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उत्तर प्रदेश चुनाव 2017: किसमे कितना है दम ?

EX-EMPLOYEE द्वारा EX-EMPLOYEE
13 July 2016
in समीक्षा
उत्तर प्रदेश चुनाव
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जैसा मैं हमेशा से कहता हूँ उलझा हुआ उत्तर प्रदेश, इतना उलझा कि बड़े-बड़े चुनावी विश्लेषकों को यहाँ के मतदाताओं का मूड समझ में नहीं आता। उत्तर प्रदेश सभी राजनीतिक दलों के लिए चुनौती रहा है, चाहे वो राष्ट्रीय पार्टी बीजेपी या कांग्रेस हो, चाहे वो क्षेत्रीय पार्टी सपा और बसपा हो। इस चुनौती और उलझन का प्रमुख कारण है उत्तर प्रदेश के मतदाताओं द्वारा अलग-अलग राजनीतिक दलों को दिया गया भारी जनादेश। जैसे 2012 विधानसभा में समाजवादी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला, उसके दो साल बाद हुए लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को 90प्रतिशत सीटों पे भारी जीत मिली लेकिन बाद के उपचुनावों और स्थानीय चुनावों में सपा की पुनः वापसी हुई।

यह आंकड़ा इस बात को बल देता है कि उत्तर प्रदेश में कोई भी पार्टी स्थाई नहीं है। 2017 का विधानसभा चुनाव सपा और बसपा के लिए सत्ता की लड़ाई है, परन्तु कांग्रेस और भाजपा के लिए यह प्रदेश के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण है।

इस चुनाव के इसी महत्व को देखते हुए सभी पार्टियां इसके लिए जी-जान से रणनीति बनाने में लगी हुई हैं और मानसून के झोंकों के साथ इसमे स्पष्टता आने लगी है।

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बीजेपी ने अपना पहला दावँ खेलते हुए पुराने दिग्गजों को किनारे करते हुए केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। प्रदेश में बूथ सम्मेलनों के माध्यम से डेढ़ लाख बूथ प्रभारियों से राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का सीधा संवाद करना और आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री की जनसभाओं के स्थान और संख्या ये साफ़ संदेश देती है कि चुनाव राष्ट्रीय नेतृत्व पे केंद्रित होगा और प्रदेश के नेता सहायक भूमिका में होंगे। प्रदेश के चुनावी इतिहास, सामाजिक तानेबाने और विपक्षी दलों की राजनीति को मद्देनज़र रखते हुए भाजपा भी सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपना रही है और विधान परिषद, राज्यसभा, केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल तथा भारतीय समाज पार्टी से गठबंधन इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

इसी सोशल इंजीनियरिंग के तहत दलितों को प्राथमिकता दी गयी है क्योंकि सर्वेक्षण बताते हैं कि लोकसभा में बीजेपी को 45% दलित वोट मिला था साथ ही वह मायावती के कोर वोटर माने जाने वाले जाटव समुदाय के भी 18प्रतिशत मत पाने में सफल रही थी, इसी बात से उत्साहित होकर भाजपा इन वोटरों को स्थाई रूप से अपने पक्ष में करना चाहती है। अमित शाह का मायावती को महत्व ना देते हुए सपा को बीजेपी का मुख्य प्रतिद्वंद्वी घोषित करना भी इसी रणनीति का एक अहम हिस्सा है। भाजपा के भीतर मुख्यमंत्री पद के लिए जारी खींचतान भी धीरे-धीरे थमता नज़र आ रहा है, वरुण गांधी, योगी आदित्यनाथ और कल्याण सिंह को दरकिनार कर नए चेहरों को मंत्रिमंडल में शामिल करते हुए और नए नेताओं को प्रदेश कि राजनीति में लाकर भाजपा ने बड़बोले नेताओं को कड़ा संदेश दिया है कि पार्टी की रीती-नीति बदल चुकी है।

इलाहाबाद कार्यकारणी में पास हुए प्रस्तावों और अमित शाह के भाषणों से यह भी साफ़-साफ़ समझ में आता है कि भाजपा का प्रमुख चुनावी मुद्दा हिन्दू अस्मिता, ईमानदार सरकार, कानून-व्यवस्था और विकास होगा तथा कैराना जैसे मुद्दों को भी पार्टी प्रमुखता से उठायेगी। हालाँकि कालांतर में सामान नागरिक सहिंता, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसे मुद्दे भाजपा का चुनाव प्रचार प्रभावित कर सकते हैं।

इधर अखिलेश यादव और मुख्तार अंसारी प्रकरण से ये साफ़ जाहिर है कि मुख्यमंत्री अपनी छवि को मजबूत करने का प्रयास कर रहे हैं और अपनी छवि को एक ऐसे युवा नेता के रूप में विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं जो स्वच्छ राजनीति का पक्षधर है और राज्य को धर्म और जाती के बंधनों से मुक्त कर केवल विकास की बात करना चाहता है। अखिलेश यादव का मुख्य फोकस पहली बार वोट डालने वाले और युवा वर्ग हैं, जोकि मतदाताओं का लगभग 30प्रतिशत है। उनके पिता और समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव राज्य के उन अनुभवी नेताओं में से एक हैं जिनको प्रत्येक सीट के जातीय समीकरण की सटीक जानकारी है और संगठन पे भी वे मजबूत पकड़ रखते हैं। सपा का लक्ष्य अपने कोर वोट मुसलमान और यादव को सुरक्षित रखते हुए युवा वोटरों को साथ में जोड़ना होगा। वैसे कमजोर कानून-व्यवस्था, कार्यकर्ताओं कि गुंडागर्दी और बेलगाम अपराध सपा की राह में कांटो का काम करेंगे।

मायावती की बसपा राज्य में सपा कि सत्ता विरोधी लहर को अपने पक्ष में बनाने कि कोशिश में है और कुछ सर्वेक्षणों ने उसे लाभ की स्थिति में दिखाया भी था परन्तु मायावती के समीकरण बीजेपी की आक्रामक रणनीति के कारण टूट रहे हैं। लोकसभा चुनाव इसका प्रमाण है। आंकड़ो कि माने तो लोकसभा में ब्राह्मणों के 72प्रतिशत वोट भाजपा के खाते में गए थे और सिर्फ 5प्रतिशत बसपा को मिले थे। मायावती चाहे लाख दावे कर लें कि स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी के पार्टी छोड़ने से को फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन सच्चाई यही है कि इससे बड़ी मात्रा में मौर्य और पासी वोट प्रभावित होंगे।

इन सबसे इतर कांग्रेस स्वयं से ही द्वंद करती हुई नज़र आती है। किसी भी खास जातीय समीकरण में फिट न बैठने वाले उत्तराखंड से राज्यसभा सांसद राजबब्बर को पार्टी ने उत्तर प्रदेश कि कमान सौंपी है, इसके साथ ही अल्पसंख्यक चेहरे के रूप में पीएम मोदी को बोटी-बोटी काट देने वाला बयान देने वाले इमरान मसूद को उपाध्यक्ष बनाया गया है। परंतु अभी भी कांग्रेस प्रियंका वाड्रा की प्रभावी भूमिका को लेकर उपाहपोह की स्थिति में है, प्रियंका या राहुल का सनातन प्रश्न पार्टी को उलझा के रखे हुए है। कांग्रेस की चुनावी रणनीति इन प्रश्नों के हल होने के बाद सार्वजनिक हो सकती है।

बरहाल रणनीति कुछ भी हो, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीती का सच यही है कि सत्ता का रास्ता दलित वोटों से होकर गुज़रता है और अंतिम फैसला जनता का होगा कि वो किसको गद्दी पे बैठाती है मगर यह तो तय है कि जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आएंगे प्रदेश की राजनीति गरमाते जायेगी। मैं तो बस उत्तर प्रदेश की जनता-जनार्दन से एक ही गुज़ारिश करूँगा की अपने आँख-कान खुले रखे और जांच-परख कर ही वोट दें।

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