1947 में ब्रिटिश भारत के विभाजन ने एक ऐसे देश को जन्म दिया, जिसके दो हिस्से थे, और दोनों हिस्सों के बीच हज़ार मील से भी ज्यादा की दूरी थी। पश्चिम पाकिस्तान (आज का पाकिस्तान) और पूर्वी बंगाल (बाद में पूर्वी पाकिस्तान, अब बांग्लादेश)। दोनों हिस्सों में भौगोलिक ही नहीं, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भाषाई विभिन्नता भी थी। इस असमानता को पाकिस्तान की पंजाब केंद्रित राजनीति ने एक ऐसे प्रेशर प्वाइंट तक पहुंचा दिया, जिससे होने वाले विस्फोट ने पाकिस्तान की ही नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की दिशा तय कर दी।
शुरुआत से ही पश्चिम पाकिस्तान के नेताओं ने मज़हब के आधार पर बने इस देश को एक ऐसे इस्लामी शासन और पहचान देने की कोशिश की, जिसमें मुस्लिम ब्रदरहुड और इस्लामी एकरूपता की आड़ में पश्चिमी पाकिस्तान ख़ासकर पंजाब की सैन्य और नौकरशाही का दबदबा था।
पूर्वी बंगाल का नाम बदलकर पूर्वी पाकिस्तान रखना और वन यूनिट नीति लागू करना सिर्फ़ प्रशासनिक फैसले नहीं थे, बल्कि एक सोची–समझी राजनीतिक और सांस्कृतिक दमन की रणनीति थी।
पाकिस्तान के इन दोनों हिस्सों में जो कुछ घट रहा था, उसमें भारत की अपनी चिंताएं थीं। और इस क्षेत्र में भारत की भूमिका ह्यूमन क्राइसिस से शुरू होकर एक निर्णायक रणनीतिक हस्तक्षेप तक जा पहुँची — जिसने अंततः 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी की राह बनाई।
पाकिस्तान की ‘वन यूनिट’ नीति — ‘पूर्वी बंगाल’ की पहचान मिटाने की चाल
1955 में पाकिस्तान ने पूर्वी बंगाल का नाम बदलकर “पूर्वी पाकिस्तान” कर दिया।
इसका उद्देश्य था ‘बंगाल’ नाम से जुड़ी उसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान को मिटा देना। इसी के साथ प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा ने वन यूनिट योजना लागू कर दी। इसके तहत पश्चिम के चार प्रांतों को एक इकाई में मिला दिया गया ताकि पूर्वी बंगाल की आबादी के वर्चस्व को संतुलित करके दिखाया जा सके।
लेकिन इसका नतीजा क्या हुआ?
दरअसल इस बदलाव ने पाकिस्तान के अंदर पंजाबी वर्चस्व को संस्थागत रूप से स्थापित कर दिया। जनसंख्या ज़्यादा होने के बावजूद पूर्वी बंगाल को नौकरशाही, सेना और डेवलपमेंट के रूप में बहुत कम हिस्सा मिला।
आर्थिक रूप से भी बांग्लादेश का जमकर शोषण किया गया। ज़्यादातर बजट पश्चिमी पाकिस्तान को दिया जाता रहा, जबकि पूर्वी बंगाल की अर्थव्यवस्था लगातार कमजोर होती गई।
लगातार लागू होने वाले गवर्नर रूल, असेबंली का भंग होना और विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी ने जल्दी ही पाकिस्तान के ‘संघीय ढाँचे’ की असलियत उजागर कर दी।
1960 का दशक खत्म होते होते ये असमानता पूर्वी बंगाल में एक संगठित आंदोलन में बदल चुकी थी। पूर्वी बंगाल की स्वायत्तता के लिए चलाए जाने वाले इस आंदोलन का नेतृत्व शेख मुजीबुर्रहमान और उनकी पार्टी आवामी लीग कर रही थी।
बांग्लादेश में दमन और भारत का हस्तक्षेप
जब पाकिस्तान की भीतरी दरारें गहरी हो रही थीं, तब भारत ने न सिर्फ लाखों जरूरतमंदों को शरण दी, बल्कि दूसरी तरफ़ अहम रणनीतिक खिलाड़ी बनकर भी सामने आया।
मार्च 1971 में पाकिस्तान ने पूर्वी बंगाल में ऑपरेशन सर्चलाइट के नाम से एक खूनी दमन अभियान शुरू किया। इस दौरान हज़ारों निर्दोष बंगाली नागरिकों, छात्रों और बुद्धिजीवियों की हत्याएं की गईं।
पाकिस्तानी सेना के दमन से बचने के लिए क़रीब एक करोड़ शरणार्थी भारत के सीमावर्ती राज्यों — पश्चिम बंगाल, असम और त्रिपुरा में भागकर पहुँच गए।
भारत के लिए ये सिर्फ मानवीय नहीं, बल्कि सुरक्षा का संकट भी था।
शुरुआत में भारत ने राहत शिविर बनाए, अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित किया और शरणार्थियों की मदद की।
लेकिन जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि जब तक पूर्वी बंगाल में पाकिस्तान का सैन्य उपस्थिति रहेगी, तब तक यह संकट खत्म नहीं होगा।
भारत ने मुक्ति बाहिनी को प्रशिक्षण, हथियार और अन्य सहायता देनी शुरू कर दी।
भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों ने ज़मीनी स्तर पर मुक्ति वाहिनी को सहयोग दिया, जबकि मीडिया के ज़रिए भी पाकिस्तान और उसकी क्रूरता को पूरी दुनिया के सामने उजागर किया गया।
पाकिस्तान का हवाई हमला और 71 के युद्ध की शुरुआत
इन्ही स्थितियों के बीच 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने भारत के हवाई ठिकानों पर हमला कर दिया और इसी के साथ भारत–पाकिस्तान के बीच जंग की शुरुआत हो गई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व और जनरल सैम मानेकशॉ की अगुवाई में भारत ने महज़ 13 दिनों के अंदर पाकिस्तान के ख़िलाफ़ एक निर्णायक जीत हासिल की।
आख़िरकार 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने ढाका में जनरल जे.एस अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण किया और बांग्लादेश का जन्म हुआ।
यह भारत की मानवीय भावना और रणनीतिक दूरदर्शिता दोनों का उदाहरण था।
पाकिस्तान का पतन — केंद्रीकरण की विफलता की कहानी
पूर्वी बंगाल की त्रासदी इस बात की चेतावनी है कि जब कोई राज्य केंद्रीकरण और दमन पर चलता है, तो उसका पतन तय है।
भाषा और संस्कृति के दमन ने बंगालियों में विद्रोह की भावना को जन्म दिया।
उर्दू थोपने, वन यूनिट नीति और राजनीतिक शोषण ने ‘इस्लामी एकता’ के नाम पर विभाजन को और गहरा कर दिया।
पाकिस्तान के नेताओं ने विविधता को स्वीकार करने के बजाय बल प्रयोग का रास्ता चुना — जिसकी क़ीमत उन्होने विभाजित पाकिस्तान के रूप में चुकाई ।
भारत की रणनीति और स्थायी प्रभाव
पूर्वी बंगाल के लिए भारत की भूमिका केवल ‘नैतिक समर्थन’ तक ही सीमित नहीं था, बल्कि रणनीतिक रूप से उठाया गया एक समझदारी भरा कदम भी था।
एक ओर पाकिस्तान की बर्बरता और शरणार्थी संकट से भारत चिंतित था, तो वहीं दूसरी ओर उसे यह अवसर भी दिखा कि इसके ज़रिए अपने दुश्मन को स्थायी रूप से बांटा और कमजोर किया जा सकता है।
बांग्लादेश के निर्माण के बाद भारत ने कम से कम अपना पूरब का मोर्चा सुरक्षित कर लिया।
हालांकि बड़ी और निर्णायक जीत के बावजूद भारत ने संयम दिखाया— युद्ध के बाद उसने अपनी सेनाएँ वापस बुला लीं और सत्ता बांग्लादेश की लोकतांत्रिक सरकार को सौंप दी।
भारत का यह आचरण उसे एक “मुक्तिदाता” के रूप में पहचान दिलाता है, न कि एक “कब्ज़ा करने वाली शक्ति” के रूप में।
इस जीत ने भारत की अंतरराष्ट्रीय साख बढ़ाई और यह साबित किया कि अगर नीयत अच्छी हो तो सैन्य कार्रवाई भी नैतिक उद्देश्य के साथ की जा सकती है।
पहचान, शक्ति और राजनीति की कहानी
पूर्वी बंगाल की आज़ादी का इतिहास– दक्षिण एशिया की पहचान, शक्ति और राजनीति के जटिल संबंधों को उजागर करता है।
पाकिस्तान ने जब थोपी हुई ‘एकता‘ के नाम पर विविधता को कुचलने की कोशिश की, तो उसने अपने ही देश के भीतर विभाजन के बीज बो दिए। इसके विपरीत, भारत ने नैतिक दृढ़ता और रणनीतिक स्पष्टता से एक मानवीय संकट को अपने हित में ऐतिहासिक परिवर्तन में बदल दिया।
अरित्र बनर्जी रक्षा, विदेश नीति और एयरोस्पेस मामलों के पत्रकार हैं और ‘The Indian Navy @75: Reminiscing the Voyage’ के सह–लेखक हैं। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय संबंधों और रणनीति में मास्टर डिग्री (O.P. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी) और सामरिक संचार में प्रोफेशनल एजुकेशन (किंग्स कॉलेज, लंदन से) प्राप्त की है।)