भारत के डिजिटल भविष्य की लड़ाई अब केवल कोड या क्लाउड तक ही सीमित नहीं है। यह विचारधारा, आत्मनिर्भरता और राष्ट्रवादी विजन की भी जंग बन चुकी है। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया था, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि एक दिन यह जंग विदेशी टेक दिग्गजों और भारतीय स्वदेशी उद्यमियों के बीच वैचारिक युद्ध में बदल जाएगी। लेकिन, भारत जैसे देश में यह भी हो गया। अपने ही देश के लोगों को स्वदेशी टेक कंपनी जोहो खटकने लगी है। अब इस युद्ध की अग्रिम पंक्ति में है, जोहो कॉरपोरेशन।
जोहो: भारतीय मस्तिष्क से निकला वैश्विक विकल्प
तमिलनाडु के तिनकासी जैसे शांत कस्बे से शुरू हुई जोहो की कहानी किसी डिजिटल चमत्कार से कम नहीं है। इसके संस्थापक श्रीधर वेंबू ने न तो सिलिकॉन वैली के दिखावे की राह चुनी, न विदेशी निवेशकों की शर्तें मानीं। उन्होंने भारत की मिट्टी से जुड़कर तकनीकी आत्मनिर्भरता की नई परिभाषा लिखी।
जोहो आज एक ऐसी भारतीय कंपनी है, जो माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस 365, गूगल वर्कस्पेस और सेल्सफोर्स जैसी विदेशी दिग्गज कंपनियों को टक्कर दे रही है। इसके सॉफ्टवेयर न केवल भारत में बल्कि अमेरिका, यूरोप और एशिया के कई देशों में उपयोग किये जा रहे हैं। हमारे लिए गर्व की बात ये है कि जोहो के सर्वर भारत में ही हैं, यानी भारतीय डेटा अब विदेशी धरती पर भटकता नहीं, बल्कि देश की सीमा के भीतर सुरक्षित रहता है।
जब स्वदेशी टेक से डरने लगा लेफ्ट इकोसिस्टम
लेकिन जैसे ही जोहो ने सरकारी प्रोजेक्ट्स में कदम रखा और आत्मनिर्भर भारत की राह मजबूत की, वैसे ही एक खास इकोसिस्टम में बेचैनी फैल गई। कांग्रेस से जुड़े कुछ तकनीकी विशेषज्ञ, और वामपंथी विचारधारा से प्रेरित डिजिटल एक्टिविस्ट्स, अचानक जोहो के विरोध में उतर आए।
उनका तर्क था कि सरकार को किसी एक निजी कंपनी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। लेकिन दिलचस्प यह है कि यही लोग बिना हिचकिचाहट माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और अमेज़न को डेटा सौंपने के लिए तैयार हैं, जिन पर पहले ही सैकड़ों बार डेटा हैक, प्राइवेसी उल्लंघन और स्पाइवेयर निगरानी के आरोप लग चुके हैं।
दरअसल, यह विरोध तकनीकी से ज़्यादा विचारधारात्मक है। क्योंकि श्रीधर वेंबू एक ऐसे व्यक्ति हैं जो भारतीयता, स्थानीय रोजगार, और स्वदेशी टेक निर्माण की बात खुलकर करते हैं। वामपंथी लॉबी को यह राष्ट्रवादी दृष्टिकोण असहज करता है। खासकर तब, जब कोई भारतीय कंपनी पश्चिमी कंपनियों की ‘मोनोपॉली’ को तोड़ने का साहस दिखा रही हो।
डेटा की जंग: भरोसा किस पर किया जाए?
जो लोग जोहो पर अविश्वास जता रहे हैं, वही अक्सर माइक्रोसॉफ्ट या मेटा के सर्वर पर अपने निजी दस्तावेज़ और संवाद छोड़ देते हैं। लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं। माइक्रोसॉफ्ट पर पिछले दशक में हजारों खातों के डेटा लीक के मामले दर्ज हुए। मेटा (फेसबुक) ने 2021 में 53 करोड़ उपयोगकर्ताओं का डेटा उजागर कर दिया। इसके विपरीत, जोहो पर के खिलाफ अब तक कोई डेटा उल्लंघन मामला सामने नहीं आ सका है। कंपनी का दावा है कि उसका पूरा डेटा इंफ्रास्ट्रक्चर भारत के भीतर ही नियंत्रित और मॉनिटर होता है।
यानी, यह लड़ाई सिर्फ तकनीकी भरोसे की नहीं, बल्कि राष्ट्र के डेटा संप्रभुता की है। जब डेटा को नया तेल कहा जा रहा है, तब यह सवाल मौलिक बन जाता है कि भारत का तेल कौन निकाल रहा है, विदेशी कंपनियां या भारतीय हाथ?
वेंबू: टेक्नोलॉजी में गांधीवाद का प्रयोग
श्रीधर वेंबू की सोच अलग है। वे न तो किसी मुनाफाखोर टेक टायकून की तरह अपने शेयर मार्केट मूल्य के पीछे भागते हैं और न ही किसी विदेशी वेंचर फंड्स के इशारों पर चलते हैं।उन्होंने तिनकासी में ग्रामीण रोजगार मॉडल बनाया, जहां जोहो के इंजीनियर गांवों में बैठकर कोड लिखते हैं, उत्पाद डिजाइन करते हैं और दुनिया को दिखा रहे हैं कि भारत की तकनीकी ताकत किसी वैली या सिटी की मोहताज नहीं।
यह वही आत्मनिर्भर भारत का व्यावहारिक रूप है, जिसे मोदी सरकार बार-बार रेखांकित करती है। जोहो के फाउंडर वेंबू का मानना है कि टेक्नोलॉजी का भारतीयकरण केवल उत्पाद बनाने तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि वह समाज की आत्मा से जुड़ा होना चाहिए, जिसमें संस्कृति, ग्रामीण नवाचार और नैतिकता का समावेश हो। यह विचार, जाहिर तौर पर लेफ्टिस्ट टेक-लॉबी के वैश्विक पूंजीवाद से टकराता है, जो भारत जैसे देशों को सिर्फ उपभोक्ता बनाकर रखना चाहती है, निर्माता नहीं।
जब डेटा सेंटर तक पहुंच गया राष्ट्रवाद
आज जोहो न केवल सरकारी परियोजनाओं में बल्कि कई भारतीय विश्वविद्यालयों, स्टार्टअप्स और MSMEs के लिए भी भरोसे का नाम बन चुका है। भारत सरकार ने भी इसे Make in India और Digital India के तहत कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी हैं, जिससे देश का डेटा घरेलू सर्वरों पर रह सके। लेकिन हर राष्ट्रवादी कदम के साथ जैसा होता है, एक वैचारिक प्रतिरोध भी उभर आता है। वही बात इस कंपनी पर भी लागू होती दिख रही है।
वामपंथी एक्टिविस्ट रवि नायर और वीना जैन जैसे नाम लगातार सोशल मीडिया पर जोहो और वेंबू को निशाना बना रहे हैं। कभी उन्हें भाजपा का समर्थक कहा जाता है, तो कभी सत्ता का औजार बताया जाता है। लेकिन यही लोग तब चुप रहते हैं जब विदेशी कंपनियां भारत के नागरिकों की प्राइवेसी को निगल जाती हैं। यह वही दोहरा रवैया है, जिसने दशकों तक भारत को टेक्नोलॉजिकल कॉलोनी बनाए रखा।
स्वदेशी बनाम विदेशी: असली लड़ाई यहीं है
मूल प्रश्न यह नहीं कि जोहो बेहतर है या माइक्रोसॉफ्ट। मूल प्रश्न यह है कि क्या भारत अपने डिजिटल भविष्य का मालिक बनेगा या किराएदार ही रहेगा? जोहो का उदय एक प्रतीक है, उस मानसिक बदलाव का, जो भारत को उपभोक्ता देश से उत्पादक राष्ट्र बनाने की राह पर ले जा रहा है। यह वही बदलाव है, जो आज के लेफ्ट-लिबरल ढांचे को सबसे ज़्यादा डराता है। क्योंकि अगर भारत ने अपनी डेटा टेक्नोलॉजी, सॉफ्टवेयर और सर्वर पर नियंत्रण पा लिया, तो विदेशी कंपनियों की निर्भरता खत्म हो जाएगी। इससे पश्चिमी पूंजीवादी मॉडल की नींव हिल जाएगी, जो विकासशील देशों को हमेशा डिजिटल आश्रित बनाए रखना चाहता है।
आत्मनिर्भर भारत का असली चेहरा
जोहो की कहानी केवल एक कंपनी की सफलता की कहानी नहीं है, बल्कि एक विचार की पुनर्स्थापना है कि भारत अपने संसाधनों, अपने युवाओं और अपनी प्रतिभा पर भरोसा कर सकता है। श्रीधर वेंबू ने यह साबित किया है कि राष्ट्रवाद और इनोवेशन एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। उनकी कंपनी यह संदेश देती है कि आत्मनिर्भर भारत केवल सरकार की नीति नहीं, बल्कि हर नागरिक का संकल्प बन सकता है।
शायद यही बात कांग्रेस-वाम गठजोड़ को सबसे ज़्यादा चुभ रही है। क्योंकि, जब भारत अपने टेक्नोलॉजी भाग्य का खुद निर्माता बन जाएगा, तब विचारधारा के ठेकेदारों की दुकाने अपने आप बंद हो जाएंगी।