बिहार की राजनीति इन दिनों एक नए मोड़ पर खड़ी है। चुनावी रणभूमि तैयार है, प्रत्याशियों की घोषणा की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है और अब हर दल अपनी-अपनी “रणनीतिक मशीन” को गति देने की जद्दोजहद में जुट चुका है। लेकिन इस बीच जो खबर सबसे अहम है, वह यह कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह 16 से 18 अक्टूबर तक बिहार में कैंप करने जा रहे हैं। यह महज एक दौरा नहीं है, यह उस चुनावी स्क्रिप्ट का पहला अध्याय है, जिसमें आने वाले हफ्तों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं निर्णायक भूमिका निभाने वाले हैं।
एनडीए के भीतर सीट शेयरिंग लगभग तय हो चुकी है। उम्मीदवारों की सूची मंगलवार को अंतिम रूप ले लेगी और ठीक उसके अगले दिन से शाह का बिहार मिशन शुरू हो जाएगा। यह संयोग नहीं है, बल्कि भाजपा की राजनीतिक गणित का हिस्सा है। पहले संगठन को सशक्त करना, फिर जनभावनाओं को ऊर्जा देना और अंत में पीएम मोदी के करिश्मे से उसे आंदोलन की तरह बदल देना।
अमित शाह: चुनावी मशीनरी के कमांडर
अमित शाह को भारतीय राजनीति का चुनावी चाणक्य यूं ही नहीं कहा जाता। उनकी राजनीति का आधार है गणित और मनोविज्ञान का मिश्रण। वे समझते हैं कि बिहार जैसे जटिल सामाजिक ढांचे वाले राज्य में चुनाव जीतना सिर्फ़ नारों या भाषणों से संभव नहीं है, इसके लिए ज़रूरी है एक सूक्ष्म संगठनात्मक नेटवर्क का, जो हर जाति, हर समुदाय और हर बूथ पर भाजपा के वोट बैंक को सशक्त करे।
शाह का यह तीन दिवसीय कैंप इसी का संकेत है। वे सिर्फ़ पटना या गया में रैलियां नहीं करेंगे, बल्कि राज्यभर के जिलाध्यक्षों, बूथ संयोजकों और गठबंधन सहयोगियों के साथ अलग-अलग बैठकें करेंगे। उनका मकसद साफ़ है, बूथ से लेकर वोट तक की चेन को दुरुस्त करना। इस दौरान भाजपा का केंद्रीय तंत्र न सिर्फ़ अपने कार्यकर्ताओं को चुनावी प्रशिक्षण देगा, बल्कि हर सीट पर माइक्रो प्लान तय करेगा। कौन सी जाति निर्णायक है, किन इलाकों में विकास की थीम काम करेगी और किन जगहों पर हिंदुत्व का एजेंडा वोट में तब्दील किया जा सकता है।
शाह के लिए यह दौरा एक “फील्ड टेस्ट” जैसा होगा। वे देखेंगे कि 2020 के चुनाव में भाजपा जिन सीटों पर थोड़ा अंतर से हारी थी, वहां इस बार कैसी स्थिति है। संगठन की रिपोर्ट, लोकल फीडबैक और सामाजिक समीकरणों की समीक्षा, यही उनके कैंप का असली एजेंडा होगा।
एनडीए में तालमेल और ताकत का प्रदर्शन
एनडीए में इस बार पांच घटक दल हैं। भाजपा, जदयू, लोजपा (पासवान), उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक जनता दल और जीतनराम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा। ऐसे गठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर खींचतान स्वाभाविक है। लेकिन शाह का दौरा इसीलिए निर्णायक है, ताकि सभी सहयोगी दलों को यह संदेश मिले कि भाजपा ही एनडीए की धुरी है और सबको उसी की रणनीतिक छतरी के नीचे समन्वय करना होगा।
भाजपा चाहती है कि उम्मीदवारों की घोषणा के साथ ही कार्यकर्ताओं में जोश का संचार हो और गठबंधन के अंदर किसी तरह की दरार का संदेश बाहर न जाए। इसलिए शाह की मौजूदगी एनडीए के यूनिटी शो का प्रतीक होगी। वे प्रत्येक उम्मीदवार को व्यक्तिगत तौर पर प्रेरित करेंगे और हर क्षेत्रीय नेता को यह विश्वास दिलाएंगे कि दिल्ली और पटना के बीच कोई दूरी नहीं है, और अंततः यह संदेश देंगे कि भाजपा सिर्फ़ सत्ता की पार्टी नहीं, बल्कि एक अनुशासित आंदोलन है।
बिहार की सामाजिक रचना और भाजपा की रणनीति
बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों पर टिकी है यादव, कुर्मी, कोइरी, मुसहर, ब्राह्मण, भूमिहार, मुसलमान, बनिया और दलित वर्ग। यहां हर जाति का अपना राजनीतिक वजन है, और अमित शाह इसे भलीभांति जानते हैं। इसलिए उनकी रणनीति होगी कि भाजपा जाति से ऊपर उठकर “राष्ट्र और विकास” की भाषा बोले, लेकिन हर जाति के भीतर अपना “केंद्रीय चेहरा” सक्रिय रखे।
उदाहरण के लिए, भूमिहार और ब्राह्मण परंपरागत रूप से भाजपा के साथ हैं। लेकिन अमित शाह जानते हैं कि असली चुनौती पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों में पैठ बनाने की है। यही कारण है कि भाजपा का फोकस अब गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित वर्ग पर है। इन वर्गों में भाजपा ने पंचायत स्तर तक सक्रियता बढ़ाई है और शाह का कैंप इन्हीं समूहों को संगठित करने की दिशा में बड़ा कदम होगा।
वहीं, नीतीश कुमार की जदयू के साथ तालमेल भाजपा के लिए “संख्यात्मक मजबूरी” नहीं, बल्कि “रणनीतिक संतुलन” है। अमित शाह के लिए यह महत्वपूर्ण होगा कि वे जदयू के स्थानीय कैडर को यह विश्वास दिलाएं कि मोदी-शाह की जोड़ी राज्य की स्थिरता की गारंटी है, न कि किसी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की।
अमित शाह के भाषण: राजनीति से अधिक मनोविज्ञान
शाह के भाषण अक्सर सटीक और संक्षिप्त होते हैं, पर उनका असर गहरा होता है। वे जनता से सीधे संवाद करते हैं, आंकड़ों की भाषा में बोलते हैं और हर तर्क के पीछे एक ठोस उदाहरण रखते हैं।
बिहार में वे विपक्ष पर यह सवाल जरूर उठाएंगे कि जिन लोगों ने दशकों तक बिहार पर शासन किया, उन्होंने राज्य को पलायन, गरीबी और अपराध के दलदल से क्यों नहीं निकाला? वे यह भी कहेंगे कि प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में बिहार को कितनी योजनाएं, कितने उद्योग और कितनी सड़कों का नेटवर्क मिला। इस भाषाई रणनीति का उद्देश्य है जनभावना को तर्क और आंकड़ों के साथ जोड़ना, ताकि विपक्ष की भावनात्मक राजनीति का प्रभाव निष्प्रभावी हो जाए।
विपक्ष के लिए मनोवैज्ञानिक चुनौती
महागठबंधन के भीतर अभी भी उम्मीदवार चयन, सीट बंटवारा और नेतृत्व को लेकर भ्रम की स्थिति है। तेजस्वी यादव अपनी पार्टी के भीतर दबाव में हैं, कांग्रेस कमजोर स्थिति में है और वाम दल अभी तक रणनीतिक एकता नहीं बना पाए हैं। ऐसे में अमित शाह का बिहार दौरा विपक्ष के लिए मानसिक दबाव का कारण बनेगा। क्योंकि भाजपा के भीतर जो अनुशासन और तत्परता दिखती है, वही विपक्ष में अनुपस्थित है।
राजनीति में सिर्फ़ नीतियां नहीं, बल्कि मनोबल और समय-प्रबंधन भी जीत तय करते हैं।
भाजपा ने अपने अभियान की शुरुआत मनोवैज्ञानिक बढ़त के साथ की है। पहले सीट फाइनल, फिर शाह का ग्राउंड एक्टिवेशन, और उसके बाद मोदी का करिश्माई फिनिश। यह क्रम विपक्ष के लिए असहज है, क्योंकि उन्हें प्रतिक्रिया में चलना पड़ेगा, पहल उनके हाथ में नहीं रहेगी।
मोदी का दौरा: जनभावनाओं का विस्फोट
अमित शाह की रणनीति जहां ज़मीन पर संरचना तैयार करेगी, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एंट्री उस संरचना में जनभावनाओं की धारा प्रवाहित करेगी। मोदी की रैलियां महज भाषण नहीं होतीं, वे जनसमूहों में भावनात्मक ऊर्जा भर देती हैं। उनके शब्दों में बिहार के गौरव, आत्मसम्मान और विकास का सपना एक साथ गूंजता है।
जब मोदी बिहार आएंगे, तो वे इस चुनाव को “राज्य बनाम केंद्र” नहीं, बल्कि “भारत के विकास बनाम परिवारवाद” की लड़ाई के रूप में पेश करेंगे। वे यह याद दिलाएंगे कि बिहार की प्रगति भारत की प्रगति से जुड़ी है और मोदी सरकार ने हर गरीब, हर किसान, हर महिला के जीवन में जो परिवर्तन लाया है, वह विपक्ष की किसी भी खोखली राजनीति से कहीं अधिक स्थायी है।
मोदी की उपस्थिति का एक मनोवैज्ञानिक असर यह भी होता है। भाजपा कार्यकर्ता खुद को “युद्ध के लिए तैयार सैनिक” महसूस करते हैं। हर बूथ स्तर पर ऊर्जा का विस्फोट होता है और यही वह तत्व है जो विपक्ष के लिए घातक साबित होता है।
बिहार में भाजपा की दीर्घकालिक रणनीति
भाजपा अब बिहार को केवल “सहयोगी राज्य” के रूप में नहीं देखती, बल्कि “भविष्य के कोर राज्य” के रूप में देख रही है। 2020 में भाजपा ने जदयू से कम सीटें लड़ीं, लेकिन अधिक जीतीं यानी जनता का झुकाव पहले से स्पष्ट है। अब शाह का लक्ष्य है कि भाजपा 2025 के बाद बिहार में अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति तैयार करे। इस चुनाव में इसलिए भाजपा की रणनीति केवल सीट जीतने की नहीं, बल्कि राजनीतिक भूमि तैयार करने की भी है।
अमित शाह का कैंप यह सुनिश्चित करेगा कि भाजपा का संगठन हर विधानसभा में एक मजबूत स्थानीय नेतृत्व खड़ा करे, ताकि भविष्य में उसे गठबंधन पर निर्भर न रहना पड़े। यह चुनाव भाजपा के लिए “तैयारी का दौर” भी है, जहां पार्टी न सिर्फ़ आज की जीत के लिए, बल्कि कल की आत्मनिर्भर राजनीति के लिए भी नींव रख रही है।
बिहार में अब राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति की लड़ाई
बिहार की राजनीति हमेशा से जटिल रही है, लेकिन इस बार की लड़ाई का स्वरूप अलग है। अब यह सिर्फ़ जातीय या क्षेत्रीय संघर्ष नहीं, बल्कि राष्ट्रीय दृष्टि बनाम क्षेत्रीय सीमाओं की टक्कर है। अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी इस बात को गहराई से समझती है कि बिहार में जीत का अर्थ केवल सत्ता नहीं, बल्कि राष्ट्रवादी विचारधारा की स्थायी स्थापना है।
इसलिए कहा जा सकता है कि जैसे ही 16 अक्टूबर को अमित शाह बिहार की धरती पर उतरेंगे, राजनीतिक तापमान अचानक बढ़ जाएगा। इसके बाद जब प्रधानमंत्री मोदी इसके बाद बिहार आएंगे, तो यह तापमान पूरे राज्य में लहर बन जाएगा, एक ऐसी लहर, जो शायद फिर एक बार एनडीए को सत्ता के शिखर तक पहुंचा देगी। यह उन्हें यह विश्वास दिलाएगा कि भाजपा का मिशन केवल चुनाव नहीं, बल्कि भारत का पुनर्निर्माण है। जब यह भावना जनमानस में उतरती है, तब राजनीति साधारण नहीं रहती, वह आंदोलन बन जाती है। देगी।