अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के मंच पर एक बार फिर पाकिस्तान ने वही किया, जो वह दशकों से करता आया है। आतंक को पालने के बाद शांति का दिखावा करना, फिर जब अपनी ही बनाई आग में जलने लगे तो उसका दोष भारत पर मढ़ देना। तुर्की और क़तर की मध्यस्थता में इस्तांबुल में आयोजित पाकिस्तान–तालिबान शांति वार्ता का हालिया पतन इसी दोहरेपन का जीवंत उदाहरण बन गया है। पाकिस्तान ने इस बैठक में पहली बार स्वीकार किया कि वह अमेरिकी ड्रोन अभियानों को अपनी ज़मीन से चलाने की अनुमति देता है। यह स्वीकारोक्ति उस इस्लामी गणराज्य की उस लंबे समय से चली आ रही नीति को पूरी तरह उघाड़ देती है, जो खुद को संप्रभुता का रक्षक बताता है, लेकिन गुप्त रूप से वाशिंगटन की रणनीति का सहयोगी बना रहता है।
यह वार्ता, जो दक्षिण एशिया में एक दुर्लभ शांति-प्रयास के रूप में देखी जा रही थी, अब पूरी तरह ढह चुकी है। अफ़ग़ान प्रतिनिधिमंडल, जो पहले ही पाकिस्तान के दोहरी चालों से सावधान था, ने इस खुलासे को विश्वासघात बताया। उन्होंने पाकिस्तान पर आरोप लगाया कि उसने न केवल अफ़ग़ानिस्तान की संप्रभुता को कमजोर किया है, बल्कि अमेरिकी एजेंडे को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल कर क्षेत्र को अस्थिर किया है। जब अफ़ग़ान प्रतिनिधियों ने पाकिस्तान से यह गारंटी मांगी कि वह भविष्य में अपनी ज़मीन को अमेरिकी ड्रोन हमलों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देगा, तो पाकिस्तानी दल ने पहले सहमति जताई। मगर कुछ ही मिनटों बाद रावलपिंडी से आया एक आपात फोन कॉल सब कुछ पलट गया, कथित तौर पर सेना मुख्यालय से आदेश मिला कि इस विषय पर कोई वचन नहीं देना है।
यही वह क्षण था जब वार्ता की हवा निकल गई। क़तर और तुर्की के मध्यस्थ भी चकित रह गए कि पाकिस्तान के प्रतिनिधि इतने अस्थिर, अभद्र और उग्र कैसे हो सकते हैं। उन्होंने वार्ता को साबोटाज बाय डिज़ाइन यानी जानबूझकर विफल करने की चाल बताया। पाकिस्तानी प्रतिनिधि दल की अगुवाई आईएसआई के मेजर जनरल शाहाब असलम कर रहे थे, वही अधिकारी जिनका नाम पहले कश्मीर के पहलगाम हमले के संचालन में भी जुड़ा था, जिसमें 26 निर्दोष नागरिकों की जान गई थी।
असलम ने अफ़ग़ान प्रतिनिधियों से मांग की कि वे पाकिस्तान के खिलाफ काम कर रहे सभी आतंकी गुटों खासकर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) को नियंत्रण में लें। जवाब में अफ़ग़ानों ने बिल्कुल सटीक उत्तर दिया टीटीपी पाकिस्तानी नागरिक हैं, अफ़ग़ान नहीं। अपने नागरिकों पर नियंत्रण आपकी जिम्मेदारी है, हमारी नहीं। इस एक वाक्य ने पाकिस्तान की दशकों पुरानी नीति की पोल खोल कर रख दी।
दरअसल, टीटीपी वही संगठन है जिसे कभी पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसी आईएसआई ने पाला-पोसा था। अफ़ग़ानिस्तान में भारत के प्रभाव को कम करने के लिए उसने इन्हें रणनीतिक संपत्ति माना। लेकिन जैसे-जैसे तालिबान ने काबुल में सत्ता संभाली, इन तथाकथित संपत्तियों ने अपने मालिकों के खिलाफ ही हथियार उठा लिए। अब वही पाकिस्तान जो कभी आतंकियों का संरक्षक था, उन्हीं के हमलों से त्रस्त है।
टूट चुका है पाकिस्तानी सेना का मनोबल
पाकिस्तान की सेना, विशेषकर जनरल असीम मुनीर के नेतृत्व में, आज गहरे दबाव में है। पश्चिमी सीमांत पर तालिबान के हमले बढ़ रहे हैं, उत्तर वज़ीरिस्तान और कुर्रम में पाक सैनिकों को भारी नुकसान हुआ है। उधर, भारत के साथ सीमा पर पाकिस्तान की उकसावनी का जवाब भारतीय सेना ने ऑपरेशन सिंदूर जैसी सटीक कार्रवाईयों से दिया, जिसने उसके अग्रिम ठिकानों और आतंक-लॉन्चपैड्स को बुरी तरह ध्वस्त किया। इन दोहरी विफलताओं पूर्व और पश्चिम दोनों मोर्चों पर पराजय ने पाकिस्तानी सेना के आत्मविश्वास को तोड़ दिया है। ऐसे में ब्लेम इंडिया की नीति एक बार फिर उनका आसान बहाना बन गई है।
यह प्रवृत्ति कोई नई नहीं। हर बार जब पाकिस्तान भीतर से सड़ने लगता है, वह बाहरी दुश्मन गढ़ता है और भारत उसके लिए सबसे सुविधाजनक लक्ष्य होता है। चाहे वह बलूचिस्तान में विद्रोह हो, सिंध में आर्थिक ठहराव या तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान जैसे कट्टरपंथी संगठनों की हिंसा। हर समस्या की जड़ में इस्लामाबाद भारत को देखता है। यही उसकी आत्मवंचना है, वही बीमारी जिसने उसके लोकतंत्र, अर्थव्यवस्था और समाज तीनों को खोखला कर दिया है।
कैसे फेल्ड स्टेट बना पाकिस्तान
इस्तांबुल में हुई वार्ता में पाकिस्तान का यह चेहरा पूरी तरह उजागर हुआ, वह चेहरा जो एक ओर अमेरिका को ‘आतंक के खिलाफ साझेदार’ दिखता है, तो दूसरी ओर उन्हीं आतंकियों का वित्तपोषक भी है। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के अधिकारी वहां लगभग लड़खड़ाते दिखाई दिए। उनकी हर दलील में या तो झूठ था या आत्मविरोध। जब क़तर के राजदूत ने पूछा कि क्या अमेरिका के ड्रोन आपके एयरबेस से उड़ते हैं, तो मेजर जनरल असलम का उत्तर था हमारे पास भी अमेरिका से समझौता है। यह स्वीकारोक्ति केवल एक बयान नहीं थी, यह पाकिस्तान की कूटनीतिक नैतिकता की मृत्यु-पत्र थी।
अब सोचिए, एक देश जो दशकों से अपने नागरिकों को यह झूठ बेचता रहा कि हम किसी विदेशी ताकत को अपनी ज़मीन का इस्तेमाल नहीं करने देंगे, वही देश अब खुद मान रहा है कि अमेरिकी ड्रोन उसकी सरज़मीं से उड़ते हैं और पड़ोसी देशों की संप्रभुता का उल्लंघन करते हैं। यही तो वह दोहरापन है, जिसने पाकिस्तान को फेल्ड स्टेट बना दिया है।
भारत के लिए इस घटनाक्रम का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि दुनिया अब पाकिस्तान की इस ढोंग-नीति को साफ़-साफ़ देख रही है। तालिबान का रुख जो कभी पाकिस्तान का अनुचर माना जाता था, अब स्पष्ट रूप से बदल चुका है। अफ़ग़ान प्रतिनिधियों ने दो टूक कहा कि वे पाकिस्तान की भीतर की समस्याओं को अपने सिर नहीं लेंगे। यह वही तालिबान है जिसे पाकिस्तान ने कभी अपनी रणनीतिक गहराई कहा था, जो अब कह रहा है कि आपकी लड़ाई आपकी है। यह पाकिस्तान की सबसे बड़ी भू-राजनीतिक हार है, और भारत की सबसे बड़ी कूटनीतिक सफलता बिना एक भी गोली चलाए।
आज पाकिस्तान जिस दुर्दशा में है, वह उसकी अपनी बनाई हुई है। अमेरिका के लिए वह महज़ एक अस्थायी किराए का ठिकाना है, चीन के लिए एक ऋणग्रस्त ग्राहक और अफ़ग़ानिस्तान के लिए एक अविश्वसनीय पड़ोसी। रही बात भारत की तो भारत अब न तो उसके आरोपों से विचलित होता है, न ही उसके छलावे में आता है। मोदी युग का भारत सीमा पर भी आत्मविश्वासी है, और कूटनीति में भी आक्रामक। पाकिस्तान के लिए यह नई वास्तविकता सबसे असहज है।
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अब उसकी कश्मीर कार्ड की चमक भी फीकी पड़ चुकी है। जब वह तालिबान से लेकर तुर्की तक सबके बीच उपहास का पात्र बन गया, तब उसने अपनी पुरानी लय पकड़ी भारत हमें अस्थिर कर रहा है। लेकिन इस बार कोई भी देश उसकी कहानी पर विश्वास नहीं कर रहा। अमेरिका जानता है कि पाकिस्तान के साथ कोई भी समझौता दो दिन से ज़्यादा टिकाऊ नहीं। चीन को भी एहसास है कि जिस देश का शासन खुद अपने आतंकियों से सुरक्षित नहीं, वह सीपेक कॉरिडोर की सुरक्षा कैसे करेगा।
भारत के लिए वार्ता टूटने का मतलब
इस्तांबुल वार्ता की विफलता दरअसल पाकिस्तान के लिए सिर्फ कूटनीतिक हार नहीं, बल्कि मानसिक और वैचारिक दिवालियापन का प्रतीक है। वह आज भी खुद को इस्लामी दुनिया का नेता मानता है, लेकिन उसके भीतर इतनी अस्थिरता है कि न वह अपने नागरिकों को रोटी दे पा रहा है, न अपने सैनिकों को सुरक्षा। उसके प्रधानमंत्री बदलते रहते हैं, लेकिन नीतियां वही रहती हैं झूठ, दोहरापन और भारत-द्वेष।
एक राष्ट्रवादी दृष्टि से देखें तो भारत को इस स्थिति से तीन महत्वपूर्ण सबक मिलते हैं। पहला—दुनिया में आज कोई भी देश आतंक को राजनीतिक औज़ार बनाकर टिक नहीं सकता, पाकिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। दूसरा कूटनीतिक स्थायित्व केवल शब्दों से नहीं, विश्वसनीयता से बनता है, पाकिस्तान ने उसे खो दिया है। और तीसरा भारत को अपनी नीति में आत्मविश्वास बनाए रखना होगा, क्योंकि अब अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था भारत को स्थिर शक्ति के रूप में देखती है, जबकि पाकिस्तान को एक असफल प्रयोग के रूप में।
इस्तांबुल की इस विफलता ने एक सच्चाई को फिर उजागर किया है, पाकिस्तान के पास अब न कोई रणनीति बची है, न कोई साख। जो कभी तालिबान को इस्लामी भाइयों कहकर इस्तेमाल करता था, वही आज उन्हीं से सुरक्षा की भीख मांग रहा है। जिसने भारत को हर मोर्चे पर नुकसान पहुंचाने की कसम खाई थी, वही आज अपने घर में उठती आग बुझाने में असमर्थ है।
भारत को इस पर चिंता नहीं, बल्कि सतर्क गर्व होना चाहिए कि दक्षिण एशिया का शक्ति-संतुलन अब स्थायी रूप से बदल चुका है। काबुल से इस्तांबुल तक अब यह स्पष्ट है कि नई दिल्ली की विदेश नीति स्थिरता, विकास और संप्रभुता पर आधारित है, जबकि इस्लामाबाद की नीति भ्रम, छल और आत्मविनाश पर।
आख़िर में, इस्तांबुल की वह टूटी हुई मेज़ अब पाकिस्तान की टूटी हुई कूटनीति का प्रतीक बन गई है। जब एक देश झूठ को सच की तरह बेचता है, जब वह अपने ही नागरिकों के आतंक से डरने लगता है, और जब उसकी सेना बाहरी मालिकों की टेलीफोन कॉल पर अपनी नीतियां बदलती है तो वह देश इस्लाम का किला नहीं रह जाता, बल्कि एक चेतावनी बन जाता है कि कैसे राष्ट्र स्वयं को नष्ट करते हैं। पाकिस्तान अब वही चेतावनी है। और भारत अपने विवेक, संयम और शक्ति से उस चेतावनी के ठीक उलट दिशा में बढ़ रहा है।




























