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भारत ने ‘चिकन नेक’ को बनाया इस्पाती गलियारा: बांग्लादेश–पाकिस्तान समीकरणों के बीच पूर्वी सीमा पर तीन नई सैन्य छावनियों से भारत की रणनीतिक बढ़त

भारत ने सिलिगुड़ी कॉरिडोर या 'चिकन नेक' क्षेत्र को और मजबूत करते हुए असम, बिहार और बंगाल में तीन नई सैन्य छावनियां स्थापित की हैं। यह कदम बांग्लादेश की नई अंतरिम सरकार के चीन और पाकिस्तान से नजदीकी बढ़ाने के बीच भारत की निर्णायक रणनीतिक तैयारी को दर्शाता है।

Vibhuti Ranjan द्वारा Vibhuti Ranjan
8 November 2025
in आयुध, भारत, भू-राजनीति, रक्षा, रणनीति
भारत ने 'चिकन नेक' को बनाया इस्पाती गलियारा: बांग्लादेश–पाकिस्तान समीकरणों के बीच पूर्वी सीमा पर तीन नई सैन्य छावनियों से भारत की रणनीतिक बढ़त

चिकन नेक का नाम अब केवल भौगोलिक संदर्भ में रहेगा।

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पूर्वोत्तर भारत के नक्शे पर एक पतली-सी पट्टी है, जो मात्र 22 किलोमीटर चौड़ी है। यही है भारत की तथाकथित कमज़ोर नस सिलीगुड़ी कॉरिडोर, जिसे पश्चिमी मीडिया और रणनीतिक विश्लेषक लंबे समय से चिकन नेक के नाम से पुकारते हैं। लेकिन, अब यही इलाका भारत की नई सामरिक क्रांति का केंद्र बन चुका है। जहां कभी रक्षा विशेषज्ञ संभावित घुसपैठ, ब्लॉकेड और युद्धकालीन असुरक्षा की चेतावनी दिया करते थे, आज वही क्षेत्र भारत की लौह-रीढ़ में तब्दील हो चुका है। हाल के महीनों में भारतीय सेना द्वारा असम, बिहार और पश्चिम बंगाल की सीमा पर तीन नई सैन्य छावनियों की स्थापना, पूर्वी मोर्चे के प्रति भारत के दृष्टिकोण में निर्णायक बदलाव का संकेत देती है। यह केवल सैन्य ठिकानों का विस्तार नहीं, बल्कि एक व्यापक रणनीतिक संदेश है कि भारत अब रक्षात्मक नहीं, निर्णायक मुद्रा में है।

धुबरी का मिलिट्री स्टेशन बना परिवर्तन का प्रतीक

असम के धुबरी ज़िले के बामुनी क्षेत्र में स्थापित लाचित बोर्फुकन मिलिट्री स्टेशन इस परिवर्तन की प्रतीक है। आहोम साम्राज्य के उस महान योद्धा के नाम पर रखे गए इस स्टेशन की नींव केवल पत्थरों की नहीं, बल्कि उस इतिहास की है, जिसने विदेशी ताकतों के सामने कभी सिर नहीं झुकाया। यह वही ज़मीन है जिसे अवैध अतिक्रमण से मुक्त कराया गया था। अब यहां से न केवल भारत-बांग्लादेश सीमा की निगरानी होती है, बल्कि यह स्थल पूरे सिलीगुड़ी कॉरिडोर की पूर्वी दीवार के रूप में काम करेगा। तेज़पुर स्थित गजराज कोर (4 कोर) के अधीन आने वाला यह स्टेशन अब ईस्टर्न डिफेंस नेटवर्क का एक केंद्रीय नोड है।

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भारतीय थलसेना के पूर्वी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल आरसी तिवारी ने जब इस स्टेशन की नींव रखी, तब उन्होंने जिस आत्मविश्वास के साथ इसे ऑपरेशनल रेडीनेस में ऐतिहासिक छलांग बताया, वह स्पष्ट करता है कि भारत अपने पारंपरिक ढर्रे से बाहर निकल चुका है। अब लक्ष्य केवल बॉर्डर डिफेंस नहीं, बल्कि रीजनल डॉमिनेंस है। रक्षा प्रवक्ता लेफ्टिनेंट कर्नल एम रावत ने भी कहा कि यह स्टेशन केवल सीमाओं की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि पूर्वी सीमांत के लिए एक दीर्घकालिक सुरक्षा दृष्टि का हिस्सा है।

सीएम हिमंत बिश्वा शर्मा ने दिया था प्रस्ताव

यह संयोग नहीं कि असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने स्वयं इस परियोजना का प्रस्ताव दिया था। धुबरी में ईद के दौरान हुई सांप्रदायिक अशांति के बाद राज्य प्रशासन ने समझ लिया था कि सुरक्षा और सामाजिक स्थिरता को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इसीलिए अब सीमांत इलाकों में सेना की उपस्थिति केवल सैन्य नहीं, सामाजिक स्थायित्व की गारंटी बन गई है।
बिहार के किशनगंज और पश्चिम बंगाल के चोपड़ा में स्थापित दो अन्य गारिज़न इस नई रणनीतिक रेखा को पूरा करते हैं। ये दोनों स्थान उस संकरे भूभाग का हिस्सा हैं जो उत्तर बंगाल को उत्तर–पूर्व से जोड़ता है, वही क्षेत्र जहां से भारत के सातों राज्य बाकी देश से संपर्क में हैं। यदि कभी युद्धकाल में यह कॉरिडोर अवरुद्ध हो जाए तो पूरा पूर्वोत्तर भारत मुख्यभूमि से कट सकता है। यही कारण है कि इस इलाक़े को लेकर भारत दशकों से संवेदनशील रहा है। लेकिन अब स्थिति उलट चुकी है, जहां कभी रणनीतिक खतरा था, वहीं अब सुरक्षा की सबसे घनी परतें बिछ चुकी हैं।

सिलीगुड़ी कॉरिडोर की निगरानी त्रिशक्ति कोर (33 कोर) के हाथों में है, जिसका मुख्यालय सुकना में स्थित है। यह वही कोर है जो सिक्किम, भूटान सीमा और डोकलाम जैसे संवेदनशील क्षेत्रों पर नज़र रखता है। भारतीय सेना के सूत्र बताते हैं कि यह इलाका अब मल्टी-लेयर्ड सिक्योरिटी आर्किटेक्चर के अधीन है। थल सेना, वायुसेना और खुफिया एजेंसियों के संयुक्त संचालन तंत्र के साथ। यही वह इलाका है, जहां पर नियमित रूप से संयुक्त सैन्य अभ्यास होते हैं, कभी ब्रह्मपुत्र के किनारे, कभी कंचनजंघा की तलहटी में।

सेना प्रमुख ने क्या कहा, जानें

भारतीय सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने हाल ही में इस कॉरिडोर को भारत की सबसे मज़बूत कड़ी बताया। उनका कहना था कि भारत के लिए यह इलाका जीवनरेखा नहीं, बल्कि रक्षा-रीढ़ है। वास्तव में, अब यह क्षेत्र केवल रणनीतिक नहीं, टेक्नोलॉजिकल शक्ति-केंद्र भी बन चुका है। पश्चिम बंगाल के हाशिमारा एयरबेस पर राफेल विमानों की तैनाती, ब्रह्मोस मिसाइल रेजिमेंट, और आधुनिक वायु रक्षा प्रणालियों ने इसे दुर्ग बना दिया है।

इस क्षेत्र की रक्षा संरचना में अब त्रिस्तरीय वायु रक्षा तंत्र है, रूसी मूल के एस-400, भारत-इज़राइल द्वारा संयुक्त रूप से विकसित एमआरएसएएम और स्वदेशी आकाश प्रणाली। ये तीनों मिलकर पूर्वी आसमान पर एक ऐसा सुरक्षा-छत्र बनाते हैं, जिसमें किसी भी विदेशी विमान या मिसाइल के घुसने की गुंजाइश नहीं बचती। रक्षा मंत्रालय ने हाल ही में 8,160 करोड़ रुपये की मंज़ूरी दो नई आकाश-एडवांस्ड रेजिमेंटों के लिए दी है, जो 360 डिग्री कवरेज और अत्याधुनिक सीकर तकनीक से लैस होंगी।

जमीन पर भी बदल चुकी है तस्वीर

जमीन पर भी तस्वीर बदल चुकी है। भैरव बटालियन और अश्नि प्लाटून अब न केवल आधुनिक राइफलों से सुसज्जित हैं, बल्कि उनके पास फर्स्ट पर्सन व्यू (FPV) और कामिकाज़े ड्रोन की पूरी क्षमताएं हैं। ये इकाइयां रियल-टाइम निगरानी और टारगेट-प्रिसीजन स्ट्राइक दोनों में माहिर हैं। इसी क्रम में भारतीय सेना का नया ब्रह्मास्त्र कोर चोपड़ा और किशनगंज सेक्टरों की जिम्मेदारी संभाल रहा है, जो ड्रोन ऑपरेशन, मिसाइल फायर यूनिट्स और एआई-सहायक सर्विलांस सिस्टम का संयोजन है।

भारत की इस तेजी से बदलती तैयारी का संबंध केवल भौगोलिक सुरक्षा से नहीं है। इसके पीछे एक स्पष्ट राजनीतिक और कूटनीतिक संदेश छिपा है कि पूर्वी मोर्चे पर कोई छेड़छाड़ नहीं। पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच हालिया समीपता ने भारत की रणनीतिक चिंता को और गहरा किया है। शेख हसीना के पदच्युत होने के बाद बांग्लादेश में जो अंतरिम शासन स्थापित हुआ है, उसके मुखिया मुहम्मद यूनुस ने चीन और पाकिस्तान दोनों के साथ संपर्क साधने शुरू कर दिए हैं। खबरें बताती हैं कि यूनुस और पाकिस्तान के ज्वाइंट चीफ ऑफ स्टाफ जनरल साहिर शामशाद मिर्ज़ा के बीच रक्षात्मक सहयोग पर चर्चा हुई। यह वही मिर्ज़ा हैं जो आईएसआई और पाक सेना के बीच समन्वय का चेहरा माने जाते हैं। नई दिल्ली के लिए यह संकेत खतरे की घंटी के समान है, क्योंकि अब ढाका की विदेश नीति ‘दिल्ली-बीजिंग-इस्लामाबाद’ के त्रिकोण में झूलती दिखाई दे रही है।

भारतीय खुफिया एजेंसियों के आकलन के अनुसार, बांग्लादेश की इस नई नीति का उद्देश्य क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन को रीशेप करना है। चीन पहले से ही बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के माध्यम से बांग्लादेश के बंदरगाहों, सड़कों और औद्योगिक कॉरिडोरों में अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है। अब अगर ढाका और इस्लामाबाद का तालमेल बढ़ता है, तो पूर्वी मोर्चे पर भारत को एक डुअल-फ्रंट स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। पश्चिम में पाकिस्तान और पूर्व में चीन-पोषित बांग्लादेश।

ऐसे में भारत का जवाब स्पष्ट और सटीक है—फॉरवर्ड फोर्टिफिकेशन। चोपड़ा और किशनगंज में जो नए गारिज़न तैयार किए गए हैं, वे किसी संभावित बाहरी उकसावे के खिलाफ त्वरित कार्रवाई के केंद्र हैं। यह केवल डिफेंस पोजीशन नहीं, बल्कि प्री-एम्प्टिव स्टेजिंग एरिया हैं, जहां से सेना किसी भी दिशा में तुरंत प्रतिक्रिया दे सकती है।

भारत की पूर्वी सीमाएं आज एशिया की सबसे उन्नत बहु-स्तरीय रक्षा प्रणाली से लैस हैं। यह नेटवर्क जमीन, आकाश और सूचना—तीनों क्षेत्रों में फैला है। सीमा चौकियों पर अब सेंसर-सक्षम निगरानी टावर हैं, जो रडार, थर्मल और नाइट-विज़न से लैस हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित अलर्ट सिस्टम और ड्रोन फीड से हर गतिविधि का विश्लेषण रियल-टाइम में होता है। परंतु इस पूरे विस्तार का सबसे गहरा अर्थ यह है कि भारत ने अपनी रणनीति को प्रतिक्रियात्मक से निर्णायक में बदला है। पहले जहाँ नीति यह थी कि शत्रु की चाल का जवाब दिया जाए, अब नीति यह है कि उसे चाल चलने से पहले ही निरस्त कर दिया जाए। इसे सैन्य सिद्धांतों की भाषा में कहा जा सकता है—डिटरेंस से डॉमिनेंस की ओर संक्रमण।

यह सब कुछ मिलकर सिलीगुड़ी कॉरिडोर की छवि को बदल चुका है। अब यह केवल एक कॉरिडोर नहीं, बल्कि एक स्टील स्पाइन है, एक ऐसी रीढ़ जो उत्तर–पूर्व को देश से जोड़ती ही नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्र को स्थिर रखती है।

इस पूरे परिदृश्य में चीन की भूमिका भी अनदेखी नहीं की जा सकती। बीजिंग की दृष्टि में यह इलाका भारत की सॉफ्ट बेल्ट था, जहां किसी भी तनाव की स्थिति में दबाव बनाया जा सकता था। डोकलाम संकट के दौरान चीन ने इसी क्षेत्र की भूगोलिक संवेदनशीलता का फायदा उठाने की कोशिश की थी। लेकिन अब परिस्थितियां उलट चुकी हैं। भारत ने जिस तरह से अपनी सड़कें, रेल संपर्क, वायु अड्डे और फॉरवर्ड बेस नेटवर्क को विकसित किया है, उससे चीन को यह संदेश साफ मिल गया है कि भारत किसी भी प्रकार की घुसपैठ को सिर्फ रोकने ही नहीं, बल्कि पलटवार करने की स्थिति में भी है।

यह वही नीति है जो भारत ने गलवान के बाद अपनाई—शांति वार्ता अपनी जगह, पर युद्ध-तैयारी कभी कम नहीं। भारत ने लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक अपने रक्षा तंत्र में जिस तेज़ी से निवेश किया है, वही अब सिलीगुड़ी में झलक रहा है।

आज जब ढाका की राजनीति में अनिश्चितता है, जब चीन हिंद महासागर में अपनी पकड़ मज़बूत करने की कोशिश कर रहा है, और जब पाकिस्तान आर्थिक संकट के बावजूद सैन्य उकसावे से पीछे नहीं हट रहा, ऐसे में भारत ने यह दिखा दिया है कि उसकी पूर्वी सीमा किसी भी तरह की अकिलीज़ हील नहीं है, बल्कि उसकी सबसे मज़बूत ढाल है।

चिकन नेक का नाम अब केवल भौगोलिक संदर्भ में रहेगा, सामरिक संदर्भ में यह भारत की नई पहचान है—आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी और सशक्त। भारत की इस तैयारी का संदेश बहुत स्पष्ट है, जो कभी चिंता का कारण था, अब वही गर्व का प्रतीक है। यह वह इलाका है जहां अब हर पहरा, हर टॉवर, हर सैनिक एक ही भावना से भरा है, पूर्वी सीमांत अब भारत का अभेद्य किला है।

यह परिवर्तन केवल सीमाओं पर नहीं, बल्कि मानसिकता में हुआ है। यही है भारत की असली जीत। यह वह क्षण है जब हम कह सकते हैं कि जहां कभी कमजोरी थी, अब वही शक्ति है।

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