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मस्जिदों में कुत्ते बांधने वाली पाकिस्तानी सेना: खैबर पख्तूनख्वा के विद्रोह से टूटा ‘एक पाकिस्तान’ का भ्रम, भारत के लिए रणनीतिक दृष्टि से बड़ा अवसर

याद रहे कि यह वही सेना है, जिसने कभी पूर्वी पाकिस्तान में 1971 में लाखों बंगालियों का नरसंहार किया था और वही सोच आज खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान में जारी है। फर्क बस इतना है कि तब भारत ने बांग्लादेश बनवाया था, आज पाकिस्तान खुद अपने ही हाथों से अपने हिस्से जला रहा है।

Vibhuti Ranjan द्वारा Vibhuti Ranjan
8 November 2025
in चर्चित, फैक्ट चेक, भारत, भू-राजनीति, रक्षा, रणनीति, राजनीति, विश्व
मस्जिदों में कुत्ते बांधने वाली पाकिस्तानी सेना: खैबर पख्तूनख्वा के विद्रोह से टूटा ‘एक पाकिस्तान’ का भ्रम, भारत के लिए रणनीतिक दृष्टि से बड़ा अवसर

भारत को अब केवल देखना नहीं, बल्कि अपनी रणनीतिक गहराई बढ़ानी है।

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पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत से आई खबर ने उस देश की आत्मा को झकझोर कर रख दिया है, यदि उसमें कोई आत्मा अब भी शेष है। वहां के मुख्यमंत्री सोहेल अफरीदी ने खुलकर यह स्वीकार किया है कि पाकिस्तानी सेना मस्जिदों के भीतर कुत्ते बांधती थी, ताकि पश्तूनों को अपमानित किया जा सके। यह बयान किसी मामूली नेता का नहीं, बल्कि पाकिस्तान के संवैधानिक प्रांत के मुखिया का है और यह इस बात का प्रमाण है कि ‘इस्लामी एकता’ का नारा अब पाकिस्तान के भीतर ही फट चुका है।

सोचिए, जिस सेना को अपने देश का इस्लाम का रक्षक बताया जाता है, वही सेना इस्लाम के पवित्र स्थान मस्जिद को अपमानित करने से भी नहीं हिचकती है। यहां बता दें कि यह वही सेना है, जो हर शुक्रवार को भारत के खिलाफ कश्मीर दिवस मनाती है, लेकिन अपने ही मुसलमान भाइयों के प्रांत में ही मस्जिदों में कुत्ते बांधकर ‘जिहाद’ के नाम पर इंसानियत का गला घोंटती नजर आती है।

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पश्तूनों का अपमान: सेना का असली चेहरा

सोहेल अफरीदी ने जो कहा, वह कोई नया आरोप नहीं है। उनके अनुसार, खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान के लोग दशकों से यही आरोप लगा रहे हैं कि पाकिस्तान की सेना पंजाब से संचालित एक दमनकारी मशीन है, जो बाकी प्रांतों को गुलाम बनाकर रखती है। उन्होंने कहा कि सेना के लिए पंजाब राष्ट्र है, और बाकी प्रांत महज इलाके हैं।

अफरीदी के अनुसार, सेना ने कबायली इलाकों में मस्जिदों के भीतर कुत्ते बांधे और कहा कि तुम लोगों की औकात इन जानवरों से भी कम है। यह केवल धार्मिक बेअदबी नहीं, बल्कि एक जातीय युद्ध का रूप भी है, पंजाबी वर्चस्व बनाम पश्तून अस्मिता।

ये वही क्षेत्र हैं जिन्होंने पाकिस्तान की स्थापना के समय पश्तूनिस्तान के लिए आंदोलन किया था, लेकिन तब सेना और मौलवियों ने इन्हें जबरन इस्लामिक उम्मा के झूठे वादे से दबा दिया। आज जब वही पश्तून नई पीढ़ी के रूप में फिर उठ खड़े हुए हैं, तो सेना की बंदूकें फिर उन पर तन चुकी हैं।

इस्लामी सेना का पाखंड

पाकिस्तानी सेना का दावा रहा है कि वह इस्लाम के नाम पर बनी सेना है। लेकिन क्या किसी इस्लामी देश की सेना अपने ही लोगों की मस्जिदों में कुत्ते बांध सकती है? क्या इस्लाम यह सिखाता है कि कबायली इलाकों की औरतों को अपमानित करो, उन्हें आतंकियों की आड़ में मारो और फिर झूठी रिपोर्टों में इसे आतंक विरोधी अभियान बता दो?

सोहेल अफरीदी ने कहा कि सेना के अभियानों में आम नागरिकों की हत्या और महिलाओं के साथ अपमानजनक व्यवहार आम बात है। उन्होंने इसे युद्ध अपराध करार दिया है।

याद रहे कि यह वही सेना है, जिसने कभी पूर्वी पाकिस्तान में 1971 में लाखों बंगालियों का नरसंहार किया था और वही सोच आज खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान में जारी है। फर्क बस इतना है कि तब भारत ने बांग्लादेश बनवाया था, आज भारत सिर्फ देख रहा है, क्योंकि पाकिस्तान खुद अपने ही हाथों से अपने हिस्से जला रहा है। इसमें भारत को कुछ करने की जरूरत ही नहीं है।

डुरंड लाइन: एक खींची हुई लकीर, जो पाकिस्तान के गले की फांस है

खैबर पख्तूनख्वा का संकट केवल जातीय या राजनीतिक नहीं है, यह एक ऐतिहासिक विस्फोट का परिणाम है, जिसका नाम है डुरंड लाइन। 1893 में ब्रिटिश शासन ने अफगान अमीर अब्दुर रहमान खान और ब्रिटिश भारत के बीच यह रेखा खींची थी। लेकिन उस वक्त किसी ने पश्तूनों से नहीं पूछा कि वे किस ओर रहना चाहते हैं। आज सौ साल बाद वही रेखा पाकिस्तान के लिए मृत्यु–रेखा बन चुकी है।

हालांकि, अफगानिस्तान कभी भी इस सीमा को मान्यता नहीं देता। पश्तूनों की बड़ी आबादी दोनों ओर है। यानी पाकिस्तान का आधा पश्चिमी हिस्सा और अफगानिस्तान का पूर्वी हिस्सा, एक साझा जातीय और सांस्कृतिक पहचान रखते हैं। इसलिए आज जब अफरीदी जैसे नेता खुलकर बोल रहे हैं, तो यह केवल स्थानीय विद्रोह नहीं, बल्कि पश्तूनिस्तान आंदोलन की नई परिभाषा है।

अफगान तालिबान, जो कभी पाकिस्तान की गोद में पलते थे, आज पाकिस्तान को काफिर शासन कहने लगे हैं। यह वही तिलिस्म है, जो कभी आईएसआई ने तैयार किया था। अब वही उसके गले की फांस बन रहा है।

पाकिस्तान के दो जलते प्रांत: खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान

बलूचिस्तान पहले से ही आग में है। वहां के बलूच राष्ट्रवादियों का कहना है कि पाकिस्तान ने उनके संसाधनों को लूट लिया और उन्हें गरीबी व सैन्य आतंक में जीने को मजबूर कर दिया। अब वही स्वर पश्तून इलाकों से भी उठ रहा है। पश्तून तहरीक-ए-इंसाफ (PTI) से जुड़े नेता सेना पर खुलकर आरोप लगा रहे हैं। खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान अब राष्ट्रीय एकता के नहीं, बल्कि ‘पंजाब बनाम बाकी पाकिस्तान’ की लड़ाई के प्रतीक बन चुके हैं।

यह सब तब हो रहा है, जब पाकिस्तान आर्थिक दिवालिएपन की कगार पर है। IMF के कर्ज़ों पर चल रहा देश, जब अपनी सेना को भुगतान तक नहीं कर पा रहा, तो वह सेना अब जनता को लूटकर अपना अस्तित्व बनाए रखने की कोशिश कर रही है।

इमरान खान बनाम मुनीर सेना, पख्तून चेतना का नया दौर

इमरान खान खुद एक पश्तून हैं। उनकी गिरफ्तारी और अपमान ने पूरे पख्तून समाज में यह भाव जगाया है कि पंजाबी सेना अब हमारे नेताओं को भी दबा रही है। जब तक इमरान पंजाब की सत्ता के प्रिय थे, वे राष्ट्रनायक थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने सेना से टकराने की कोशिश की, वही सेना उनके पीछे कुत्ते छोड़ने लगी।

इधर, सोहेल अफरीदी का मुख्यमंत्री बनना भी इस पृष्ठभूमि में बेहद महत्वपूर्ण है। 35 वर्षीय यह युवा नेता न केवल इमरान का भरोसेमंद साथी है, बल्कि कबायली क्षेत्र का प्रतिनिधि चेहरा भी है। इसलिए जब वह सेना की बर्बरता को युद्ध अपराध कहता है, तो यह केवल राजनीतिक बयान नहीं, बल्कि एक पूरे समुदाय की सामूहिक पुकार है।

भारत की रणनीतिक दृष्टि: पश्चिमी सीमा पर खुला मोर्चा

भारत के लिए यह सब मात्र एक पड़ोसी की अराजकता नहीं है। यह रणनीतिक अवसर है, जैसा 1971 में था, जब पाकिस्तान की सेना ने खुद अपने हाथों से अपना आधा देश तोड़ दिया था।आज भारत का ध्यान केवल पूर्वी सीमा पर नहीं, बल्कि पश्चिमी मोर्चे पर भी केंद्रित है। चाबहार पोर्ट (ईरान), फजर बेस (ताजिकिस्तान) और उत्तरी गठबंधन के पुराने संपर्क, यह सब भारत की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा हैं। अगर पाकिस्तान के पश्चिमी प्रांतों में अस्थिरता बढ़ती है, तो भारत के पास अफगानिस्तान और ईरान के माध्यम से पाकिस्तान को चारों ओर से घेरने की संभावना बनती है।

भारत की खुफिया एजेंसी RAW (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) वर्षों से इस क्षेत्र की नब्ज समझती रही है। भारत ने कभी खुलकर हस्तक्षेप नहीं किया, लेकिन मानवीय और भू-राजनीतिक स्तर पर पाकिस्तान की कमजोरियों को गहराई से दर्ज किया है।

आज जब पाकिस्तानी सेना खुद अपने ही मुसलमानों पर अत्याचार कर रही है, तो भारत को न केवल राजनयिक स्तर पर इसका पर्दाफाश करना चाहिए, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह उजागर करना चाहिए कि पाकिस्तान अब आतंकवाद नहीं, आत्मविनाश का केंद्र बन चुका है।

तालिबान–ISI टकराव: आग में घी

अफगान तालिबान और पाकिस्तानी आईएसआई के बीच अब खुला टकराव है। टीटीपी (तेहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान), जो पहले पाकिस्तान के लिए एक रणनीतिक संपत्ति थी, अब वही पाकिस्तान की सुरक्षा बलों पर हमला कर रही है। अफगान तालिबान अब खुले तौर पर कह रहे हैं कि पश्तूनों पर पाकिस्तान की हुकूमत खत्म होनी चाहिए।

इस पृष्ठभूमि में सोहेल अफरीदी का बयान केवल घरेलू राजनीति नहीं, बल्कि क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन का संकेत है। अब अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच एक नया जातीय मोर्चा बन रहा है, जिसमें पश्तून एकजुट हो सकते हैं। लेकिन, अगर ऐसा हुआ, तो पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा पर एक और बांग्लादेश जन्म ले सकता है।

CPEC और चीन का संकट

चीन का बहुप्रचारित CPEC (चाइना पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर) भी अब इन्हीं प्रांतों से होकर गुजरता है, ग्वादर से लेकर खैबर तक। अगर ये क्षेत्र जल उठे, तो चीन की अरबों डॉलर की परियोजना राख हो जाएगी। भारत के लिए यह स्थिति रणनीतिक वरदान की तरह है, क्योंकि CPEC का असफल होना चीन–पाक गठजोड़ की रीढ़ तोड़ देगा। भारत को अब स्पष्ट रूप से यह दिखाना होगा कि पाकिस्तान की अस्थिरता का कारण भारत नहीं, बल्कि उसकी अपनी सेना और उसकी आतंक–नीति है।

अपने ही पापों की आग में जल रहा पाकिस्तान

आज पाकिस्तान का सच किसी बाहरी दुश्मन ने नहीं उजागर किया, यह उसके अपने मुख्यमंत्री ने किया है। जब एक मुसलमान नेता अपनी ही सेना पर मस्जिदों में कुत्ते बांधने का आरोप लगाए, तो समझ लीजिए कि इस्लामाबाद की नींव अब पाखंड के बोझ से दरक चुकी है।

भारत को अब केवल देखना नहीं, बल्कि अपनी रणनीतिक गहराई बढ़ानी है। चाबहार से लेकर लेह और कारगिल तक और ताजिकिस्तान के एयरबेस से लेकर हिंद महासागर के सुरक्षा चक्र तक, भारत को अपनी पश्चिमी सीमा की हर हलचल का विश्लेषण करना होगा।

खैबर पख्तूनख्वा में उठता हर विरोध, हर नारा हम पश्तून हैं, गुलाम नहीं। अब पाकिस्तान के विभाजन का संगीत बन चुका है। इतिहास इस बात की गवाही दे रहा है कि जो सेना अपनी ही मस्जिदों में कुत्ते बांधती है, वह किसी दिन अपने ही ताबूत में कील भी ठोकती है।

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