हाल ही में एक प्रसिद्ध वामपंथी विचारक आकार पटेल ने अपने फर्स्टपोस्ट के एक लेख में विचार व्यक्त किया, जिसमें उन्होंने बताया जगन्नाथ पुरी मंदिर की भव्यता से बहुत प्रभावित हैं लेकिन वह इस बात से दुखी हैं कि इस भव्य मंदिर में गैर हिंदुओं के प्रवेश की अनुमति नहीं है। यहाँ पर इस लेख में दो बातें पहली, आकार पटेल के लेख का खण्डन तथा दूसरी, लोगों को इस बारे में जानकारी देने की कि क्यों जगन्नाथ मंदिर और देश के अन्य कई मंदिरों में किसी गैर हिंदू के प्रवेश पर प्रतिबंध है।
यह भगवान जगन्नाथ हैं, जो ओडिशा के सबसे सम्मानित और पूजनीय देवता हैं।
भगवान जगन्नाथ के हाथों को देखें। उनके हाथों में हथेलियां नहीं हैं और एक भी उंगलियां नहीं हैं। बंगाली में, “थूटो जगन्नाथ” नामक एक शब्द है। “थूटो” का अर्थ है “विकलांग”। भगवान जगन्नाथ के हाथ क्यों नहीं हैं की कहानी कुछ प्रकार है।
महाभारत युद्ध के छत्तीस वर्षों के बाद, भगवान कृष्ण ने अपना दायित्व पूरा करने के बाद, इस नश्वर दुनिया को छोड़ने का फैसला किया। तभी उनपर एक शिकारी ने तीर से हमला किया, जिसे जरा नाम से जाना जाता था, उस तीर से भगवान कृष्ण गंभीर रूप से घायल हो गए, और अन्ततः नश्वर शरीर का परित्याग किया। अर्जुन ने उसका अंतिम संस्कार किया लेकिन भगवान कृष्ण का पूरा शरीर राख में बदल गय सिर्फ उनके ह्रदय को छोड़कर, , जो अब भी जीवित था और धड़क रहा था। एक भविष्यवाणी के अनुसार, अर्जुन ने ह्रदय को समुद्र में विसर्जित कर दिया। ह्रदय समुद्र में तैरता रहा और एक नीले रंग की मूर्ति में परिवर्तित हो गया – जिसे नीलमाधव कहा जाता है। यह मूर्ति पश्चिमी तट द्वारका से पूर्वी तट पुरी तक तैर कर पहुंची थी। जिसे कलिंग के विश्ववासु नामक एक आदिवासियों के सरदार ने प्राप्त किया और इसे एक गुफा में रखा।
राजा इंद्रदुयुम्न ने जब मूर्ति के बारे में सुना तो मूर्ति को प्राप्त करने के लिए अपने मंत्री विद्यापति को भेजा। विद्यापति को विश्ववासु की बेटी से प्रेम था और उसने विश्ववासु की बेटी से शादी करने के बदले मूर्ति को एक बार देखने की शर्त रखी। विश्वावासु विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांध कर उसे गुफा में ले गया। उसे यह ज्ञात नहीं था, विद्यापति चुपचाप गुफा में पहुँचने के रास्ते पर सरसों के बीज डाल रहा है। जब विद्यापति ने मूर्ति को देखा, तो वह आनन्द और भक्ति से अभिभूत हो गया और इस तरह एक निर्दोष आदिवासी को धोखा देने के लिए उसे खेद हुआ।
कुछ दिनों बाद, राजा इंद्रयुम्न मूर्ति को प्राप्त करने के लिए बड़ी सेना के साथ वहाँ पहुंचे। विश्वावासु और विद्यापति की मूर्ति न ले जाने की विनती को अस्वीकार करते हुए, राजा गुफा में प्रविष्ट हुए, लेकिन अंदर पहुंच कर राजा आश्चर्य चकित थे क्योंकि मूर्ति वहाँ से गायब हो गई थी। राजा को अपनी भूल पर पछतावा हुआ और वह क्षमा याचना करते हुए अपने राज्य बापस चला गया। राजा को सपने में, एक दिव्य आवाज ने पुरी के समुद्र तट पर जाने के लिए कहा, जहाँ उन्हें भगवान विष्णु के निशान वाली एक लकड़ी की वोट (लकड़ी का लट्ठा) मिलेगा। भविष्यवाणी के अनुसार, राजा को शंख के निशान के साथ एक लकड़ी मिली, यह भगवान कृष्ण का ह्रदय था, जो पहले नीलमाधव में बदल गया था और बाद में लकड़ी में बदल गया। राजा ने पुरी में एक मंदिर का निर्माण करवाया और मूर्तिकारों के द्वारा लकड़ी से मूर्तियाँ बनाने की कोशिश की, लेकिन कोई भी उस लकड़ी की वोट पर एक खरोंच भी नहीं बना सका। बाद में, एक बूढ़े आदमी ने दावा किया कि वह लकड़ी को मूर्ति बना सकते हैं। उन्होंने एक शर्त रखी कि जब तक वह दरवाजा बंद करके मूर्ति बनाएंगे तब तक कोई भी उन्हे परेशान नहीं करेगा।
जब वह बूढ़ा व्यक्ति मूर्तियों को बनाने का काम कर रहा था तब राजा की रानी गुंडिचा छिपकर काटने पीटने बनाने की आवाज सुना करती थीं। एक दिन, उन्हे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। राजा और रानी ने सोचा कि शायद बूढ़ा आदमी बीमार हो गया होगा और यह सुनिश्चित करने के लिए, उन्होंने कमरे में प्रवेश किया पर उन्हे वहां पर कोई नहीं मिला। जगन्नाथ, बालभाद्र और सुभद्रा की अपूर्ण प्रतिमाएं बड़ी गोल आंखों और शरारती मुस्कुराहट के साथ वहां खड़ी थीं। राजा ने अपनी जल्दबाजी के लिए पश्चाताप किया और अपूर्ण मूर्तियों को मंदिर में स्थापित करवाया। उस दिन से, राजा ने मूर्तियों के हाथों को पूरा करवाने के लिए नए मूर्तिकारों को लाने की कोशिश की, लेकिन सभी असफल रहे।
राजा भगवान के अपूर्ण हाथों के विषय में परेशान था। किंवदंती के आधार पर कहा जाता है, भगवान जगन्नाथ ने उन्हें सपने में दर्शन दिए और बिना हांथो के ही मूर्तियों को स्थापित करने का आदेश दिया। भगवान ने कहा- “मैं पूरे ब्रह्मांड को देख रहा हूँ और ऐसा करना जारी रखूंगा। मैं चाहता हूँ कि मेरे उत्साही भक्त ही मेरी देखभाल करें। अगर आज मेरे हाथ होंगे, तो आप लोग और मेरे उत्साही भक्त मेरे भरोसे हो जाएंगे। मैं चाहता हूँ कि आप लोग आत्मनिर्भर हों और मुझे बचाने के लिए स्वयं मजबूत हों”। हम उड़िया मानते हैं कि भगवान जगन्नाथ ने इस तरह बने रहने के लिए इसलिए चुना ताकि उड़िया अपना गौरव और सबसे महत्वपूर्ण रूप से उनके भगवान तथा अपनी भूमि की रक्षा करने के लिए आत्मनिर्भर और मजबूत हो सकें।
[Note: This was earlier mentioned by me in another write-up in Quora under a different pen-name: https://www.quora.com/Krishna-loves-cows-so-why-doesnt-he-come-to-Earth-again-to-protect-them-from-being-slaughtered/answer/Satyarth-Routroy]
भगवान जगन्नाथ हमारे परिवार के सबसे बड़े सदस्य की तरह हैं और हम हर काम करने से पहले उनका आशीर्वाद लेते हैं। यहां तक कि हम उन्हे ओड़िशा के स्पष्ट राजा के रूप में मानते हैं। 1207 ईस्वी में, गजपति अनंगभीमदेव तृतीय चोडगंगा सिंहासन से नीचे उतर गए। उड़ीसा का सिंहासन ब्रह्मांड के भगवान जगन्नाथ को सौंप दिया गया था, जो पुरी में अपने महान मंदिर के भगवान भी थे। हम, ओडिशावासी हमारे भगवान की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं और हमने इस बात को इतिहास में साबित किया है।
किसी भी गैर हिंदू को हमारे मंदिरों में प्रवेश न करने का नियम, हमारे भगवान की गरिमा और पवित्रता को बनाए रखने के लिए कई सावधानियों में से एक है। इन नियमों और सावधानियों के कारण ही, हमारा जगन्नाथ मंदिर अभी भी अखण्ड और सुंदर है, जबकि कई आक्रमणकारियों ने मंदिर को नष्ट करने की कोशिश भी की थी।
कई हिंदू मंदिरों के अंदर गैर-हिंदुओं को प्रवेश देने से इनकार करने का नियम इतिहास के अंधेरे पन्नों से उत्पन्न हुआ। हिन्दू धर्म भारत का सबसे पुराना तथा प्रमुख धर्म है। वर्तमान भारत एक बहुत बड़े भू-खण्ड का एक हिस्सा था, जिसे अखंड भारत कहा जाता है। अखण्ड भारत में हिंदू धर्म प्रमुख सनातन धर्म ही था और वर्तमान आधुनिक भारत सनातन धर्म का केंद्र था, जिसे आज हिंदू धर्म के रूप में जाना जाता है। हिन्दू धर्म वर्तमान भारत में उत्पन्न और विकसित हुआ। अब्राहमिक धर्म जैसे इस्लाम और ईसाई बहुत बाद में उत्पन्न हुए और भारत के बाहर विकसित हुए।
जगन्नाथ मंदिर की तरह अन्य हिंदू मंदिर, हिंदुओं के धार्मिक तीर्थ स्थल हैं। एक सच्चा हिंदू किसी भी मंदिर का अपमान, निरादर या तहस नहस करने के बारे में कभी नहीं सोचेगा, भले ही वह किसी अन्य देवता का हो जिसकी वह आराधना नही करता है। प्राचीन काल और पूर्व-मध्य युग के दौरान, कई हिंदू राजाओं के बीच कई युद्ध हुए लेकिन इन युद्धों में कभी भी किसी भी हिंदू मंदिर का विनाश नहीं किया गया।
कलिंग का ही उदाहरण ले लें। दो सदियों तक राउत्रे साम्राज्य, अवध से तमिलनाडु तक विभिन्न युद्धों में शामिल हुआ और अभिलेखों के अनुसार, केवल एक बार उन्होंने एक मंदिर पर विजय प्राप्त की। ऐसा महान राजा गजपति पुरुषोत्तमदेव के कांची युद्ध के दौरान हुआ था। इस युद्ध के दौरान हासिल किए गए सिक्के, सोना और गहने, जगन्नाथ मंदिर के खजाने में दान कर दिए गए थे। कांची के “विजय प्राप्त” मंदिर में स्थापित देवताओं भगवान गणेश और श्री गोपाल को कलिंग में स्थानांतरित कर दिया गया था। जगन्नाथ मंदिर परिसर के अंदर स्थित एक बड़े पत्थर के मंदिर में भगवान गणेश को स्थपित किया गया था। श्री गोपाल को शुरूआत में कटक के बारबाटी किले में स्थापित किया गया था; बाद में उन्हे एक आक्रमण के दौरान खुर्दा में स्थानांतरित कर दिया गया था और अंत में उन्हे भी पुरी के सत्याबादी में स्थानांतरित कर दिया गया था। गहने, आभूषण तथा सोने आदि को नए मंदिरों में उचित सम्मान के साथ स्थानांतरित कर दिया गया था। पुरोहितों और सेवकों को पुरी या काशी या मथुरा जैसे अन्य पवित्र शहरों में स्थानांतरित करने का विकल्प दिया गया था। इससे यह साबित होता है कि हिंदू मंदिरों को “नए स्थानों पर” केवल दुश्मन को अपमानित करने के लिए स्थानांतरित किया गया। लेकिन कांची से तीर्थयात्री आसानी से पुरी की यात्रा कर सकते थे जब मुख्य देवताओं को नए मंदिरों में स्थानांतरित कर दिया गया था। यहां तक कि जब कलिंग अपने सीमावर्ती साम्राज्यों के साथ युद्ध में व्यस्त था इसके विपरीत, उन साम्राज्यों के हिंदू तीर्थयात्री आसानी से कलिंग में किसी धार्मिक स्थल पर आ जा सकते थे। कारण सरल था, कलिंग राज्य में स्थापित सम्मानित हिंदू देवताओं का सम्मान अन्य हिंदू साम्राज्यों के लोगों द्वारा किया जाता था। लगभग सभी हिंदू साम्राज्यों के साथ यही मामला था।
हिंदू मंदिरों में गैर-हिंदुओं को अनुमति न देने का मुख्य कारण अलग-अलग श्रद्धालुओं की मानसिकता पर संदेह और विभिन्न धर्मों का भारतीय इतिहास पर प्रभाव है। उदाहरण के लिए, कई आक्रमणकारियों, जो ज्यादातर मुस्लिम थे, ने कम से कम 20 बार जगन्नाथ मंदिर पर हमला किया। पुरोहितों और सेवकों ने आक्रमणकारियों के गंदे हाथों से मूर्तियों को हमेशा बचाया। “मदला पानजी” नामक एक ऐतिहासिक अभिलेख के अनुसार, पहला आक्रमण, यवन सम्राट (संभवत: एक अरब देश का शासक) रक्ताबहू नामक द्वारा किया गया था, जो 319-323 इस्वी के दौरान राजा शोभनदेव के शासनकाल के दौरान हुआ था। आक्रमणकारियों के द्वारा मूर्तियों का अपमान किए जाने से पहले ही पुरोहितों और सेवकों ने मूर्तियों को मंदिर से स्थानांतरित कर दिया था। पुरोहितों और सेवकों ने स्वर्णपुर में एक बरगद के पेड़ के नीचे 150 साल तक मूर्तियों को दबा कर रखा और इसे पुनर्स्थापित करने के लिए “दियान बार” का संकेत दिया। बाद में, महान राजा जयती केशरी प्रथम ने कलिंग से विदेशी आक्रमणकारियों को भगा दिया और भगवान को वापस मंदिर में स्थापित किया। इसके अलावा, पुरी मंदिर पर कम से कम 18 हमले किए गए हैं जिनमें से कुछ नीचे दिए गए हैं:
- दिल्ली के सुल्तान, फिरोज शाह तुगलक ने पुरी पर उस समय हमला किया, जब गंगा राजा भानदेव तृतीय अपने राज्य से बाहर थे। इस हमले के दौरान वहाँ के पुजारी और सेवक, अपने देवताओं की कृपा से बच निकलने में कामयाब रहे, पुरी के प्रचीनतम मंदिर को नष्ट करने से पहले ही, भानदेव तृतीय अपने प्रभु के मंदिर को बचाने के लिए अपने राज्य में वापस लौट आए और फिरोज शाह तुगलक से यूद्ध किया।
- 1509 ईसवी में, बंगाल सुल्तान के सेनापति इस्माइल गाजी ने बदाड्यूला पर उस समय हमला किया, जब वहाँ के सूर्यवंशी, दक्षिण में अपने एक अभियान में व्यस्त थे। उनके पुरोहितों और सेवाकारियों ने अपने देवताओं की पूज्यनीय मूर्तियों को, चिलका में चंडीगुआ की पहाड़ियों में छिपा दिया। जब राजा प्रतापरुद्रा, इस्माइल गाजी को सबक सिखाने के लिए अपने राज्य में वापस लौट आए, तब उनके भय से इस्माइल गाजी पुरी भाग गया।
- बंगाल के सुल्तान सुलेमान कर्रिनी की हालांकि दो पत्नियां थीं, परन्तू उनकी पूत्री एक ही थी, उनकी बेटी दुलारी, जिससे बंगाल के दो ब्राह्मणों कलाचंद रॉय और राजीव लोचन रॉय को प्यार हो गया। अपनी बेटी की शादी रॉय के साथ कराने के लिए राजी हो गए, लेकिन उनकी एक शर्त थी कि रॉय को अपना हिन्दु धर्म छोड़कर, इस्लाम को अपनाना पड़ेगा। रॉय मुस्लिम तो बन गए, लेकिन बाद में वह हिंदू धर्म को फिर से अपनाना चाहता थे, जिसके लिए लोग सहमत नहीं थे। सुलेमान कर्रिनी इस बात से बहुत नाराज हुए और उन्होंने अपनी सेना का नेत्तत्व करते हुए, कई हिंदू साम्राज्यों पर हमला किया और उनके मंदिरों को नष्ट कर दिया और इतिहास में इस शैतान का नाम “कालापहाड़” के नाम से प्रसिद्ध हो गया। कालापहाड़ ने, राजा मुकुंददेव के साथ विश्वासघात करके उनके राज्य पर अपना का कब्जा कर लिया। उसके बाद वह जगन्नाथ, बालभद्रा और सुभद्रा की मूर्तियों को नष्ट करने के लिए गया। मन्दिर के पुरोहितों और सेवकों ने मूर्तियों को वहाँ से हटा दिया और उन्हें परिकुदा में हैतीपटना में छिपा दिया। कुछ लोगों का मानना है कि कालापहाड़ ने हैतीपतना से मूर्तियों को से निकालकर, जला दिया था। बाद में इन “ब्रह्मपिंडों” को अमुरा नामक भक्त द्वारा प्राप्त कर लिया गया। उन “ब्रह्मपिंडों” का प्रयोग करके नई मूर्तियां स्थापित की गईं। हालांकि, यह सत्य पूर्णता विवादास्पद है। कुछ अभिलेखों का कहना है कि कालापहाड़ को कभी यह मूर्तियोँ प्राप्त ही नहीं हो सकी। कालापहाड़ ने पूरे पुरी नगर को तोड़फोड़ डाला और साथ ही कई मंदिरों को भी नष्ट कर दिया और कोणार्क के लिए निकल गया।
- 1592 में, सुलेमान कर्रिनी के दो बेटों, सुलेमान और उस्मान ने जगन्नाथ मंदिर पर हमला किया।
- 1607 में, बंगाल के नवाब के सेनापति मिर्ज़ा खुर्रम ने पुरी पर हमला किया।
- 1604 में, कासिन खान ने ओडिशा के पहले सुबेदार के रुप में पुरी पर हमला किया।
- 1610 में, एक रथ यात्रा के दौरान, केशो दास नाम का एक हिंदू राजपूत जदिर, जो कासिम खान के तहत काम करता था, वह अपने सैनिकों के एक दल के साथ, एक सामान्य नागरिक की वेशभूषा में पुरी में आए। पूरी के रक्षक के रुप में पुरुषोत्तम देव और उनके (मिलिशिया) सैनिक, लगातार आठ महीने तक केशो दास की सेना से लड़ते रहे।
- 1611 में, मुगल सम्राट अकबर के राजस्व मंत्री कल्याण माले ने पुरी पर हमला किया
- 1617 में, ओडिशा राज्य के सुबेदार ने जगन्नाथ मंदिर को नष्ट करने के लिए पुरी पर हमला किया
इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि जगन्नाथ मंदिर एक बड़ा हिंदू तीर्थ स्थल है, जिसके कारण इस मंदिर को कई अन्य धर्मों के अनुयायियों के कई हमलों का सामना करना पड़ा और उनका मुख्य उद्देश्य एक ही था कि इस मंदिर को नष्ट करना और मूर्तियों को भ्रष्ट करना और हिंदुओं के धर्मिक के प्रति विश्वास को तोड़ना।
हिंदूओं के लिए उनके मंदिर मात्र धार्मिक स्थान ही नहीं थे, उनके लिए ये विशाल ज्ञान और बुद्धिमत्ता के स्त्रोत भी थे, कई हिंदू मंदिरों में गुरुकुल जैसी संस्थाएं भी थीं, जहां विद्वान चर्चाओं और शिक्षाओं में भाग लेते थे। इन मंदिरों पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारियों का मुख्य उद्देश्य ज्ञान और दर्शन के इन प्रतीक को नष्ट करना था और इसलिए, उन्होंने हिंदूओं को अपमानित करने के लिए, उनके एक समुदाय के अध्यात्मवाद का निरादर किया। मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा काशी में, मथुरा में, सोमनाथ मंदिर में और सबसे प्रमुख रूप से अयोध्या में श्रीराम की जन्मभूमि में बनाएं गए, कई मंदिरों को नष्ट कर दिया गया। कई हिंदू मंदिरों को इस सहस्राब्दी पुरानी शत्रुता का सामना करना पड़ा, हिंदू मंदिर प्रशासन ने उन नियमों को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया जिसमें गैर-हिंदु व्यक्तियों द्वारा प्रविष्टियों से इनकार किया जाता था। इस बात पर विश्वास करना इतना मुश्किल क्यों है कि लोग मंदिर में, आपत्तिजनक वस्तुओं के साथ प्रवेश कर सकते है, मंदिर के अंदर थूक सकते हैं या मूर्तियों पर पेशाब या मंदिरों में गाय का शव में फेंक सकते हैं? एक गैर-हिंदू व्यक्ति, मंदिरों की पवित्रता का उल्लंघन कर सकता है।
असल में, “गैर-हिंदु” शब्द का मतलब उन लोगों से लगाया जाता है, जो हिंदू धर्म में श्रद्धा और विश्वास नहीं रखते है। यह एक स्वाभाविक तथ्य है कि यदि कोई व्यक्ति किसी चीज़ में विश्वास नहीं करता है, तो एक संभावना है कि उसके मन में उस चीज प्रति कोई सम्मान का भाव नहीं भी होता। जबकि मध्ययुगीन आक्रमणकारियों ने हिंदू मंदिरों को नष्ट करने और देवताओं के प्रति उनके विश्वास को तोड़ने के लिए, गर्दन के चारों ओर गाय का मांस लगाया, वही यूरोपीय विद्वानों ने बौद्धिक युद्धों के माध्यम से हिंदूओं के देवी- देवताओं, रीति-रिवाजों और दर्शन के सिद्धांतों की निन्दा करने का विचार किया। सर विलियम जोन्स द्वारा मनु स्मृति का सबसे हाल ही में अनुवादित संस्करण कई प्रतिगामी छंदों के साथ एक बहुत ही विवादास्पद पुस्तक बन गया है जो अक्सर हिन्दुओ के पिछड़ेपन के उदाहरनार्थ सामने रखा जाता है। अब जरा इन विडंबनाओं को देखते हैं:-
- ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने अपनी पुस्तक में वाराणसी का अनुवाद नहीं किया और उन्होंने इसे बनारस बना दिया।
- उन्होंने तिरुवनंतपुरम को त्रिवेन्द्रम बन दिया।
- उधगमंडलम को ऊटी बन दिया।
- कलिकाता को कैलकटा बन दिया।
ऐसे कई मामले हैं। यहां तक कि बंगाली लेखक और ऑस्कर पुरस्कार विजेता सत्यजीत रे ने भी एक बार लिखा था कि एक ब्रिटिश अधिकारी ने दरवाजा बंद करने के लिए, अपने ऑर्डरली को आदेश देते हुए कहा था कि ” देयर वाज ऐ ब्राउन क्रो” क्योंकि उनके लिए यह कहना मुश्किल था कि “दरवाजा बन्द करो”। इसलिए, यूरोपीय विद्वान, जो कि संस्कृत और हिंदी शब्दों को ठीक प्रकार से बोलने में भी असमर्थ थे, क्या वे सही रूप से मनु स्मृति का अनुवाद कर सकते हैं? वास्तव में, इन विद्वानों ने हिंदू धर्म को बदनाम करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। उदाहरण के तौर पर शब्द रथ को ही ले लिजिए।
भगवान जगन्नाथ, ईसाई धर्म-प्रचारकों के लिए “मूर्तिपूजा का मूल” थे, जो बंगाल मार्ग के माध्यम से ओडिशा में पधारते थे। ईसाई धर्म-प्रचारकों ने मिशनरी क्लोडियस ब्यूकेनन के नेतृत्व में एक ” ऑल-आउट अटेक ” नामक एक योजना बनाई, जिसमें उन्होंने अपनी पुस्तक ‘क्रिसचन रिसर्च्स इन एशिया‘ में जगन्नाथ को, जग्गरनॉट के नाम के रूप में वर्णित किया और हिंदू धर्म को “खूनी, हिंसक,अंधविश्वासी और पिछड़े धार्मिक व्यवस्था” वाला धर्म माना। ब्यूकेनन के अनुसार, ईसाईयों के ईश्वर ईसा मसीह के सुसमाचार द्वारा यह आदेश दिया गया कि हिंदू धर्म को समाप्त करने की आवश्यकता है। उन्होंने जग्गरनॉट को मोलोच के साथ बाइबिल में वर्णित किया – एक शैतान, जिसकी बच्चों के बलिदान के साथ पूजा की जाती थी।
मोलोच का बाइबिल में एक पिशाच के रूप में वर्णन है, प्रसिद्ध वीडियो गेम फ्रेनचाईज (Mortal Combat) ने भी अपने खेल में मोलोच नामक राक्षसी चरित्र को जोड़ा है – जो एक मांस खाने वाला पिशाच है जिससे लोग सदियों से परेशान और पीड़ित हैं।
अपने किताबो में, ब्यूकेनन ने जगन्नाथ के मंदिर को ढकोसला कहा। उन्होंने दावा किया कि “जगन्नाथ की परंपरा” निरर्थक रक्तपात है जहां झूठे देवताओं की मूर्तिपूजा के लिए बच्चों की बलि दी जाती थी। इन्होंने यह भी दावा किया कि वे इस “घिनौनी रीति” के कारण जगन्नाथ को समर्पित भजन को नहीं पढ़ सकते थे। उन्होंने कहा जगन्नाथ के मंदिर की कलाकृति “अशोभनीय” है। बुकानन ने मक्कारी से दावा किया कि भगवान जगन्नाथ की वार्षिक रथ यात्रा एक खूनी रिवाज थी, जहां भगवान का रथ जब सड़कों पर चलता तो भक्त रथ के पहिये के नीचे खुद को डाल दिया करते जिसके परिणामस्वरूप एक खूनी त्यौहार होता था और हजारों भक्तों की मौत हो जाती थी। माइकल जे के अनुसार: ऑल्टमैन की किताब “हिथन, हिन्दू, हिन्दू: अमेरिकन ने भारत का प्रस्तुतीकरण किया है।
” ब्यूकेनन ने घोषित किया कि कहा जाता है जब रक्त की मदिरा बनायी जाती है तो भगवान खुश होते है। जब बुकानन ने खुद के लिए ईश्वर की छवि को देखा, तो बुकानन ने इसे भयंकर काले और खूनी रंग के मुंह के साथ वर्णित किया है”।
आज, जग्गरनॉट का अर्थ एक निर्दयी, विनाशकारी और अचेतन यात्रा/आन्दोलन है- इसके लिए क्लाउडियस बुकानन जैसे लोग ज़िम्मेदार हैं।
जो हिंदू धर्म में विश्वास नहीं करते हैं, उन्हें हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि ये कोई मनोरंजन का पार्क नहीं है।
यह गैर-हिंदुओं के बारे में नहीं है। यह गैर-विश्वासियों और विदेशियों के बारे में है। यहां तक कि बाली के एक हिंदू को जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत नहीं दी गई थी क्योंकि वह विदेशी थे। यहां तक कि इस्कॉन के सदस्यों को जगन्नाथ मंदिर में अनुमति हाल ही में प्रदान की गयी थी। दूसरी ओर, भक्त कबीर और गुरु नानक जैसे गैर हिंदुओं को जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति दी गई थी क्योंकि पुजारी मानते थे कि वे भगवान जगन्नाथ के सच्चे भक्त थे। भगवान जगन्नाथ दुनिया के प्रभु है और उनकी रथ यात्रा के दौरान, सभी वर्णों के भक्त उनके रथ की रस्सी खींचते हैं। उनके कर्मचारियों में, सभी वर्णों के लोग मौजूद हैं। वही लोग भगवान के भोग और प्रसाद को खाना बनाते हैं। भगवान जगन्नाथ आदिवासियों के भगवान थे, जिन्हें विश्ववासु कहते थे और उन्होंने कई वर्षों तक उनकी सेवा की थी। एक समय के आदिवासियों के परिवार देवता, ओडिशा का सबसे सम्मानित देवता बन गए थे।