेखों में जगह-जगह तमिल समाज को पिछड़ा और अक्षम बताने वाले बयान मिलते हैं। वे कहते थे कि तमिलों ने सभ्यता को कुछ भी नहीं दिया, बस बैलगाड़ी और ओखली जैसी “पिछड़ी चीज़ें” दी हैं। उनका मानना था कि तमिलों में आत्मसम्मान की कमी है, उनमें न राष्ट्रवाद है, न मानवीयता। सवाल उठता है कि जो व्यक्ति अपनी ही जनता को इस तरह नीचा दिखाए, उसे जनता का मसीहा कैसे कहा जा सकता है?

ड्रविड़िस्तान और अलगाववाद का सपना

भारत के विभाजन का दौर था। जब जिन्ना ने मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान की माँग उठाई, उसी समय पेरियार ने भी दक्षिण भारत के लिए अलग “ड्रविड़िस्तान” की माँग की। उन्होंने ब्रिटिशों द्वारा गढ़े गए आर्य-द्रविड़ नस्लीय सिद्धांत को अपनाया और उसे राजनीतिक एजेंडा बना दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने जिन्ना से संपर्क साधने की कोशिश भी की। उनका सपना था कि भारत दो नहीं, कई टुकड़ों में बंट जाए और तमिलनाडु उसमें एक अलग इकाई बने। लेकिन जिन्ना ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया और उनकी मांग ठंडी पड़ गई। फिर भी यह घटना बताती है कि पेरियार की राजनीति तमिल अस्मिता की रक्षा से ज़्यादा भारत को तोड़ने की साज़िश से जुड़ी थी।

हिंदी विरोध का सच

द्रविड़ पार्टियाँ अक्सर दावा करती हैं कि पेरियार ने हिंदी थोपने की कोशिश का विरोध करके तमिलनाडु को बचाया। लेकिन इतिहास की किताबें कुछ और कहती हैं। 1927 में पेरियार ने अपने घर को दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा को दान कर दिया, जहाँ पहला हिंदी प्रशिक्षण केंद्र खोला गया। हज़ारों छात्रों ने यहाँ से हिंदी सीखी। यानी एक समय वही पेरियार हिंदी के प्रचारक थे। बाद में जब राजनीतिक अवसर मिला तो उन्होंने हिंदी-विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया। इससे साफ़ होता है कि उनका हिंदी-विरोध सिद्धांत नहीं, बल्कि अवसरवाद था।

दलितों के साथ विश्वासघात

दलित आंदोलनों की जड़ें तमिलनाडु में गहरी थीं। आयोथिदास पंडितर जैसे नेता पहले ही दलित अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। लेकिन पेरियार ने उनके संघर्षों का मजाक उड़ाया। उनका कहना था कि दलितों का अधिकार माँगना अपमानजनक है। 1958 में कीझवेन्मनी नरसंहार हुआ, जहां 44 दलित मज़दूरों को ज़िंदा जला दिया गया। पेरियार ने इस भयावह घटना की निंदा नहीं की। इसके बजाय वे उन्हीं ज़मींदारों के पक्ष में खड़े दिखे, जो उनके जाति समूह से आते थे। यह घटना बताती है कि पेरियार की “सामाजिक न्याय” की राजनीति कितनी खोखली थी।

महिलाओं के प्रति रवैया

पेरियार को महिलाओं की स्वतंत्रता का समर्थक बताया जाता है। उन्होंने विवाह की स्वतंत्रता, विधवा पुनर्विवाह और संपत्ति के अधिकार जैसी बातें उठाईं। लेकिन उनके निजी जीवन और भाषणों में महिलाओं का अपमान साफ़ दिखता है। उन्होंने कहा था कि महिलाएँ मंदिर जाती हैं ताकि पुरुष उन्हें छू सकें। अपनी पत्नी को मंदिर जाने से रोकने के लिए उन्होंने उसे डराने-धमकाने तक की कोशिश की। ऐसे व्यक्ति को महिला अधिकारों का नायक कहना सचमुच विडंबना है।

नफ़रत की विरासत

पेरियार की विचारधारा का असर आज भी तमिलनाडु की राजनीति और समाज में देखा जा सकता है। करुप्पर कूट्टम जैसे संगठन जब हिंदू देवी-देवताओं और कंडा षष्ठि कवचम् जैसे धार्मिक ग्रंथों का अपमान करते हैं, तो उसकी जड़ें पेरियार की उसी वैचारिक परंपरा में मिलती हैं। उन्होंने तर्कवाद और नास्तिकता के नाम पर केवल हिंदू परंपराओं को निशाना बनाया। इस्लाम और ईसाई धर्म पर उन्होंने कभी वैसी आलोचना नहीं की। यह चयनात्मक तर्कवाद वस्तुतः हिंदू-विरोधी एजेंडा था।

पेरियार का असली चेहरा

पेरियार को सुधारक, विद्रोही और तमिल अस्मिता का प्रतीक बनाकर पेश किया गया। लेकिन उनकी असलियत इससे बिल्कुल अलग है। उन्होंने तमिल भाषा का अपमान किया। उन्होंने तमिल साहित्य को झूठ और गंदगी कहा। उन्होंने तमिल समाज को पिछड़ा और अक्षम बताया। उन्होंने दलितों और महिलाओं के अधिकारों को तुच्छ ठहराया। उन्होंने भारत को तोड़ने का सपना देखा। और उन्होंने नास्तिकता के नाम पर हिंदू समाज को ही निशाना बनाया। यह समय है कि तमिल समाज इस अंधभक्ति से बाहर निकले और सच को स्वीकार करे। पेरियार को नायक बताना इतिहास के साथ अन्याय है। असल में वे तमिल गौरव के नहीं, तमिल अस्मिता के सबसे बड़े विरोधी थे।

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