केरल में बाढ़ के रूप में आई भीषण तबाही से वहां का समान्य जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। इस तबाही में दर्जनों लोगों की जान जा चुकी है। ताजा रिपोर्ट्स की मानें तो केरल को वित्तीय सहायता देने के लिए विदेशी सरकारों के प्रस्ताव को भारत ने नम्रतापूर्वक लेने से मना कर दिया है। संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), कतर और मालदीव समेत कई देशों ने केरल में बाढ़ राहत के लिए सहायता पैकेज देने की घोषणा की लेकिन भारत ने सभी देशों को ये कहकर राहत पैकेज लेने से मना कर दिया कि देश अपनी समस्याओं से निपटने में सक्षम है। हालांकि, भारत ने सहायता लेने से इंकार के दौरान इस सहायता प्रस्ताव के लिए विदेशी देशों की सराहना भी की। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा, “भारत सरकार केरल में राहत और पुनर्वास की जरुरतों को घरेलू प्रयासों के जरिए पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध है।” इससे भारत ने दुनिया में ये संकेत दिया है कि भारत की स्थिति में पहले से ज्यादा सुधार हुआ है और वो अपनी समस्याओं से निपटने में सक्षम है।
एक समय था जब भारत को प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए आईएमएफ सहित अन्य विदेशी सरकारों से ज्यादा से ज्यादा आर्थिक मदद लेनी पड़ती थी लेकिन अब भारत विदेशी सहायता को न कहता है। दरअसल, भारत की ‘न’ के पीछे कई कारण है। पहला कारण है, कि 90 के दशक और आज के भारत में बहुत अंतर है। तब भारत को प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए आईएमएफ सहित अन्य विदेशी सरकारों आर्थिक मदद लेने के लिए मजबूर होना पड़ता था। आज भारत दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और उम्मीद की जा रही है कि जल्द ही यूनाइटेड किंगडम को पीछे छोड़ ये दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जायेगा। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने और दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के नाते भारत के पास अब अपनी समस्याओं से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं। केरल में बाढ़ ने भारी तबाही मचाई है, जान-माल का काफी नुकसान हुआ है। हालांकि, पहले की तुलना में आज बाढ़ प्रभावित राज्य में राहत और पुनर्वास की लागत पूरा करने के लिए भारत सरकार और उसके नागरिकों के पास पर्याप्त संसाधन है।
दूसरा, ये सभी को पता है कि अगर हम किसी देश से कुछ लेते हैं तो वो भी इसके बदले में अपना हित जरुर देखता है और वक्त आने पर लिए ऋण को किसी न किसी रूप में चुकाना जरुर पड़ता है। ध्यान देने बात है कि विदेशी देशों द्वारा दिया जाने वाला राहत कोष दान नहीं बल्कि वित्तीय सहायता है। अगर भारत विदेशी सहायता को स्वीकार करता है तो भविष्य में भारत को इसका ऋण किसी न किसी रूप में भुगतान करने के लिए बाध्य किया जायेगा। ऋण उसी अवस्था में लेना चाहिए जब आप अपने घरेलू संसाधनों की कमी को पूरा कर पाने में सक्षम न हो। हालांकि, भारत के पास घरेलू संसाधनों की कोई कमी नहीं है। ऐसे में भारत को किसी भी देश से सहायता लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। केरल में बाढ़ से आई तबाही से निपटने के लिए सहायता राशि को न कहने के पीछे एक ये वजह भी हो सकती है।
तीसरा, विदेशी देश अपनी पसंद के एनजीओ के जरिए देश में मदद पहुंचाते हैं जो विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) के तहत पंजीकृत होती हैं। विदेशी देशों से मिलने वाला राहत पैकेज कम नहीं होता। हाल ही में ये सामने आया था कि कई अज्ञात स्रोतों से वित्तीय सहयोग प्राप्त करने वाली स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) सक्रिय रूप से विकास-विरोधी और भारत विरोधी कार्यों में इसका उपयोग करती हैं। विदेशी वित्त पोषित गैर-सरकारी संगठनों में से अधिकांश गैरकानूनी स्रोतों से प्राप्त धन का उपयोग धर्मांतरण करने, आतंक को बढ़ावा देने और नक्सलवाद को पोषित करने के लिए करते हैं। पिछले महीने ही, 1,000 से अधिक गैर-सरकारी संगठनों को ब्लैकलिस्ट की सूची में डाला गया था। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिजू ने बताया था कि, “1,000 से अधिक एनजीओ विदेशी धन का गलत इस्तेमाल कर रही हैं और एफसीआरए 2010 का उल्लंघन कर रही हैं जिस वजह से उन्हें विदेश से मिलने वाली सहायता पर रोक लगा दी गयी है।” यही वजह है कि एफसीआरए अधिनियम के तहत इस तरह के संगठनों के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है। एनजीओ का एफसीआरए अधिनियम के तहत पंजीकृत होना आवश्यक है तभी वो विदेश से वित्तीय सहायता प्राप्त कर सकेंगी। इसके अलावा सभी बैंकों को किसी भी व्यक्ति द्वारा विदेशी मुद्रा से जुड़े लेन-देन की रिपोर्ट केंद्र सरकार को 48 घंटे के भीतर देना होगा। शायद विदेशी सहायता को न कहने के पीछे की वजहों में से एक कारण ये भी रहा होगा।
आखिरी कारण है, पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में तनाव बढ़ने की स्थिति उत्पन्न होने का खतरा। केरल में बाढ़ के हालात को देखते हुए एक ओर यूएई ने केरल को 700 करोड़ रुपये की पेशकश की है तो वहीं, कतर ने 35 करोड़ रूपये और मालदीव ने 35 लाख रूपये की वित्तीय सहायता की घोषणा की। भारत किसी भी देश से सहायता राशि स्वीकार कर सकता था लेकिन भारत ने तीनों ही देशों को नम्रतापूर्वक मना कर दिया। अगर भारत यूएई को हां कहता तो शायद मालदीव या कतर इसे अपना अपमान समझते या इसके विपरीत भी हो सकता है। ऐसे में भारत का विदेशी देशों को न कहना अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में मधुरता को बनाये रखना भी था। गौरतलब है कि, भारत ने वर्ष 2004 से किसी भी तरह की प्राकृतिक आपदा के लिए विदेशी आर्थिक मदद लेने की परंपरा पर रोक लगा दी थी लेकिन इसके बावजूद भारत ने अपने पड़ोसी देशों को उनके मुश्किल हालात में आर्थिक मदद देने में इजाफा भी किया है। जब वर्ष 2004 की सुनामी में काफी क्षति हुई थी तब भी भारत ने दूसरे किसी भी देश से वित्तीय मदद नहीं ली थी जबकि उस दौरान श्रीलंका, थाइलैंड सहित अन्य देशों को आर्थिक मदद जरुर की थी।
केरल में आज बाढ़ से जो हालात है और जिस तरह से वहां तेजी से बचाव अभियान चलाया गया है वो सभी सवालों का जवाब है कि भारत अब अपनी घरेलू समस्याओं से निपटने में पूरी तरह से न सिर्फ सक्षम है बल्कि जरूरत पड़ने पर अपने पड़ोसी देश की मदद के लिए हर स्थिति में तैयार भी है। ऐसे में भारत सरकार द्वारा विदेशी सहायता को न कहने को असंवेदनशील निर्णय के रूप में लिया जाना गलत होगा।