कीव की उस प्रेस कॉन्फ़्रेंस में माहौल सामान्य था, जब तक कि पत्रकार ने भारत पर सवाल नहीं किया। पश्चिमी देशों के बीच यह धारणा लगातार मजबूत हो रही थी कि भारत रूस–यूक्रेन युद्ध में तटस्थता के नाम पर रूस का साथ दे रहा है। सवाल सीधा था: भारत और चीन यूक्रेन युद्ध में योगदान दे रहे हैं। इस पर जेलेंंस्की ने कहा, नहीं, भारत ज़्यादातर हमारे पक्ष में है। ऊर्जा के मामले में हमारी समस्याएं ज़रूर हैं, लेकिन उनका समाधान किया जा सकता है। यूरोप को भारत के साथ मज़बूत संबंध बनाने चाहिए। हमें भारतीयों से दूर नहीं हटना चाहिए। क्या भारत सचमुच आपके पक्ष में है? यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की ने थोड़ी देर रुककर जवाब दिया—“भारत हमारे पक्ष में है।” यह छोटा-सा वाक्य, लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति की कई परतों को बदल देने वाला है।
जेलेंस्की का यह बयान ऐसे समय आया जब डोनाल्ड ट्रंप अपने चुनावी भाषणों में भारत पर हमले कर रहे थे। वे भारत पर 50 फीसदी टैरिफ लगाकर अपने गुस्से का इजहार भी कर चुके हैं। ट्रंप का आरोप था कि भारत पश्चिमी सुरक्षा ढांचे का लाभ उठाता है, लेकिन योगदान नहीं देता, और केवल सस्ता तेल व व्यापारिक फायदे देखता है। यूरोप के कई नेता भी कुछ ऐसा ही कह रहे थे। उनके अनुसार भारत रूस से कच्चा तेल खरीदकर युद्ध को परोक्ष आर्थिक समर्थन दे रहा है। लेकिन, खुद जेलेंस्की ने इस नैरेटिव को ही पलट दिया।
भारत ने शुरुआत से ही अपनी विदेश नीति को रणनीतिक तटस्थता के इर्द-गिर्द रखा। संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ प्रस्तावों पर वोटिंग से दूर रहना हो या कीव को मानवीय सहायता भेजना, दोनों साथ-साथ चलते रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने व्लादिमीर पुतिन के सामने खुले मंच से यह कहकर पश्चिम की प्रशंसा बटोरी कि “यह युद्ध का युग नहीं है।” लेकिन इसके साथ ही भारत ने रूस से तेल आयात कई गुना बढ़ा दिया। यह दोहरी तस्वीर पश्चिम को खटकती रही, पर भारत ने साफ किया कि उसकी पहली प्राथमिकता 1.4 अरब लोगों की ऊर्जा सुरक्षा है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने यहां तक कह दिया कि यूरोप अपनी समस्या को भारत की समस्या न बनाए।
ट्रंप और भारत का रिश्ता हमेशा सीधा नहीं रहा। 2017 से 2020 तक उनके कार्यकाल में कई बार भारत पर दबाव बढ़ा। उन्होंने एच-1बी वीज़ा की संख्या कम करने की कोशिश की, जिससे भारतीय आईटी कंपनियां प्रभावित हुईं। इसी दौरान उन्होंने भारत को “टैरिफ़ किंग” कहा और स्टील–एल्यूमीनियम पर भारी शुल्क लगाए। हालांकि, इसी ट्रंप ने 2019 में ह्यूस्टन में “Howdy Modi” रैली में मोदी के साथ मंच साझा किया था और भारत-अमेरिका संबंधों को “प्राकृतिक साझेदारी” बताया था। यह विरोधाभास दरअसल अमेरिकी राजनीति की जटिलता का हिस्सा है, जहां भारत को एक ओर बाज़ार और रणनीतिक सहयोगी माना जाता है, तो दूसरी ओर व्यापार घाटे का कारण भी।
यूरोप के आरोप और ट्रंप की धमकियों के बीच भारत का नैरेटिव धीरे-धीरे और बुलंद होता गया। भारत यह कहने में हिचकिचाता नहीं कि वह न अमेरिका का अंधा अनुयायी बनेगा, न रूस का। जी20 की अध्यक्षता के दौरान भारत ने जो भूमिका निभाई, उसने उसे वैश्विक दक्षिण की आवाज़ के तौर पर स्थापित कर दिया। जेलेंस्की का बयान इसी पृष्ठभूमि में और भी अहम है। यह यूक्रेन की उस समझ को दर्शाता है कि भविष्य का पुनर्निर्माण केवल पश्चिमी मदद पर नहीं टिक सकता, उसे भारत जैसे एशियाई देशों का भी सहयोग चाहिए।
भारत के लिए जेलेंस्की का यह बयान डिप्लोमैटिक ऑक्सीजन की तरह है। एक तरफ पश्चिम के आलोचक उसे कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे, दूसरी तरफ यूक्रेन का राष्ट्रपति खुद भारत को अपने पक्ष में बता रहा था। इससे भारत को यह आत्मविश्वास मिला कि उसकी स्वायत्त विदेश नीति केवल घरेलू राजनीति तक सीमित नहीं, बल्कि वैश्विक मंच पर भी स्वीकार्य हो रही है।
भविष्य की राह अभी भी आसान नहीं है। अगर ट्रंप सत्ता में लौटते हैं तो टैरिफ़ का दबाव वास्तविक खतरा बन सकता है। यूरोप भी रूस पर अपने प्रतिबंधों को भारत पर लागू कराने की कोशिश करेगा। लेकिन अब भारत की स्थिति अलग है। ऊर्जा सुरक्षा और रणनीतिक स्वायत्तता का उसका नैरेटिव केवल बचाव का तर्क नहीं, बल्कि एक घोषित नीति बन चुका है। जब यूक्रेन का राष्ट्रपति खुद यह कहे कि भारत उसके पक्ष में है, तो यह नैरेटिव और मजबूत हो जाता है।
रूस–यूक्रेन युद्ध ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति की रेखाओं को बदल दिया है। इन बदलती रेखाओं के बीच भारत अब केवल एक दर्शक नहीं, बल्कि अपनी आवाज़ और अपना हित दोनों को परिभाषित करने वाला खिलाड़ी है। शायद यही वह बिंदु है, जहां जेलेंस्की का बयान भारत की वैश्विक भूमिका की नई शुरुआत का प्रतीक बन जाता है।