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पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह विद्वान लेकिन एक असफल प्रधानमंत्री

Ajay Singh द्वारा Ajay Singh
28 December 2018
in मत
डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री

PC: vision mp

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पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी से हम सभी परिचित हैं। उनका जन्म 26 सितंबर 1932 को पंजाब प्रांत में हुआ। यह पंजाब बंटवारे के बाद अब पाकिस्तान के हिस्से में है। श्री मनमोहन सिंह ने पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक की पढ़ाई की। उन्होंने अर्थशास्त्र से परास्नातक की पढ़ाई पूरी की। पंजाब विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए श्री सिंह कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गए। यहा उन्होंने अर्थशास्त्र से पीएचडी किया। पढ़ाई-लिखाई में अव्वल, शांत और स्वभाव के गंभीर श्री मनमोहन डी.फिल. यानी डॉक्टर ऑफ फिलॉस्फी करने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय चले गए। श्री सिंह स्वभाव से जितने ही शांत और गंभीर थे उतने ही अंतरमुखी प्रतिभा के धनी थे।

पढ़ाई-लिखाई में विलक्षण प्रतिभा के धनी श्री सिंह अब तक अर्थशास्त्र पर महारथ हासिल कर चुके थे। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में वो काफी नाम कमा चुके थे। पढ़ाई पूरी करने के बाद स्वदेश लौटे मनमोहन सिंह दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में अध्यापन कार्य में लग गए। स्वभाव से बेहद विनम्र श्री सिंह के पीछे उपलब्धियां जुड़ती जा रही थीं। लेकिन इन उपलब्धियों का मनमोहन सिंह पर कोई असर नहीं पड़ रहा था। अपनी योग्यता के बूते श्री सिंह संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन सचिवालय में सलाहकार रहे। वह 1987 से 1990 तक जेनेवा में साउथ कमीशन के सचिव भी रहे। श्री सिंह पूरी जिम्मेदारी, कर्मठता और विनम्रता के साथ एक के बाद जिम्मेदारियों को सँभालते जा रहे थे। 1971 में भारत के वाणिज्यिक एवं उद्योग मंत्रालय में भारत के आर्थिक सलाहकार की भूमिका निभाने वाले श्री सिंह को 1972 में वित्त मंत्रालय का आर्थिक सलाहकार बनाया गया। श्री मनमोहन सिंह यूजीसी यानी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष भी रहे। सीधे कहें तो अंतरमुखी प्रतिभा के धनी और विनम्र श्री सिंह अपनी काबिलियत के दम पर हर जिम्मेदारी को बखूबी निभा रहे थे।

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बिहार चुनाव से पहले कांग्रेस का आत्मघाती दांव

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इस बीच साल 1990 के दौरान देश भयंकर आर्थिक मंदी की चपेट में आ गया। देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को लगा कि अब भारत में भयंकर आर्थिक संकट पैदा होने वाला है। इसी बीच 29 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या हो गई थी। ऐसे में कांग्रेस को सहानुभूति की लहर का लाभ प्राप्त हुआ। 1991 में दो चरणों में हुए इस चुनाव में कांग्रेस को 234 सीटें मिली। पार्टी में तमाम आंतरिक राजनीति, खींचातानी के बाद पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बनते हैं और वित्तमंत्री के तौर पर उनकी पहली पसंद थे पूर्व आर बी आई गवर्नर श्री आई जी पटेल, परन्तु पटेल के मना करने के बाद नरसिम्हा राव ने डॉ मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाने का प्रस्ताव पेश किया, इस घटना का उल्लेख पीसी अलेक्जेंडर अपनी आत्मकथा ‘थ्रू कॉरीडोर्स ऑफ पावर : एन इनसाइडर्स स्टोरी’ में कर चुके हैं ।

प्रधानमंत्री राव और वित्तमंत्री सिंह ने  कुशलता से परिस्थितियों से निपटना आरम्भ किया। दोनों ने मिलकर  देश को आर्थिक उदारीकरण का रास्ता दिखाया। देश की अर्थव्यवस्था का विश्व बाजार से गठजोड़ किया गया, पूंजी निवेश को बढ़ावा दिया गया और साथ ही साथ आर्थिक सुधार के कई कदम उठाये गए। मात्र 2 वर्षों में ही मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री रहते हुए देश की अर्थव्यवस्था न सिर्फ पटरी पर आ गई बल्कि जबरदस्त सुधार के साथ देश का ‘रुपया’ दौड़ पड़ा। अब तक श्री सिंह की नीतियों, कुशलता, विनम्रता और अंतरमुखी प्रतिभा की पूरी दुनिया कायल हो चुकी थी। यह वो समय था, जब एक ऐसा व्यक्ति, जो गैरराजनीतिक व्यक्ति था, प्रोफेसर था, जिसे कायदे से राजनीति का ककहरा तक नहीं मालूम था, जिसने हमेशा पठन-पाठन, शोध और अलग-अलग पदों की जिम्मेदारियां संभालने में समय दिया था, वह व्यक्ति एकाएक एक अच्छे वित्तमंत्री के रुप में उभरकर सामने आया।

यह वह समय था, जब डॉक्टर मनमोहन सिंह देश में ही नहीं, वैश्विक मंचों पर भी किसी पहचान के मोहताज नहीं थे। पीवी नरसिम्हा राव के कार्यकाल के बाद कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला। 16 मई 1996 को 13 दलों के गठबंधन वाली सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बनते हैं। लेकिन अटल जी की सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चली। यह सरकार 13 दिनों बाद ही गिर गयी। इसके बाद 1998 में फिर से चुनाव हुए। इस बार भी भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन को बहुमत मिला परन्तु अटल जी फिर भी पूरे 5 साल प्रधानमंत्री नहीं रह पाते हैं। यह सरकार भी मात्र 13 माह तक चली।,लेकिन साल 1999 में हुए चुनाव में एक बार फिर से अटल जी प्रधानमंत्री बनते हैं। उनके नेतृत्व में बनी ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन’ की सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने में सफल होती है। यह पहली ऐसी गैरकांग्रेसी सरकार थी, जिसने अपने 5 साल पूरे किए थे। इससे पहले मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने थे लेकिन वो भी अपने 5 साल पूरे नहीं कर पाए थे। इससे पहले 1996 में एचडी देवगौड़ा और उनके बाद इन्द्र कुमार गुजराल भी 11-11 महीने का कार्यकाल ही पूरा कर सके थे।

इस तरह से अटल जी की सरकार साल 2004 तक चली। अटल जी की सरकार में देश ने बड़े-बड़े आयाम हासिल किए। साल 2004 में हुए 14वें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने वापसी की। इस चुनाव के बाद कांग्रेस 145 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रुप में उभरकर आई। बीजेपी को इस चुनाव में 138 सीटें ही मिली थीं। इस चुनाव में कांग्रेस ने 15 से ज्यादा क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के साथ सरकार का गठन किया। इस गठन के बाद एक बात तो तय था कि प्रधानमंत्री कांग्रेसी दल का नेता ही होगा। ऐसे में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की प्रबल संभावना थी।

लेकिन इसी बीच देश के कई हिस्सों में सोनिया के नाम पर कड़े विरोध होने लगे। भारतीय जनता पार्टी की कद्दावर नेता सुषमा स्वराज ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर सोनिया देश की प्रधानमंत्री बनीं तो मैं विरोध में अपना सिर मुड़वा दूंगी। उनका कहना था कि इतने दिनों तक देश ने विदेशियों की बहुत गुलामी देखी है। अब हम और अधिक विदेशियों की गुलामी नहीं कर सकते। ऐसे में सोनिया को समझ में आ गया था कि उनका प्रधानमन्त्री बनना असंभव था और फिर उन्होंने महानता कार्ड खेलते हुए खुद प्रधानमंत्री न बनने का निर्णय लिया।

उन्होंने ऐसे समय में डॉक्टर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय लिया। श्री सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का सबसे बड़ा फायदा उन्हें यह था कि पार्टी में वह सर्वसम्मत नेता चुने गए। उनके नाम का किसी ने कोई विरोध नहीं किया। पार्टी के अन्य नेताओं में वर्चस्व की जंग थी इसलिए सोनिया के बाद किसी का नाम आने पर पार्टी में विद्रोह शुरू होने की प्रबल संभावना थी। मनमोहन सिंह का नाम एकाएक चुनकर सोनिया ने पार्टी में तकरार और वर्चस्व की लड़ाई होने से बचाया, और मनमोहन सिंह को स्टांप के रूप में इस्तेमाल करने वाले दौर का श्री गणेश भी किया।

मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल में अपना काम बखूबी करने की कोशिश जरूर की लेकिन जल्द ही उन्हें भी आभास हो गया कि उन्हें इस पद के लिए क्यों चुना गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेचारगी का वर्णन पहली बार उन्हीं के मीडिया एडवाइजर रहे संजय बारू  की पुस्तक “द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर” में किया गया है। इस पुस्तक के अनुसार सिंह के कार्यकाल के दौरान सोनिया गांधी ही सर्वेसर्वा बनीं रहीं। बीच-बीच में ऐसी सुगबुगाहटें आती रहीं कि प्रधानमंत्री कार्यालय की सारी फाइलें सोनिया गांधी से होने के बाद ही पीएमओ गुजरती थीं। प्रधानमंत्री कार्यालय में फाइलें केवल मनमोहन सिंह के हस्ताक्षर होने के लिए ही आती थीं। और तो और सोनिया गाँधी के नेतृत्व में नेशनल एडवाइजरी कॉउन्सिल नामक एक परिषद का गठन किया गया जिसका काम था पालिसी और सरकार के अन्य कामों की दिशा और दशा निर्धारित करना, यानि की प्रधानमत्री कार्यालय से ऊपर एक दूसरा सिस्टम ही खड़ा कर दिया गया। महान अर्थशास्त्री, डॉक्ट्रेट की उपाधि वाला आरबीआई का गवर्नर रह चुका, देश के वित्तमंत्रालय, यूजीसी समेत तमाम पदों पर रह चुका विनम्र, प्रतिभाशाली, महत्वाकांक्षाविहीन व्यक्ति प्रधानमंत्री जैसे पद पर होकर भी एक व्यक्ति विशेष द्वारा कठपुतली बना दिया गया था।

ऐसा बताया जाता है कि यूपीए की इस सरकार में पेपर पर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे लेकिन कांग्रेसी नेताओं के लिए सोनिया गांधी ही सर्वेसर्वा थीं। ऐसा बताया जाता है कोई भी कैबिनेट मंत्री अपनी  रिपोर्ट प्रधानमंत्री की बजाय सोनिया गांधी से ही साझा करता था। इस तरह से 2009 तक किसी तरह से यूपीए सरकार चली।

2009 में हुए लोकसभा चुनाव में एक बार फिर से कांग्रेस को 205 और यूपीए को 262 सीटें मिलीं। कांग्रेस को अभी भी बहुमत के लिए 10 सांसदों की जरूरत थी। उसकी इस जरूरत को सपा, बसपा जैसे क्षेत्रीय दलों ने पूरा कर दिया। इस तरह से 2009 में एक बार फिर से मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। इस बार दोबारा प्रधानमंत्री बनने के कारण मनमोहन सिंह का रुतबा थोड़ा सा बढ़ा ही था कि इसी बीच घोटालों का दौर सा शुरु हो गया। कोयला घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, नरेगा घोटाला, चारा घोटाला, यूरिया घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, सत्यम घोटाला, बोफोर्स घोटाला…. जैसो घोटालों की लंबी फेहरिस्त ने यूपीए-2 को एकदम से बैकफुट पर लाकर खड़ा कर दिया। लोग प्रधानमंत्री से जवाब चाहते थे। लेकिन मनमोहन सिंह से मानो मौन व्रत ले रखा था।

2013 आते आते बस एक ही नाम हर शख्स के जुबां पर था और वो था गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार श्री नरेन्द्र मोदी का। 2014 लोकसभा चुनाव आते-आते पूरे देश में ‘मोदी’ नाम की लहर सी चल उठी थी। बच्चे, नौजवान, बुजुर्ग, गरीब, दलित, महिलाएं, कर्मचारी…सभी के मुंह पर बस एक ही नारा था, ‘अब की बार मोदी सरकार ’। इस तरह से 2014 में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में हुए लोकसभा चुनाव में एनडीए को 336 सीटों पर अभूतपूर्व जीत मिली, जिसमे बीजेपी को 282 सीटें मिलीं। वहीं दूसरी ओर यूपीए को मात्र 60 सीटों पर जीत मिली जिसमें कांग्रेस केवल 44 सीटों पर आकर सिमट गई। इस तरह से 2014 में हुए 16वीं लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने देश के 15वें प्रधानमंत्री के रुप में कार्यभार सम्भाला।

मनमोहन सिंह के पास ना सिर्फ डिग्रियां और विद्वता थी बल्कि अनुभव भी था, वो चाहते तो देश के सबसे अच्छे प्रधानमंत्रियों की सूची में अपना नाम दर्ज़ करवा सकते थे पर हुआ बिलकुल इसके उलट। उन्होंने अपना नाम देश के सबसे कमज़ोर प्रधानमंत्रियों की लिस्ट में दर्ज़ करा दिया, उनके पास मौक़ा था और साथ ही था कुछ बदलने का माद्दा परन्तु उनके नेतृत्व में कांग्रेस अपने न्यूनतम चुनावी स्कोर पर आकर सिमट गयी। श्री मनमोहन सिंह का जीवन एक उदाहरण है की विद्वता और अनुभव आपको बस एक मुकाम तक ही ला सकते हैं परन्तु इतिहास बदलने के लिए चाहिए हिम्मत, हिम्मत जिनका शायद मनमोहन जी में सर्वथा अभाव था!

Tags: कांग्रेसडॉ मनमोहन सिंहप्रधानमंत्रीयूपीए
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