पाकिस्तान का जन्म ही असुरक्षा और कट्टरता की ज़मीन पर हुआ था। 1947 के बाद से ही उसने अपनी राजनीतिक असफलताओं को छुपाने और जनता का ध्यान भटकाने के लिए “भारत-विरोध” को अपनी राष्ट्रीय पहचान बना लिया। यह भारत-विरोध केवल बयानबाज़ी में नहीं रहा, बल्कि धीरे-धीरे पाकिस्तान की सेना और सरकार ने आतंकवाद को अपनी रणनीतिक पूँजी बना लिया।
आज जब जैश-ए-मोहम्मद के कमांडर इलियास कश्मीरी और लश्कर-ए-तैयबा के डिप्टी चीफ़ सैफुल्लाह कसूरी जैसे आतंकी खुद कबूलनामे कर रहे हैं, तो वह असलियत सामने आ रही है जो भारत दशकों से कहता आ रहा है। यह कबूलनामे सिर्फ़ पाकिस्तान की पोल नहीं खोलते, बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी आईना दिखाते हैं कि उन्होंने कितने समय तक पाकिस्तान के झूठ पर विश्वास किया।
सेना और आतंकवाद: अब कोई पर्दा नहीं
कश्मीरी ने अपने वीडियो में स्पष्ट कहा कि पाकिस्तान के आर्मी चीफ़ आसिम मुनीर ने आदेश दिया था कि ऑपरेशन सिंदूर में मारे गए आतंकियों के जनाजे में सैन्य अधिकारी बाकायदा वर्दी पहनकर शामिल हों। यह आदेश सिर्फ़ संवेदनशीलता नहीं, बल्कि आतंकियों को “राष्ट्रीय संपत्ति” मानने वाली मानसिकता का प्रमाण है।
पाकिस्तान सेना ने इन आतंकियों को “शहीद” का दर्जा दिया और सलामी दी। यह वही सेना है जो वैश्विक मंचों पर खुद को आतंकवाद का शिकार बताती है। सोचिए—दुनिया की कोई भी जिम्मेदार सेना अपने देश को अस्थिर करने वाले तत्वों को सम्मान नहीं देती, लेकिन पाकिस्तान की सेना उनके साथ खड़ी होती है। कसूरी के कबूलनामे ने तो इस गठजोड़ की पुष्टि कर दी। उसने खुलासा किया कि पाकिस्तान सरकार और सेना खुद लश्कर-ए-तैयबा को फंडिंग कर रहे हैं, ताकि उसका मुख्यालय मुरिदके में फिर से बनाया जा सके। यही मुरिदके वह जगह है जिसे भारत ने अपने ऑपरेशन सिंदूर में ध्वस्त कर दिया था।
पाकिस्तान की स्थायी नीति है आतंकवाद
यह खुलासा अचानक नहीं आया। 1999 के कारगिल युद्ध को याद कीजिए। उस समय भी पाकिस्तान ने आतंकवादियों को सेना की यूनिफॉर्म में भेजकर घुसपैठ कराई। जब भारत ने सबूत पेश किए, तो इस्लामाबाद ने पहले झूठ बोला, फिर अंततः अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी।
2001 में संसद हमला, 2008 में मुंबई पर 26/11 का हमला, 2016 में उरी हमला, 2019 में पुलवामा हमला—हर बार सबूत पाकिस्तान की ओर इशारा करते रहे। हर बार भारत ने दुनिया से कहा कि यह केवल “गैर-राज्य तत्व” नहीं हैं, बल्कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के संरक्षण में पनप रहे संगठन हैं। आज आतंकियों के कमांडरों का कबूलनामा यही साबित कर रहा है कि भारत झूठ नहीं बोल रहा था। असलियत यह है कि पाकिस्तान ने आतंकवाद को अपनी विदेश नीति का औजार बना लिया है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान की फजीहत
पाकिस्तान वर्षों से संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक मंचों पर खुद को “आतंकवाद का शिकार” कहता रहा है। लेकिन अब सवाल यह है—क्या आतंकी कमांडरों के कबूलनामे के बाद भी दुनिया पाकिस्तान के झूठ पर विश्वास करेगी?
इस्लामाबाद की स्थिति आज बेहद हास्यास्पद है। एक ओर वह बहावलपुर में जैश के ठिकानों से इनकार करता है, आतंकियों के जनाजे में सेना अधिकारियों की तस्वीरों को “फर्जी” कहता है, और दूसरी ओर आतंकी कमांडर खुद कह रहे हैं कि आदेश सीधे जीएचक्यू से आते हैं और फंडिंग सरकार करती है। यह दोहरा रवैया अब छुप नहीं सकता। यही कारण है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान की छवि तेजी से गिर रही है। उसकी अर्थव्यवस्था डगमगा रही है, विदेशी निवेश भाग चुका है, और अब कूटनीतिक स्तर पर भी वह अलग-थलग पड़ता जा रहा है।
भारत का नैतिक और कूटनीतिक पलड़ा भारी
भारत का नैरेटिव अब पहले से कहीं अधिक मजबूत हुआ है। दशकों तक भारत को सबूत पेश करने पड़ते थे, दुनिया को समझाना पड़ता था कि पाकिस्तान का आतंकवाद “राज्य प्रायोजित” है। पर अब आतंकियों के कबूलनामे ही सबसे बड़े सबूत बन गए हैं।
भारत ने जिस तरह संयुक्त राष्ट्र में लश्कर और जैश का नाम लेकर उनकी गतिविधियों पर रोक लगाने की मांग की, वह उसकी रणनीतिक परिपक्वता का प्रतीक है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर की कूटनीति और स्थायी प्रतिनिधि पर्वतनेनी हरीश के बयान ने दिखा दिया कि भारत केवल शिकायत करने वाला देश नहीं, बल्कि समाधान पेश करने वाला देश है। भारत का संदेश स्पष्ट है: आतंकवाद और शांति साथ-साथ नहीं चल सकते। अगर पाकिस्तान को दक्षिण एशिया में स्थिरता चाहिए, तो उसे आतंकवाद की इस “राजनीति” को छोड़ना ही होगा।
गांधी और नेहरू का दृष्टिकोण बनाम पाकिस्तान की सोच
महात्मा गांधी ने पश्चिमी सभ्यता पर तंज कसते हुए कहा था: “पश्चिमी सभ्यता? हाँ, यह एक अच्छा विचार हो सकता है।” उनका मतलब था कि हिंसा और उपनिवेशवाद को सभ्यता कहना एक छलावा है। इसी तरह जवाहरलाल नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा था कि भारत की आत्मा सहिष्णुता और मेलजोल से बनी है। पाकिस्तान इसके उलट, असहिष्णुता और हिंसा को अपनी राष्ट्रीय रणनीति बना बैठा। यह फर्क केवल विचारों का नहीं, बल्कि इतिहास की दिशा तय करने वाला है। आज भारत दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक और आर्थिक शक्तियों में शामिल हो रहा है, जबकि पाकिस्तान आतंकवाद के दलदल में धँसता जा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए सवाल
अब यह सवाल केवल भारत का नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का है। आतंकवाद केवल कश्मीर या भारत तक सीमित नहीं रहा। 9/11 से लेकर लंदन, पेरिस और काबुल तक—आतंकवाद ने हर महाद्वीप को छुआ है। और इसकी जड़ें बार-बार पाकिस्तान की धरती तक पहुँचती रही हैं। तो क्या दुनिया अब भी पाकिस्तान को बचाएगी? क्या उसे “रणनीतिक साझेदार” कहकर आँखें मूँद लेगी? या फिर इस बार वास्तविक कदम उठाएगी—प्रतिबंध, दबाव और जवाबदेही?
भारत का उभरता हुआ नैरेटिव
आतंकियों के कबूलनामों ने पाकिस्तान की असलियत उजागर कर दी है। अब न कोई झूठ चलेगा, न कोई बहाना। पाकिस्तान का आतंकवाद उसका आंतरिक रोग नहीं, बल्कि उसकी आधिकारिक नीति है। भारत के लिए यह मौका है कि वह अपने नैरेटिव को और मज़बूत बनाए। हमारी कूटनीति पहले से ज़्यादा असरदार है, हमारे सुरक्षात्मक कदम निर्णायक हैं, और सबसे महत्वपूर्ण—दुनिया अब भारत की बात को सुन रही है।
भारत का संदेश साफ़ है पाकिस्तान आतंकवाद को पालेगा तो उसका परिणाम उसे ही भुगतना होगा। भारत आतंकवाद के खिलाफ़ अकेला नहीं, बल्कि दुनिया को साथ लेकर निर्णायक लड़ाई लड़ रहा है। और इस लड़ाई में सच, नैतिकता और सभ्यता भारत के पक्ष में खड़ी है।