अभी इसी हफ्ते, एक अप्रत्याशित दांव चलते हुये, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना समर्थन प्रदान किया, और यह घोषणा की कि भारत में विपक्षी पार्टियों को जो दिक्कतें झेलनी पड़ती है, उसके लिए मोदी दोषी नहीं है, बल्कि सारा का सारा दोष उनके परम मित्र और और भाजपा अध्यक्ष, अमित शाह पर थोप दिया।
कुछ ही महीने पहले, कभी प्रधानमंत्री के सबसे धुर विरोधियों में से एक रहे दिल्ली के मुख्यमंत्री, श्री अरविंद केजरीवाल भी अचानक से अपने विरोध में शांत होने लगे। ऐसा क्या हो गया, जिसके कारण ये लोग सीधे मुंह प्रधानमंत्री से भिड़ने से डर रहे हैं? ये सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं है कि केंद्र सरकार की एजेंसियां इनके विश्वासपात्रों पर कहर बनके टूट पड़ी है, क्योंकि अगर ऐसी कारवाई से इनका अस्तित्व खतरे में होता, तो उन्होने भाजपा और अमित शाह को भी आलोचना से दूर रखा होता। ऐसा भी नहीं है की इन्हे आभास हुआ है की वे प्रधानमंत्री से भिड़ने योग्य नहीं है, क्योंकि इनके मंसूबें इस हकीकत को मानने के लिए तैयार ही नहीं है। और यह इस रवैये से तो बिलकुल भी नहीं झलकता, जब ममता बैनर्जी प्रधानमंत्री से मिलती है, क्योंकि प्रशासनिक कुशलता और राजनीति दो अलग चीज़ें हैं।
जहां तक ममता को हम सभी जानते है, ये एक सोची समझी चाल है। आज मोदी-शाह की जोड़ी को हल्के में लेना किसी आम राजनेता के लिए तो छोड़िए, ममता जैसे मंझे हुये राजनेता के लिए भी खतरे से खाली नहीं होगा, और ममता बैनर्जी इतनी भी नौसिखिया नहीं है की ऐसी भूल करने की सोचे भी। जब से इस गुजराती जोड़ी ने पार्टी की कमान संभाली है, तबसे चुनाव दर चुनाव जीते जा रहे हैं, अपने खोये राज्य वापस पा रहें हैं, और एक अकल्पनीय गति से पार्टी का पूरे देश में ऐसे विस्तार कर रहे हैं, जैसा न कभी देखा, न कभी सुना गया हो। पर ये सिर्फ तो आधी कथा है:-प्रधानमंत्री के साइड की कहानी तो एक धुरी हुई, और जिन चीजों में नरेंद्र मोदी का कोई तोड़ नहीं, उनही में से एक है अपने विचारधारा की सफल स्थापना करना। जबसे इनहोने प्रधानमंत्री के पद को ग्रहण किया है, तब से इनहोने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन नहीं किया है, और बड़े ही कम साक्षात्कार भी दिये हैं। अपने पाले में पड़े सबसे उचत्तम तर्कों सहित जो ये हर हफ्ते भाषण देते हैं, उससे इनहोने सोश्ल मीडिया पर ही नहीं, बल्कि समूचे भारतीय राजनीति पर अपनी मजबूत पकड़ बना रखी है। वे मीडिया [चाहे वो मेंस्ट्रीम हो, अलटेरनेट हो या सोश्ल हो] के दबाव में आ कर कुछ नहीं बोलते। उल्टे उन्होने तो पासा ही पलट दिया है। वो जो कहते हैं, मीडिया को उसपे प्रतिक्रिया देनी पड़ती है, ना कि मोदी को मीडिया की बातों पे। वे प्रधानमंत्री हैं, और वे जो भी कहते हैं, वो अपने आप में खबर बन जाती है। उन्होने एक तरह से मीडिया को अपने हाथों में जकड़ के रखा है।
इस जकड़ से हमारे प्रधानमंत्री को अपने प्रिय मुद्दों पर विशेष ध्यान देने की छूट मिली है, चाहे वो भ्रष्टाचार के विरुद्ध कारवाई हो या सेनाओं के लिए उनका विशेष प्रेम, स्वच्छता के लिए उनकी मुहिम हो या फिर गरीबों में आत्मसम्मान जागृत करने की भावना हो, या फिर भारतीयों में आत्मसम्मान और आत्मगौरव जागृत कराने की उनकी मुहिम हो, इन विषयों पर हमारे प्रधानमंत्री की भावनाओं ने उन्हे एक अलग पहचान देने में एक अहम भूमिका निभाई है। ऐसे विषयों पर प्रधानमंत्री के सार्थक प्रयास ही उनके इस अभियान को विश्वसनीयता प्रदान करता है।
सभी नेता भ्रष्टाचार हटाने की बातें करते हैं। काफी लंबे समय तक दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में मसीहा माना जाता था। पर विमुद्रीकरण के बाद, चाहे अच्छा हो या बुरा, सारा श्रेय तो अब प्रधानमंत्री को मिल रहा है, और मिलना भी चाहिए। हर राजनेता सेनाओं की बड़ाई करता है, पर ओआरओपी, सर्जिकल स्ट्राइक्स और डोकलम मुद्दों, जहां पर ये साफ ज़ाहिर है की आखिरकार सेनाओं को खुली छूट दी जा रही है, ये दर्शाता है की प्रधानमंत्री ने अपने इरादों पर बखूबी काम किया है, और वे जो कहते है, वो करके दिखाते भी हैं।
प्रधानमंत्री की स्वच्छता को बढ़ावा देने की मुहिम राजनैतिक नज़रिये से काफी अनोखी ज़रूर है, पर इससे वे अधिकांश भारतीयों में काफी लोकप्रिय हैं। जो मुद्दे भारतीयों को मूल रूप से परेशान करते हैं, उनही पर आवाज़ उठाने वाले यह इकलौते भारतीय राजनेता प्रतीत होते हैं। चाहे गांवों में बिजली पहुंचाना हो, गरीबों के लिए गैस सिलिंडर, वित्तीय सहायता हो या फिर बेघरों के लिए घर, दशकों से ठगी आई जा रही जनता को आखिरकार एक सच्चा मसीहा दिख रहा है।
नरेंद्र मोदी अब भ्रष्टाचार विरोधी, स्वच्छ, राष्ट्रवादी, गरीबी उन्मूलन के समर्थक और सकरतमकता के प्रतीक प्रतीत होते हैं कई भारतीयों के लिए। प्रधानमंत्री ने और कुछ भले न हासिल किया हो, पर विपक्षियों के विरोध का दारा बहुत सीमित कर दिया है। अगर विपक्ष प्रधानमंत्री पर बरसती है, तो गौ रक्षा के नाम पर हो रही हत्या कोई विरोध का प्रमुख मुद्दा नहीं प्रतीत होता, और न ही लोग इससे प्रभावित होंगे, क्योंकि यह इनके सोच के दायरे से ही बाहर रहता है। समूचा विपक्ष, चाहे वो मीडिया हो या राजनेता, अब ऐसी जगह आ गए हैं, की आगे कुआं है, तो पीछे खाई। अब अगर नई विचारधारा के बाहर विरोध करेंगे, तो कोई भाव नहीं देगा, और उसके अंदर करेंगे, तो उनकी खुद की कलई खुल के सामने आएगी।
क्रिकेट में कहते हैं, कुछ बल्लेबाज़ इतने प्रतिभावान होते हैं, की वो गेंदबाज से जैसे चाहें, वैसे गेंद फिंकवाते हैं। राजनीति के खेल में ऐसे ही बल्लेबाज़ प्रतीत होते दिख रहे हैं प्रधानमंत्री मोदी जी। यदि काँग्रेस पार्टी को अपना अस्तित्व बनाए रखना, तो उन्हे सर्जिकल स्ट्राइक पर, विमुद्रीकरण पर और उनके विदेशी दौरों पर तार्किक विरोध करना होगा, क्योंकि यह काफी लोकप्रिय फैसले हैं। पर अपना अस्तित्व बनाए रखने की जुगत में काँग्रेस तो खुद ही अपनी कब्र खोद रही है। एक विपक्षी के लिए गुमनामी और बदनामी में चुनना काफी मुश्किल होता हैं, और काँग्रेस पार्टी को अब इस बात का आभास हो रहा है।
बसपा और वामपंथी पार्टियां तो गुमनामी के अंधेरे में खोने को विवश हो गयी। काँग्रेस पार्टी तो पिटने के लिए तैयार थी, और समाजवादी पार्टी ने तो दोनों का मिश्रण ही अपने लिए चुन लिया। पर जिस तरह नरेंद्र मोदी अपने व्यक्तित्व से भारतीय राजनीति को एक नयी पहचान देने में लगे हुये हैं, उस परिप्रेक्ष्य में विपक्ष में बैठे ममता और केजरीवाल जैसे समझदार नेता अपनी गलतियों से सीख कर अपने नुकसान को थोड़ा कम करने में लगे हुये हैं।
प्रशासनिक कुशलता के अलावा, यहाँ प्रधानमंत्री का राजनैतिक कौशल भी जनता के समक्ष दिखा है। अब भाजपा की राजनीति सिर्फ अमित शाह की विजय तक सीमित नहीं है, ये अब दोधारी तलवार बनती हा रही है। क्योंकि अमित शाह इस शस्त्र का चेहरा है, इसलिए ममता जैसे लोग इनसे भिड़ सकते हैं।