अफगानिस्तान के विदेश मंत्री मुल्ला अमीर खान मुत्तकी अगले हफ्ते रूस और भारत का दौरा करेंगे। यह यात्रा पाकिस्तान को उनकी यात्रा पर रोक लगाने की तिकड़म का स्मार्ट जवाब है। विदेश मंत्रालय के अनुसार, मुत्तकी 6 अक्टूबर को मॉस्को में ‘मॉस्को फॉर्मेट’ की बैठक में शामिल होंगे। इसके बाद वे भारत आएंगे, जहां वे विदेश मंत्री एस जयशंकर से मुलाकात करेंगे। यह पहली बार होगा जब कोई तालिबान मंत्री भारत आएगा। अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के साथ भारत के बढ़ते संबंधों ने पाकिस्तान के सेना प्रमुख मुल्ला मुनीर की टेंशन बढ़ा दी है। इससे पाकिस्तान को मिर्ची लगनी बिल्कुल तय है।
अगले सप्ताह अफगानिस्तान के विदेश मंत्री का भारत दौरा दक्षिण एशिया की राजनीति में एक नई करवट का संकेत है। तीन साल पहले जब तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया था, तो पाकिस्तान ने इसे अपनी कूटनीतिक जीत माना था। उसे लगा था कि अफगानिस्तान अब भारत से कट जाएगा और इस्लामाबाद के प्रभाव में रहेगा। लेकिन, आज स्थिति ठीक उलट है। काबुल का शीर्ष राजनयिक भारत आ रहा है और पाकिस्तान बेचैन है।
भारत ने बिना शोर-शराबे के, धीरे-धीरे पर स्थिरता से, अफगानिस्तान के साथ भरोसे का रिश्ता फिर से खड़ा कर लिया है। यह उस विदेश नीति का परिणाम है, जो किसी तात्कालिक लाभ के बजाय दीर्घकालिक विश्वास पर आधारित है।
हजारों वर्षों की साझी विरासत
भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते भूगोल, इतिहास और संस्कृति से बंधे हैं। गांधार सभ्यता से लेकर अशोक काल, कुषाण साम्राज्य और फिर मुग़ल युग तक अफगानिस्तान भारतीय इतिहास का हिस्सा रहा है। काबुल, कंधार और बामियान कभी व्यापारिक मार्ग नहीं, बल्कि सांस्कृतिक गलियारे हुआ करते थे।
महाभारत में गांधारी का नाम, सिकंदर की यात्रा से लेकर गुरु नानक की यात्राओं तक अफगानिस्तान भारतीय सभ्यता की आत्मा में बसता है। इतना ही नहीं, ब्रिटिश शासन के दौरान भी भारत और अफगानिस्तान के बीच सीमाएं नहीं, बल्कि सड़क संपर्क के मार्ग थे। स्वतंत्रता के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और अफगान राजा ज़हीर शाह के बीच रिश्ते सौहार्दपूर्ण रहे।
1979 में सोवियत आक्रमण के बाद भारत ने न केवल शांति की अपील की, बल्कि लाखों अफगान शरणार्थियों को मानवीय सहायता भी दी। 90 के दशक में जब तालिबान पहली बार सत्ता में आया, तब भी भारत ने लोकतंत्र और शिक्षा के पक्ष में खड़े होकर काबुल के लोगों के लिए राहत पहुंचाई।
पाकिस्तान की नीति और उसकी विफलता
पाकिस्तान की अफगान नीति हमेशा से ही स्ट्रैटेजिक डेप्थ पर आधारित रही है। मतलब भारत के खिलाफ सुरक्षित पिछला मोर्चा। ISI (Inter-Services Intelligence) ने 1980 के दशक से ही तालिबान और अन्य कट्टरपंथी गुटों को हथियार, पैसा और प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया था। उसका उद्देश्य था काबुल में एक ऐसी सरकार बैठाना जो भारत-विरोधी हो और पाकिस्तान के इशारों पर चले।
1990 के दशक में जब तालिबान ने सत्ता संभाली, तब पाकिस्तान ने उसे दुनिया के सामने इस्लामी शासन का आदर्श मॉडल बताने की कोशिश की। लेकिन वह मॉडल आतंकवाद और अस्थिरता का पर्याय बन गया। 11 सितंबर 2001 के बाद जब अमेरिका ने तालिबान के शासन को उखाड़ फेंका, तब भी पाकिस्तान दोहरी भूमिका निभाता रहा। एक ओर आतंकवाद विरोधी साझेदार बना तो दूसरी ओर आतंकियों का पनाहगार भी।
भारत ने इसके विपरीत, अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में सीधी भागीदारी की। सलमा डैम (अफगान-भारत मित्रता बांध), अफगान संसद भवन, सड़कों, अस्पतालों और शिक्षा संस्थानों का निर्माण भारत की ओर से किया गया। इन परियोजनाओं ने न केवल अफगान अर्थव्यवस्था को संभाला, बल्कि भारत के प्रति जनता के दिल में गहरा सम्मान भी पैदा किया।
तालिबान के सत्ता में आने के बाद भारत की रणनीति
2021 में अमेरिकी वापसी और तालिबान की सत्ता वापसी के बाद विश्व समुदाय हिचकिचा गया था।
पश्चिमी देश काबुल से दूरी बनाए रखने लगे। इस बीच भारत ने भी तत्काल अपनी राजनयिक उपस्थिति घटा दी, लेकिन उसने संपर्क पूरी तरह कभी नहीं तोड़ा।
इस मामले में भारत का दृष्टिकोण साफ था कि हम जनता के साथ हैं, न कि किसी शासन प्रणाली के साथ। भारत ने उसी वर्ष दिसंबर में 50,000 मीट्रिक टन गेहूं, दवाइयां और कोविड-वैक्सीन अफगानिस्तान भेजने का निर्णय लिया। लेकिन, पाकिस्तान ने एक बार फिर अड़ंगा डाला, उसने भारतीय ट्रकों को अपने भूभाग से गुजरने की अनुमति ही नहीं दी। कई दौर की बातचीत और अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद पाकिस्तान ने शर्तों के साथ रास्ता खोला। यह दिखाता है कि इस्लामाबाद चाहता था कि भारत और अफगानिस्तान की निकटता सीमित ही रहे। इसके बाद भी भारत ने अपना संकल्प नहीं छोड़ा। भारत ने ईरान के चाबहार पोर्ट को विकल्प के रूप में तेज़ी से आगे बढ़ाया, ताकि पाकिस्तान को बायपास करते हुए अफगानिस्तान तक पहुंच बनाई जा सके।
चाबहार पोर्ट: भारत की रणनीतिक धुरी
ईरान के दक्षिणी हिस्से में स्थित चाबहार बंदरगाह केवल एक व्यापारिक परियोजना नहीं, बल्कि भारत की भू-सामरिक सोच का प्रतीक है। यह वह मार्ग है जो भारत को ईरान और अफगानिस्तान के ज़रिए मध्य एशिया तक पहुंचाने की क्षमता रखता है। इस पोर्ट के माध्यम से भारत सीधे काबुल और कंधार को आपूर्ति भेज सकता है। इसमें पाकिस्तान कुछ नहीं कर पाएगा।
2016 में भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच त्रिपक्षीय समझौता हुआ था ताकि चाबहार को “रीजनल ट्रेड हब” बनाया जा सके। लेकिन, ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों और अफगानिस्तान की अस्थिर स्थिति के कारण काम धीमा पड़ गया। अब जबकि अफगान विदेश मंत्री भारत आ रहे हैं, संभावना है कि इस मुद्दे पर ठोस चर्चा होगी। अगर भारत-अफगानिस्तान चाबहार के माध्यम से व्यापारिक संपर्क फिर से सक्रिय करते हैं, तो यह पाकिस्तान की आर्थिक और सामरिक स्थिति पर बड़ा प्रहार होगा।
अमेरिका, रूस और चीन की नजर में भारत
भारत-अफगान रिश्ते अब केवल द्विपक्षीय नहीं रहे। ये मध्य एशिया, ईरान, रूस और अमेरिका — सभी के लिए महत्व रखते हैं। रूस चाहता है कि भारत अफगानिस्तान में स्थिरता लाने की भूमिका निभाए ताकि मध्य एशिया में चरमपंथ न फैले। अमेरिका के लिए भारत एक स्थायी लोकतांत्रिक साझेदार है, जो आतंकवाद के खिलाफ नैतिक और राजनीतिक ताकत रखता है। इन सबके बीच चीन अफगानिस्तान में आर्थिक निवेश की कोशिश कर रहा है, लेकिन उसकी छवि शोषक शक्ति की है। इस कारण अफगान जनता उसे भरोसेमंद नहीं मानती।
भारत की असल ताकत यह है कि वह विकास के नाम पर आता है, न कि वर्चस्व के नाम पर। यही कारण है कि तालिबान शासन भी भारत के साथ आर्थिक और तकनीकी सहयोग रखने की इच्छा जाहिर कर रहा है।
सहयोग, संपर्क और स्थिरता
भारत और अफगानिस्तान का भविष्य तीन बिंदुओं पर टिका है संपर्क (Connectivity), सहयोग (Cooperation) और स्थिरता (Stability)।
संपर्क: चाबहार बंदरगाह, अंतरराष्ट्रीय नॉर्थ-साउथ ट्रांजिट कॉरिडोर और एयर कार्गो लिंक के माध्यम से दोनों देशों के बीच व्यापारिक और लॉजिस्टिक नेटवर्क मजबूत किया जा सकता है।
सहयोग: शिक्षा, स्वास्थ्य और पुनर्निर्माण में भारत की विशेषज्ञता अफगानिस्तान के लिए अमूल्य है। पहले ही 60,000 से अधिक अफगान छात्रों ने भारत में पढ़ाई की है।
स्थिरता: भारत की कूटनीति अफगानिस्तान को स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के रूप में उभरने में मदद कर सकती है, जो किसी बाहरी दबाव में न रहे। यदि ये तीनों धुरें मजबूत होते हैं तो दक्षिण एशिया का भविष्य न केवल सुरक्षित बल्कि समृद्ध भी हो सकता है।
विकास की राह पर भरोसे का हाथ
अफगान विदेश मंत्री का भारत दौरा केवल एक औपचारिक यात्रा नहीं, बल्कि इतिहास की दिशा में बदलाव का संकेत है। यह यात्रा बताती है कि कूटनीति सिर्फ शक्ति से नहीं, बल्कि स्थायित्व और संवेदनशीलता से जीती जाती है। वैसे भी भारत ने हमेशा दिखाया है कि उसकी विदेश नीति मानव-केंद्रित है। वह अफगानिस्तान में सत्ता नहीं, बल्कि स्थिरता चाहता है। वह आतंक के खिलाफ है, लेकिन अफगान जनता के पक्ष में है। आज जब पाकिस्तान अपनी ही नीतियों के जाल में उलझा है, आतंकवाद, आर्थिक संकट और राजनीतिक विघटन से जूझ रहा है। भारत अपनी दूरदृष्टि और सॉफ्ट पावर से काबुल तक विश्वास की नई कहानी लिख रहा है।
काबुल से दिल्ली तक की दूरी अब सिर्फ भौगोलिक नहीं, ऐतिहासिक भी सिमट रही है। भारत और अफगानिस्तान का यह नया अध्याय बताता है कि जहां विकास का हाथ और संवाद की भाषा साथ चलती है, वहीं स्थिरता की नींव मजबूत होती है।