भारत का सब्र टूटा: क्या संयुक्त राष्ट्र से बाहर निकलना ही रास्ता है?
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भारत का सब्र टूटा: क्या संयुक्त राष्ट्र से बाहर निकलना ही रास्ता है?

सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट के लिए भारत की दशकों की कोशिशों के बाद भी दरवाज़े बंद हैं। हर बार कहा जाता है कि सुधार ज़रूरी है, विचार चल रहा है। लेकिन, कोई बदलाव नहीं होता।

The Thoughtful Indian द्वारा The Thoughtful Indian
4 October 2025
in भारत, भू-राजनीति, विश्व
“भारत का सब्र टूटा: क्या संयुक्त राष्ट्र से बाहर निकलना ही रास्ता है?”

पश्चिमी अर्थव्यवस्थाएं धीमी पड़ चुकी हैं और एशिया खासकर भारत नई ऊर्जा का केंद्र है।

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क्या भारत को संयुक्त राष्ट्र छोड़ देना चाहिए? यह सवाल अब सिर्फ़ कूटनीतिक गलियारों तक ही सीमित नहीं रहा कि क्या भारत को संयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थानों से आगे बढ़कर अपना रास्ता तय करना चाहिए? यह चर्चा अब नीति-निर्माताओं, विश्वविद्यालयों और विदेश नीति के मंचों पर भी गूंजने लगी है।

बता दें कि संयुक्त राष्ट्र का निर्माण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुआ था, जब दुनिया में ‘न्यायपूर्ण’ और ‘स्थायी’ शांति का सपना देखा गया। लेकिन वह सपना उस समय की सत्ता-संरचना के सांचे में ढला था अमेरिका, रूस (तब का सोवियत संघ), ब्रिटेन, फ्रांस और चीन को वीटो का अधिकार मिला। बाक़ी दुनिया के देशों को बस मंच और भाषण मिला। भारत, तब ब्रिटिश शासन के अधीन था, उस संरचना का हिस्सा तो बना लेकिन निर्णायक नहीं। आज़ादी के बाद भी स्थिति बहुत नहीं बदली है और यही आज की बहस की जड़ में है।

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1945 का ढांचा, 2025 की दुनिया

आज भारत 1.4 अरब लोगों का लोकतांत्रिक गणराज्य है, दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और डिजिटल-टेक्नोलॉजी का अग्रदूत है। उसने शांति और रक्षा अभियानों में सबसे ज़्यादा सैनिक भेजे, संकट में विश्व को सहयोग दिया और महामारी के समय वैक्सीन-मित्रता के जरिये मानवता का चेहरा दिखाया। लेकिन क्या इन योगदानों के बावजूद भारत को वह स्थान मिला है, जिसका वह हक़दार है? नहीं। सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट के लिए दशकों की कोशिशों के बाद भी दरवाज़े बंद हैं। हर बार कहा जाता है कि सुधार ज़रूरी है, “विचार चल रहा है। लेकिन, कोई बदलाव नहीं होता है।

ठीक यहीं से भारत की नाराज़गी नहीं, बल्कि थकान झलकती है। एक ऐसी थकान, जो उस व्यवस्था से है, जो विकासशील देशों से ज़िम्मेदारी की उम्मीद रखती है। लेकिन, उसे निर्णय लेने का हक़ नहीं देती।

सद्भाव की नीति बनाम शक्ति की राजनीति

वैसे तो भारत हमेशा से शांति और सहअस्तित्व की नीति पर चला है। उसने कभी औपनिवेशिक विस्तार नहीं किया, बल्कि सभ्यता और संस्कृति के पुल बनाए। लेकिन, वैश्विक संस्थानों में वही पुरानी औपनिवेशिक मानसिकता आज भी काम करती दिखती है, शक्ति उन्हीं के हाथ में है जिन्होंने युद्ध जीता था।

संयुक्त राष्ट्र की वैधता अब उसी सवाल पर टिक गई है, जिससे वह पैदा हुआ था। क्या यह संस्थान वाकई सबके लिए है? जब अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के देश लगातार कहते हैं कि उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं मिलता, तब जवाब सिर्फ औपचारिक बयान होता है। भारत का संदेश अब यही है कि अगर वैश्विक संस्थाएं समानता और सम्मान की गारंटी नहीं दे सकतीं, तो उन्हें सुधारना ही पड़ेगा, और अगर वे सुधार नहीं चाहतीं, तो दुनिया नए मंच बनाएगी।

भारत की वैकल्पिक राह

विश्व की दृष्टि से देखा जाए तो भारत अब अकेला नहीं है जो बदलाव की बात कर रहा है। ब्रिक्स (BRICS) जैसे मंचों पर दक्षिणी गोलार्ध की आवाज़ तेज़ हो चुकी है। अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और एशिया के देश अब वैकल्पिक विकास बैंक बना रहे हैं, जहां पश्चिमी शर्तें नहीं, बल्कि समानता का सिद्धांत है। यह वही मॉडल है, जिसे भारत दशकों से वसुधैव कुटुंबकम् की भावना में देखता आया है। यानी दुनिया एक परिवार है, लेकिन परिवार में बराबरी ज़रूरी है। कोई पिता या कोई पुत्र नहीं।

अगर भारत संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं में सुधार की मांग करता है, तो वह सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि उन देशों के लिए भी बोलता है जिन्हें दशकों तक उपेक्षित रखा गया।

संयुक्त राष्ट्र छोड़ने की चर्चा प्रतीकात्मक या वास्तविक?

कई विश्लेषकों का मानना है कि भारत का संयुक्त राष्ट्र से निकलना फिलहाल व्यावहारिक नहीं है।
क्योंकि यह मंच अभी भी मानवीय सहायता, वैश्विक मानक और शांति-रक्षा का केंद्र है। लेकिन, यह भी उतना ही सच है कि भारत अगर चाहे, तो इन लक्ष्यों के लिए अपने मंच खड़े कर सकता है, जैसे इंटरनेशनल सोलर एलायंस, जी20 और BIMSTEC के जरिए उसने किया भी है।

भारत का संयुक्त राष्ट्र छोड़ना शायद अभी नीतिगत कदम न हो, लेकिन उसका संदेश स्पष्ट है, सुधार करो, वरना अप्रासंगिक बन जाओ। यानी भारत की नाराज़गी को अलगाव नहीं, बल्कि चेतावनी समझा जाना चाहिए।

आत्मसम्मान की नई परिभाषा

भारत का तर्क केवल कूटनीति का नहीं है, बल्कि सभ्यतागत भी है। यह देश हजारों वर्षों से संवाद, विविधता और आत्मनिर्भरता की परंपरा में जिया है। जब वही सभ्यता आधुनिक विश्व में कहती है कि हमें बराबरी चाहिए, तो यह केवल राजनीतिक मांग नहीं, बल्कि ऐतिहासिक न्याय की पुकार बन जाती है। भारत की विदेश नीति में अब एक स्पष्ट आत्मविश्वास है, हम अब नियम के उपभोक्ता नहीं, निर्माता बनेंगे।

विश्व व्यवस्था में नए सूत्र

वैसे देखा जाए तो दुनिया की शक्ति-संरचना अब बदल रही है। पश्चिमी अर्थव्यवस्थाएं धीमी पड़ चुकी हैं और एशिया खासकर भारत नई ऊर्जा का केंद्र है। तकनीक, डेटा, आपूर्ति श्रृंखला, ऊर्जा सुरक्षा इन सबमें भारत अब निर्णायक भूमिका निभा रहा है। ऐसे में अगर वही भारत संयुक्त राष्ट्र की निष्क्रियता पर सवाल उठाता है, तो वह सिर्फ़ शिकायत नहीं, बल्कि चेतावनी है कि दुनिया अब एक केंद्र से नहीं, कई ध्रुवों से चलेगी।

भारत शायद तुरंत संयुक्त राष्ट्र से बाहर न जाए, लेकिन उसकी दिशा स्पष्ट है कि सुधार नहीं होगा, तो नया ढांचा बनेगा। यह वही आत्मनिर्भरता की भावना है, जिसने औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम को जन्म दिया था। आज वही आत्मा एक बार फिर जाग रही है, लेकिन इस बार कूटनीति के रूप में। भारत सिर्फ अपनी सीट नहीं मांग रहा, वह नियम बदलने की बात कर रहा है। इतिहास बताता है कि जब कोई सभ्यता नियम बदलने पर उतर आती है, तो दुनिया भी उसका अनुसरण करने लगती है।

Tags: अमेरिकाएशियाभारतविश्वसंयुक्त राष्ट्रस्थायी सीट
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