अगर कोई युवा आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों को मात देते हुए पहले डॉक्टर बनता है और फिर 10–12 घंटे की नौकरी करते हुए देश की सबसे बड़ी परीक्षा पास कर आईएएस अधिकारी बनता है, तो उसकी कहानी यकीनन न सिर्फ पढ़ी और सुनी जानी चाहिए, बल्कि उससे प्रेरणा भी ली जानी चाहिए।
लेकिन एक दिन एक कथित एक्टविस्ट उस अधिकारी के ऊपर करप्शन का आरोप लगा देता है, बिना किसी सबूत, बिना किसी तथ्य के और मीडिया इस ख़बर को हाथों हाथ लपक लेती है, बिना ये देखे कि वो आरोप सही हैं भी या नहीं? या जिस कथित एक्टिविस्ट ने ये आरोप लगाए हैं, उसका ख़ुद का रिकॉर्ड क्या है?
वो IAS अधिकारी हैं नागार्जुन गौड़ा, जिनकी लिखी किताब ‘द मैनुअल ऑन एथिक्स, इंटीग्रिटी और एप्टीट्यूड‘ भी सुर्खियों में रही थी। लेकिन एथिक्स पर किताब लिखने वाला ये युवा आईएएस अधिकारी अब एक बड़े आरोप की वजह से फिर सुर्खियों में हैं।
आरोप लगाने वाले कथित एक्टिविस्ट पर दर्ज हैं 7 मुकदमे, हो चुका है ज़िला बदर
आरोप लगते ही सोशल मीडिया से लेकर मीडिया ने उन्हें ‘करप्ट’ ऑफिसर के तौर पर पेश कर दिया। लेकिन इन खबरों में ये नहीं बताया गया कि जिस RTI एक्टिविस्ट ने उन पर 10 करोड़ की रिश्वत लेने का आरोप लगाया है, उस पर ख़ुद ब्लैकमेलिंग, वसूली और लोगों को धमकाने के सात मुकदमें दर्ज हैं। वो कई बार जेल जा चुका है और एक बार तो उसे जिला बदर तक किया जा चुका है।
मीडिया के लिए हेडलाइन्स matter करती हैं और ‘एथिक्स’ की बात करने वाले एक युवा अधिकारी के साथ ‘करप्शन’ का टैग जोड़ना ‘क्लिक बेट’ वाली जर्नलिज्म के लिए भी मुनाफे का सौदा है। अब तक लाखों लोगों तक ये खबरें इसी तरह पहुंची हैं, या पहुंचाई गई हैं।
रिश्वत के आरोप की असली कहानी क्या है ?
दरअसल IAS नागार्जुन गौड़ा पर आरोप है कि उन्होने 10 करोड़ रुपये की रिश्वत लेकर एक प्राइवेट कंपनी का करोड़ों का जुर्माना माफ कर दिया।
कहानी शुरू होती है मध्यप्रदेश के हरदा से। मध्यप्रदेश में बैतूल–इंदौर फोरलेन के निर्माण का काम चल रहा है। भारतमाला प्रोजेक्ट के तहत बन रहे इस हाइवे का एक हिस्सा हरदा से भी गुजरता है। रोड के इस हिस्से का काम ‘पाथ’ नाम की एक निजी कंपनी को मिला था। आरोप लगाया गया कि कंपनी ने इसी काम के दौरान अंधेरीखेड़ा नाम के गाँव में बिना अनुमति के 3.11 लाख घनमीटर मुरम और मिट्टी की खुदाई कर डाली। जानकारी मिलने पर तत्कालीन एडीएम प्रवीण फूलपगारे ने कंपनी को ₹51,67,64,502 जुर्माने का नोटिस जारी कर दिया था।
इसी बीच एडीएम प्रवीण फूलपगारे साहब का ट्रांसफ़र हो गया और उनकी जगह डॉ. नागार्जुन गौड़ा हरदा के एडीएम बन कर आए।
लेकिन यही मामला जब उनके सामने सुनवाई के लिए आया तो उन्होने कंपनी पर लगे इस ₹51 करोड़ रुपये के जुर्माने को घटा कर सिर्फ ₹4,000 कर दिया। पहली नज़र में तो ये बड़ा खेल लगता है। लेकिन सच्चाई क्या है?
पुराने नोटिस से लेकर कंपनी की दलील, जाँच रिपोर्ट्स और एडीएम हरदा के ऑर्डर की जाँच करने पर सच्चाई कुछ और ही निकली।
हमारी पड़ताल के दौरान पता चला कि जिस ₹51 करोड़ रुपये के जुर्माने की बात हो रही है, वो कोई आदेश नहीं था — वो सिर्फ़ एक नोटिस था, और कानून के मुताबिक हर नोटिस के बाद कोर्ट में सुनवाई होती है।
लेकिन जब सुनवाई शुरू हुई तो कई तथ्य सामने आए:
• जिन 19 ख़सरा नंबरों पर कथित अवैध खनन की बात कही गई थी, उनमें से 7 में पहले ही वैध खनन की अनुमति मौजूद थी। यानी उन पर या तो पहले से ही खनन हो रहा था या हो चुका था।
• 6 ख़सरा नंबरों की अनुमति तो 10 साल पहले ही दूसरी कंपनियों को दी जा चुकी थी और ये कंपनियां वहाँ खुदाई कर भी चुकी थीं।
• यह मामला 2020 का बताया गया है, जबकि जिस निजी कंपनी की बात हो रही है, उसे यह काम 2021 में मिला था। यानी अधिकारियों ने जाँच के नाम पर पहले हुए खनन का ठीकरा भी इसी कंपनी पर फोड़ दिया था।
• कंपनी द्वारा जिन किसानों की जमीनों पर अवैध खनन करने के आरोप थे — जाँच में पाया गया कि कई किसानों ने खुद सरकार की योजना का लाभ उठाते हुए वहाँ तालाब खुदवा लिए थे। यानी खुदाई कुछ मामलों में किसानों ने ही करवाई थी, पर उसे भी अवैध खनन मानते हुए कंपनी के खाते में जोड़ दिया गया।
• जाँच के दौरान यह भी मिला कि कंपनी को जो पहला नोटिस भेजा गया था वह प्रक्रिया पूरी किए बिना ही जारी कर दिया गया था। बाद में दोबारा जांच कराई गई — फिर भी कोई ठोस सबूत सामने नहीं आया।
• जिस तहसीलदार ने नोटिस जारी किया, उसने खुद कोर्ट में कहा कि उसे ज़मीन पर कुछ नहीं मिला; उसने मीडिया रिपोर्ट देखकर नोटिस जारी कर दिया था।
• इसलिए किसी को यह पता नहीं था कि पहले काम कर रही कंपनियों ने या ज़मीन के मालिकों ने कितनी मिट्टी खोदी थी, या उन्होंने कितना अवैध खनन किया था।
• पहले का कोई रिकॉर्ड नहीं था, तो खनिज विभाग के अधिकारियों ने 10 सालों में जितना भी खनन हुआ था, सबका ठीकरा इसी कंपनी पर डाल दिया था।
कंपनी पर लगाए गए जुर्माने का आधार ही ग़लत निकला
• जुर्माना लगाने के लिए जो फ़ॉर्मूला लगाया गया, उसके अनुसार जो मात्रा निकलेगी उससे रॉयल्टी (यहाँ ₹50 प्रति घन मीटर मानी गई) निकाली जाएगी और उस वैल्यू का 15 गुना जुर्माना लिया जाएगा; साथ ही पर्यावरण हानि के एवज़ में भी राशि वसूली जाएगी। लेकिन राज्य सरकार की अधिसूचना के मुताबिक भारतमाला/सागरमाला परियोजनाओं में मुर्रम और मिट्टी का उपयोग मुफ्त में किया जा सकता है। यानी यदि कोई खनन हुआ भी होता तो उसकी रॉयल्टी शून्य होगी — शून्य × किसी भी अंक = शून्य; इस हिसाब से कोई जुर्माना बनता ही नहीं। यही तर्क सुनवाई के दौरान कंपनी की ओर से दिया गया, जिसे नियमों के तहत माना भी गया।
• बाकी बचे ख़सरा नंबरों में भी जांचकर्ताओं को कोई ठोस सबूत नहीं मिला, और उन्होंने यह ऑन–रिकॉर्ड स्वीकार भी किया है।
• सुप्रीम कोर्ट और मध्यप्रदेश के खनन कानूनों के अनुसार बिना सबूत किसी पर जुर्माना नहीं लगाया जा सकता।
6 महीने चली सुनवाई– सबूतों के आभाव के चलते माफ हुआ कंपनी का जुर्माना
ऐसे में जब आईएएस नागार्जुन गौड़ा के पास यह मामला आया और उन्होंने पूरे मामले को देखा तो उन्हें कोई भी ठोस सबूत नहीं मिले। सच्चाई यह निकली कि खनन विभाग ने अपनी लापरवाही छिपाने के लिए पिछले वक्त में हुए खनन को एक हालिया कंपनी के खाते में डाल दिया था। बिना सबूत किसी को सजा नहीं दी जा सकती, इसलिए एडीएम प्रवीण फूलपगारे के समय जारी किया गया पुराना नोटिस तर्कों के सामने टिक नहीं सका और बतौर एडीएम नागार्जुन गौड़ा ने तथ्य–आधारित निर्णय लेते हुए इस कंपनी पर लगे जुर्माने को हटाया।
एक्टिविस्ट आनंद जाट पहले भी कई लोगों पर लगा चुका है ऐसे आरोप
लेकिन तथाकथित एक्टिविस्ट ने RTI के ज़रिए सिर्फ़ तय हिस्से को मीडिया के सामने पेश कर दिया और दावा किया कि अधिकारी ने अपने स्टाफ़ के ज़रिए कंपनी से रिश्वत ली। मीडिया ने भी बिना अधिकारी का पक्ष जाने खबरें उछालनी शुरू कर दीं।
IAS नागार्जुन गौड़ा आनंद जाट नाम के इस कथित एक्टिविस्ट का पहला शिकार नहीं हैं — इससे पहले भी कई लोगों पर यह व्यक्ति बिना किसी सबूत के आरोप लगा चुका है। ख़ुद मध्यप्रदेश के मंत्री तक इसका शिकार बन चुके हैं। इस मामले में भी उसने कोई ठोस सबूत पेश नहीं किए। आनंद जाट ने कहा है कि उसके पास आरोपों के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं है; उसने सिर्फ़ सुनी–सुनाई बातों के आधार पर आरोप लगाया।
अधिकारी पर लगे आरोप पहली नज़र में बेहद गंभीर नज़र आते हैं और अगर इनमें कोई सच्चाई है तो कार्रवाई होनी चाहिए।
आरोप ग़लत! तो अधिकारी की प्रतिष्ठा का क्या ?
लेकिन हमारी पड़ताल में ऐसा कुछ भी नहीं मिला जो नियमों के विरुद्ध कहा जा सके। तो सवाल यह है कि एक अधिकारी और उसकी सालों में कमाई गई प्रतिष्ठा का क्या हुआ? उस भरोसे का क्या जो उन्होंने लाखों युवाओं के बीच तिनका–तिनका करके बनाया था? स्पष्ट है — एक शख्स की खबरों में बने रहने की आदत और हेडलाइन्स के स्वार्थी खेल ने उसे तहस–नहस कर दिया।
इसका ज़िम्मेदार सिर्फ़ हेडलाइन–भूखा मीडिया नहीं है; सिस्टम भी उतना ही ज़िम्मेदार है। शायद इसीलिए एडीएम हरदा रहे नागार्जुन गौड़ा को न सिर्फ कंपनी का जुर्माना हटाना पड़ा, बल्कि उन्होंने लापरवाही के लिए जिम्मेदार खनन विभाग को भी लपेटे में लिया। वर्षों से हो रहा खनन पहले नज़र नहीं आया और जब उसकी आँखे खुली तो जो भी सामने दिखा, उसे ही बलि का बकरा बना दिया गया।
ज़ाहिर है यह हेडलाइन और सुर्खियां इस युवा अधिकारी के लिए बड़ा सबक होंगी। उन्हें अब उसी सिस्टम से लड़ना और उसे सुधारना है — जिसका वे ख़ुद हिस्सा हैं।