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तेजस्वी की दो सीटों से चुनाव लड़ने की तैयारी, ये राजद की हताशा नहीं तो और क्या है?

तेजस्वी यादव दो नहीं दस सीटों से चुनाव लड़ें चाहे जीतें या हारें, इस चुनाव ने यह साफ कर दिया है कि बिहार की राजनीति अब निर्णायक मोड़ पर है।

TFI Desk द्वारा TFI Desk
9 October 2025
in चर्चित, मत, राजनीति, समीक्षा
तेजस्वी की दो सीटों से चुनाव लड़ने की तैयारी, ये राजद की हताशा नहीं तो और क्या है?

तेजस्वी यादव की दो सीटों से उम्मीदवारी इस बात का प्रतीक है कि विपक्ष अब विश्वास की नहीं, विकल्प की तलाश में है।

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बिहार की राजनीति एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर खड़ी है। राजद नेता और लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव की दो विधानसभा सीटों से चुनाव लड़ने की संभावना ने यह स्पष्ट संकेत दे दिया है कि लालू परिवार अब राजनीतिक आत्मविश्वास नहीं, बल्कि असुरक्षा के दौर में है। जब कोई नेता अपने ही पारंपरिक गढ़ पर भरोसा खो देता है, तो यह न केवल उसकी राजनीतिक रणनीति पर सवाल उठाता है बल्कि उसके संगठन की जमीनी सच्चाई को भी उजागर कर देता है। राघोपुर, जो कभी लालू-राबड़ी की अजेय धरती मानी जाती थी, अब खतरे में महसूस की जा रही है और यह खतरा किसी और से नहीं, बल्कि जनता के बदलते मिजाज से उपजा है।

तेजस्वी यादव के इस कदम को उनके समर्थक ‘रणनीतिक विस्तार’ कह सकते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि यह निर्णय आत्मविश्वास नहीं बल्कि भय का प्रतिबिंब है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि प्रशांत किशोर के राघोपुर से चुनाव लड़ने की संभावना ने तेजस्वी को हिला दिया है। जन सुराज अभियान के तहत पीके ने जिस तरह गांव-गांव संवाद किया है, उसने पारंपरिक जातीय राजनीति की जड़ों को हिला कर रख दिया है। लालू की विरासत का जो किला कभी अजेय माना जाता था, अब उसकी दीवारों में दरारें दिखने लगी हैं। तेजस्वी को अंदेशा है कि अगर इस बार जनता ने परिवर्तन का रुख किया, तो राघोपुर का ताज भी हाथ से निकल सकता है।

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यहीं से राजद की हताशा शुरू होती है। एक समय जो पार्टी गरीबों की आवाज़ कहलाती थी, आज अपने ही गढ़ को बचाने के लिए दूसरी सीट की शरण ले रही है। यह उसी पार्टी की कहानी है, जिसने बिहार की राजनीति में जातीय समीकरणों को सत्ता का सूत्र बना दिया था, लेकिन आज वही समीकरण जनता के लिए बोझ बन चुके हैं। 2025 का बिहार अब 1990 का बिहार नहीं रहा। युवा मतदाता अब जाति के नाम पर नौकरी नहीं, बल्कि काम के नाम पर सरकार चाहते हैं। यही वह नया सामाजिक मानस है, जो भाजपा के राष्ट्रवादी नैरेटिव को मजबूती दे रहा है।

भाजपा ने मतदाताओं के इस मानस को बखूबी पहचाना है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने बिहार में राष्ट्रवाद को केवल विचार नहीं, बल्कि जन-भावना बना दिया है। जहां राजद अपने वंश की राजनीति में उलझा है, वहीं भाजपा ने बिहार के हर वर्ग और क्षेत्र में यह संदेश पहुंचाया है कि विकास, स्थिरता और राष्ट्रीय गौरव ही अब नई राजनीति के स्तंभ हैं। तेजस्वी की दो सीटों से लड़ने की तैयारी इसी सच्चाई की पुष्टि है कि अब जनता भावनाओं से नहीं, परिणामों से निर्णय ले रही है।

महागठबंधन का भ्रम अब टूट चुका है। कांग्रेस नेतृत्व में दम नहीं है और राजद का आधार भी खोखला होता जा रहा है। तेजस्वी यादव की हताशा इस बात का प्रमाण है कि महागठबंधन की नाव डगमगाने लगी है। जिन युवाओं को उन्होंने कभी ‘नौकरी’ का सपना दिखाया था, वे अब खुद सवाल कर रहे हैं कि इतने वर्षों में बदलाव कहां है? भाजपा इस सवाल का उत्तर ठोस उपलब्धियों में देती है, चाहे वह केंद्र की योजनाओं का सीधा लाभ हो, आधारभूत ढांचे का विस्तार हो या बिहार को विकास की मुख्यधारा में जोड़ने का प्रयास। सबमें वही बिहार के साथ है।

तेजस्वी यादव के दो सीटों से लड़ने की खबर भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से वरदान साबित हुई है। भाजपा ने तुरंत इसे राजद की कमजोरी के प्रतीक के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया है। पार्टी का संदेश साफ है, जो नेता अपने ही गढ़ से भागे, वह बिहार का भविष्य कैसे संभालेगा?” यह सवाल जनता के दिल में गूंजने लगा है। इन सबके इतर, जब जनता सवाल पूछने लगती है, तो सत्ता की दीवारें खुद ही कमजोर हो जाती हैं।

यह चुनाव अब केवल सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि राजनीतिक युग परिवर्तन का संकेत देता है। बिहार के लोग अब उस दौर से आगे बढ़ चुके हैं, जब जाति और परिवार राजनीति का आधार हुआ करते थे। अब वे ऐसे नेतृत्व की तलाश में है, जो देश के हितों को राज्य की सीमाओं से जोड़ सके। भाजपा ने जनता के इसी भाव को राष्ट्रीय एकता और विकास के एजेंडे में पिरो दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार कहा है कि बिहार का विकास भारत के विकास की अनिवार्य शर्त है। यही राष्ट्रवादी दृष्टिकोण भाजपा को बाकी दलों से अलग करता है।

राजद के लिए यह चुनाव अस्तित्व की लड़ाई है। लालू यादव की करिश्माई राजनीति अब इतिहास बन चुकी है और तेजस्वी का नया चेहरा जनता को भरोसेमंद नहीं लग रहा ​है। जिस महागठबंधन ने 2020 में उम्मीद जगाई थी, वही अब विघटन के कगार पर खड़ा है। कांग्रेस और राजद के विधायक टूट रहे हैं, वामपंथी दल सीमित प्रभाव में सिमट चुके हैं और जनता यह समझ चुकी है कि विपक्ष केवल ‘विरोध की राजनीति’ करता है, विकल्प की राजनीति नहीं। भाजपा ने इस खालीपन को भरा है, वह खुद को ‘राष्ट्रीय विकल्प’ नहीं, बल्कि ‘एकमात्र विकल्प’ के रूप में प्रस्तुत कर रही है।

तेजस्वी यादव का दो सीटों से चुनाव लड़ना इस बात का इशारा है कि राजद अब वैचारिक रूप से नहीं, सर्वाइवल मोड में चल रही है। उनका यह कदम केवल चुनावी रणनीति नहीं, बल्कि उस असुरक्षा का प्रमाण है जो तब जन्म लेती है जब कोई दल जनता का विश्वास खो देता है। दूसरी ओर भाजपा ने इस असुरक्षा को अपने नैरेटिव का हथियार बना लिया है। पार्टी का प्रचार-तंत्र अब यह संदेश दे रहा है कि जहां राजद भविष्य से भाग रही है, वहीं भाजपा आत्मविश्वास के साथ भविष्य की ओर बढ़ रही है।

राष्ट्रवाद इस पूरे राजनीतिक परिदृश्य का सबसे बड़ा निर्णायक तत्व बन गया है। भाजपा जानती है कि बिहार की जनता आज खुद को केव “बिहारी” नहीं बल्कि भारतीय के रूप में देखना चाहती है। यही पहचान राजनीति का नया आधार बन रही है। भाजपा ने इसी भावना को विकास, सुरक्षा और सम्मान के ताने-बाने में बुना है। जबकि राजद अब भी अतीत के झगड़ों, जातीय समीकरणों और पारिवारिक चेहरों के सहारे जनता को रिझाने की कोशिश कर रही है, जो अब असरदार नहीं रही।

यह चुनाव तय करेगा कि बिहार अतीत की राजनीति में फंसा रहेगा या भारत की राष्ट्रवादी धारा के साथ आगे बढ़ेगा। तेजस्वी यादव की दो सीटों से उम्मीदवारी इस बात का प्रतीक है कि विपक्ष अब विश्वास की नहीं, विकल्प की तलाश में है। यही नहीं, जब विपक्ष का नेतृत्व खुद को बचाने के लिए सीटें बदलता है, तब जनता समझ जाती है कि परिवर्तन का समय आ गया है। यही वह मूल है, जो राजद की हताशा को जनता के सामने रखती है।

भाजपा के लिए यह चुनाव एक अवसर से कहीं अधिक है। यह एक मिशन है। प्रधानमंत्री मोदी के सबका साथ, सबका विकास के मंत्र के साथ पार्टी यह साबित करना चाहती है कि बिहार अब गरीबी, पिछड़ेपन और जातिवाद की पहचान से मुक्त होकर राष्ट्र की मुख्यधारा में अग्रणी भूमिका निभा सकता है। राजद की हताशा और भाजपा की आत्मविश्वासपूर्ण रणनीति के बीच यही सबसे बड़ा फर्क है, एक पार्टी अपने अतीत को बचाने में लगी है, जबकि दूसरी अपने भविष्य को गढ़ रही है।

तेजस्वी यादव दो सीटों से चाहे जीतें या हारें, इस चुनाव ने यह साफ कर दिया है कि बिहार की राजनीति अब निर्णायक मोड़ पर है। जनता अब उन नारों से आगे बढ़ चुकी है जो खाली वादों पर टिके थे। अब वह उसी के साथ है जो देश को एक सूत्र में जोड़ सके, जो विकास को राष्ट्रवाद का हिस्सा मानता हो, और जो बिहार को भारत के भविष्य की धुरी बनाना चाहता हो। इस दृष्टि से देखा जाए तो तेजस्वी का “डबल सीट प्रयोग” राजद की हताशा का प्रतीक है—और भाजपा की यह स्थिरता, यही बिहार के आने वाले कल की विजयगाथा का आरंभ है।

Tags: Assembly ElectionsBiharBihar PoliticsBJPCongressLalu PrasadRJDTejashwi Yadavकांग्रेसतेजस्वी यादवबिहारबिहार की राजनीतिभाजपाराजदलालू प्रसादविधानसभा चुनाव
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