विश्व व्यापार के बदलते परिदृश्य में भारत आज एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। जब अमेरिका से लेकर चीन तक अनेक देश संरक्षणवाद की ओर लौट रहे हैं, अपने बाजारों को सीमित कर रहे हैं और ऊंचे टैरिफ लगाकर प्रतिस्पर्धा की भावना को कुचलने का प्रयास कर रहे हैं, तब भारत ने इसके उलट दिशा चुनी है, खुलापन, सहयोग और आत्मविश्वास की राह। यह वही भारत है जो अब ‘विकासशील बाजार’ नहीं, बल्कि ‘वैश्विक उत्पादक शक्ति’ बनने की आकांक्षा रखता है। इसी आत्मविश्वास का प्रमाण हैं वे मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए), जिनके जरिये भारत दुनिया के हर कोने में अपने लिए नए अवसरों के द्वार खोल रहा है।
एक अक्टूबर से भारत और यूरोप के चार देशों-आइसलैंड, स्विट्जरलैंड, नार्वे और लिस्टेंस्टिन के समूह यूरोपियन फ्री ट्रेड एसोसिएशन (एफ्टा) के बीच मुक्त व्यापार समझौता लागू हुआ। यह महज एक आर्थिक दस्तावेज नहीं, बल्कि भारत की रणनीतिक दृष्टि का उद्घोष है। यह 14वां ऐसा समझौता है, जो भारत ने किसी देश या समूह के साथ किया है, और मोदी सरकार के कार्यकाल में यह पांचवां एफटीए है। इससे पहले भारत ने मारीशस, संयुक्त अरब अमीरात, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के साथ ऐसे ही समझौते किए हैं। यह सिलसिला दर्शाता है कि भारत अब व्यापार की मेज पर केवल उपभोक्ता के रूप में नहीं बैठा है, बल्कि एक निर्णायक साझेदार के रूप में अपनी शर्तें रखता है।
क्या है मुक्त व्यापार समझौते का अर्थ
मुक्त व्यापार समझौते का अर्थ केवल शुल्क-मुक्त व्यापार नहीं होता। यह साझेदार देशों के बीच विश्वास, समानता और पारस्परिक लाभ के सूत्रों पर आधारित दीर्घकालिक आर्थिक गठबंधन है। एफ्टा देशों के साथ समझौते में भारत ने लगभग 80 से 85 प्रतिशत वस्तुओं पर सीमा शुल्क शून्य किया है, जबकि बदले में उसे 99 प्रतिशत वस्तुओं पर शुल्क-मुक्त बाजार तक पहुंच मिली है। यह एक ऐसा सौदा है जो भारत के हित में ज्यादा झुकता है, क्योंकि इस समझौते के तहत भारत ने उन संवेदनशील क्षेत्रों कृषि, डेयरी, कोयला, सोया आदि को बाहर रखा है, जहां बाहरी हस्तक्षेप से घरेलू बाजार अस्थिर हो सकता था। इससे स्पष्ट है कि भारत अब अंधाधुंध वैश्वीकरण का नहीं, बल्कि ‘सुरक्षित वैश्वीकरण’ का मॉडल प्रस्तुत कर रहा है।
सबसे बड़ा लाभ इस समझौते से भारत को निवेश के रूप में मिलेगा। एफ्टा देशों ने अगले दस वर्षों में भारत में 50 अरब डॉलर का निवेश करने की प्रतिबद्धता जताई है और अगले पांच वर्षों में इतने ही अतिरिक्त निवेश की संभावना है। यह निवेश केवल धनराशि नहीं, बल्कि भारत के विनिर्माण, हरित ऊर्जा, फार्मा, फूड प्रोसेसिंग और उच्च गुणवत्ता वाली मशीनरी जैसे क्षेत्रों में तकनीक और दक्षता का प्रवाह लेकर आएगा। इससे न केवल भारत का आयात कम होगा बल्कि मेक इन इंडिया को नयी गति मिलेगी। अनुमान है कि अगले पंद्रह वर्षों में इन समझौतों से देश में लगभग दस लाख नई नौकरियों का सृजन होगा। यह वही आर्थिक राष्ट्रवाद है, जिसमें आत्मनिर्भरता और वैश्विक सहभागिता दोनों साथ-साथ चलते हैं।
भारत ने एफ्टा के साथ ऐसा पहला समझौता किया है, जिसमें बाजार तक पहुंच निवेश से जोड़ी गई है। यानी यह सिर्फ खरीद-बिक्री का सौदा नहीं, बल्कि दीर्घकालिक साझेदारी की रूपरेखा है। यही दृष्टि भारत को उन देशों से अलग करती है, जो केवल अपने उत्पादों को थोपने के लिए एफटीए करते हैं। वर्ष 2024-25 में भारत ने एफ्टा देशों को लगभग दो अरब डॉलर का निर्यात किया और 22 अरब डॉलर का आयात। फिलहाल भारत इस व्यापार में घाटे में है, लेकिन नए समझौते के बाद यह असंतुलन भारत के पक्ष में झुकने की पूरी संभावना है, क्योंकि अब यूरोप के बड़े बाजारों में भारत के टेक्सटाइल, फार्मा, डिजिटल सेवा और वित्तीय क्षेत्रों की सहज पहुंच सुनिश्चित हो चुकी है।
वास्तव में, भारत की यह रणनीति अमेरिकी दबाव और ट्रंप टैरिफ के बीच भी अपने आर्थिक स्वाभिमान को बनाए रखने की मिसाल है। जब अमेरिका ने भारत के निर्यात पर पचास प्रतिशत तक का टैरिफ बढ़ाया, तब बहुतों को लगा कि भारतीय उत्पाद वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा खो देंगे। लेकिन, भारत ने इसका जवाब टकराव से नहीं, नीति से दिया। उसने यूरोप, रूस, मध्य एशिया और अफ्रीका के साथ नए बाजारों में कदम रखे और वहीं से अपने निर्यात को नई गति दी। अगस्त और सितंबर में भारत का गैर-अमेरिकी निर्यात बढ़ा, जो इस नीति की सफलता का संकेत है। यही कारण है कि आज वही ट्रंप, जो कभी भारत को डेड इकोनॉमी कहते थे, अब भारत के साथ व्यापार समझौते की बात कर रहे हैं। यह बदलाव केवल आर्थिक नहीं, बल्कि कूटनीतिक विजय भी है। यह संदेश है कि भारत किसी दबाव में नहीं झुकता, बल्कि अपनी शर्तों पर साझेदारी करता है।
भारत अब कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, न्यूजीलैंड, इजरायल और खाड़ी देशों के साथ भी व्यापार समझौते की दिशा में आगे बढ़ रहा है। इस श्रृंखला का अगला महत्वपूर्ण पड़ाव यूरोपीय यूनियन के साथ संभावित एफटीए है, जिस पर वर्ष के अंत तक सहमति बनने की संभावना है। यदि यह होता है तो भारत यूरोप के सबसे बड़े बाजार में एक प्रभावशाली आर्थिक उपस्थिति दर्ज करेगा।
हालांकि, यह भी सत्य है कि एफटीए तभी प्रभावी होते हैं जब उनका लाभ सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों तक पहुंचे। भारत को अपने निर्यातकों को न केवल बाजार की जानकारी देनी होगी, बल्कि उन्हें गुणवत्ता, मानकीकरण और व्यापार सुविधा के क्षेत्र में सशक्त बनाना होगा। यह जरूरी है कि सरकारी एजेंसियां गैर-शुल्क बाधाओं, प्रमाणन प्रक्रियाओं और तकनीकी आवश्यकताओं पर छोटे कारोबारियों को स्पष्ट मार्गदर्शन दें। यदि भारत इन सुधारों को साथ लेकर चलता है तो एफटीए केवल कागजी समझौते नहीं रहेंगे, बल्कि वास्तविक परिवर्तन के उपकरण बनेंगे।
आज का भारत उस दौर में पहुंच चुका है, जहां वह व्यापार को केवल लाभ-हानि के तराजू में नहीं तौलता, बल्कि उसे राष्ट्रीय शक्ति का अंग मानता है। मुक्त व्यापार समझौतों के जरिये भारत यह संदेश दे रहा है कि आत्मनिर्भरता का अर्थ आत्मसंकोच नहीं, बल्कि आत्मविश्वास है। यह वही आत्मविश्वास है, जो एक ओर ट्रंप टैरिफ जैसी चुनौतियों से निपटता है और दूसरी ओर दुनिया को बताता है कि भारत अब वैश्विक अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करने को तैयार है।
अंततः, यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत के एफटीए केवल आर्थिक दस्तावेज नहीं, बल्कि नए युग के राष्ट्रीय घोषणापत्र हैं। घोषणापत्र इस विश्वास का कि भारतीय उद्यमी अब केवल आयातित अवसरों के मोहताज नहीं, बल्कि विश्व बाजार के निर्माता हैं। यदि इन समझौतों को सही दिशा में लागू किया गया, तो आने वाले वर्षों में भारत केवल व्यापारिक साझेदार नहीं, बल्कि वैश्विक आर्थिक व्यवस्था का निर्णायक स्तंभ बनकर उभरेगा। यह भारत के आर्थिक राष्ट्रवाद का नया अध्याय है। आत्मनिर्भरता से आत्मविश्वास तक की यात्रा का सशक्त प्रतीक।