राजस्थान के मुख्यमंत्री पद पर युवा जोश के आगे अनुभव ने बाजी मार ही ली। दो दिन तक कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के आवास पर लगातार चली वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की बैठकों के बाद शुक्रवार को पार्टी अध्यक्ष अंतिम निर्णय पर पहुंचे। उन्होंने राजस्थान के मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी अशोक गहलोत को सौंपी और सचिन पायलट को राज्य का उप मुख्यमंत्री बना दिया।
यहां दो सवाल उभर कर आते हैं। पहला यह कि, चुनाव परिणाम आने के बाद से ही अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों गुट सीएम पद के लिए अपने नेता की दावेदारी छोड़ने को राजी नहीं थे, तो फिर ऐसा क्या हुआ कि, पायलट अंतिम समय में अशोक गहलोत के सीएम बनने पर राजी हो गए। वहीं दूसरा सवाल यह है कि, युवा जोश की बात करने वाले राहुल गांधी को क्यों पुराने चेहरे गहलोत को सीएम बनाना पड़ा। आइए पहले दूसरे सवाल का उत्तर जानने की कोशिश करते हैं।
पायलट को नहीं मिला पार्टी विधायकों का समर्थन
राजधानी जयपुर में 12 दिसंबर को कांग्रेस के नवनिर्वाचित विधायकों की बैठक हुई थी। पार्टी सुत्रों के अनुसार इस बैठक में अशोक और पायलट ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपना दावा पेश किया था। इस बैठक में जीतकर आए विधायकों को गहलोत और पायलट में से किसी एक का चयन करना था। खबरों के अनुसार, यहां अशोक को सीएम बनाने के पक्ष में करीब 70 विधायकों ने समर्थन दिया। इस तरह बैठक में जीतकर आए कांग्रेसी विधायकों ने बहुमत से गहलोत को ही सीएम बनाने का फैसला ले लिया।
निर्दलीय भी गहलोत के पक्ष में आए
सचिन पायलट गुट की ओर से बार-बार जो पार्टी में अंदरुनी अस्थिरता फैलाने का आरोप लगाया जा रहा था, वह बिल्कुल सही साबित हुआ है। दरअसल, पायलट गुट ने दावा किया था कि, अशोक ने अपने बहुत से समर्थक नेताओं को निर्दलीय चुनाव लड़वाया था जिससे चुनाव बाद स्वयं गहलोत अपने बलबूते उनका समर्थन ले सरकार बना सकें। पायलट गुट का यह दावा तब सच नजर आने लगा जब जयपुर की बैठक में गहलोत गुट ने 10 से ज्यादा निर्दलीय विधायकों के समर्थन का दावा किया। इनमें से कई निर्दलीय विधायकों ने तो खुलकर गहलोत को मुख्यमंत्री बनाए जाने का समर्थन किया है।
पार्टी को बहुमत ना मिलना गहलोत के पक्ष में गया
यदि यह कहा जाए कि, गहलोत को सीएम बनाने में निर्दलियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। दरअसल, कुछ महीनों में ही लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में राज्य में मजबूत सरकार का होना बहुत जरूरी था। कांग्रेस को विधानसभा चुनावों में 99 सीटें मिली, जो कि बहुमत से एक कम थी और यही बात अशोक गहलोत के पक्ष में चली गई। कांग्रेस को बाहर से समर्थन चाहिए था और बहुसंख्यक निर्दलीय विधायक पायलट की बजाय गहलोत को समर्थन देना चाहते थे।
गहलोत को गांधी परिवार का साथ
पायलट के बजाय गहलोत को मुख्यमंत्री बनाए जाने का एक कारण उनका गांधी परिवार के साथ अच्छा संबंध भी रहा है। खबरों के अनुसार, खुद सोनिया गांधी चाहती थीं कि, अशोक गहलोत ही मुख्यमंत्री बनें। उन्होंने फैसला लिया कि, अशोक को ही अगला मुख्यमंत्री बनाया जाए।
दूसरी तरफ हम सचिन पायलट की बात करें तो वे 2013 के चुनावों के बाद से ही राजस्थान में सक्रिय रहे हैं। साल 2013 के चुनाव में सूबे में कांग्रेस पार्टी की बुरी तरह से पराजय हुई थी। पार्टी उस समय 21 सीटों पर ही सिमट कर रह गई थी। ऐसे समय में पायलट को दिल्ली से राजस्थान बुलाया गया और राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष की कमान सौंपी गई। पायलट पूरी मेहनत से पार्टी को एक बार फिर खड़ा करने में जुट गए जबकि अशोक उस समय राजस्थान से इतर गुजरात और कर्नाटक में व्यस्त थे। पायलट ने पांच साल तक राज्य में पार्टी को फिर से खड़ा करने का काम किया। ऐसे में उनका सीएम पद की मांग से पीछे हटना चौंकाता है।
पायलट गुट तो यह भी आरोप लगाया आया है कि, अशोक गहलोत ने पार्टी में टांग खींचने की ही कोशिश की। अशोक पर टिकट बंटवारे में अड़ंगा लगाने, चुनाव में बागी उम्मीद्वार खड़े करने और उन्हें पोषित करने के भी आरोप लगते रहे। पायलट ने यह भी दावा किया कि, अगर पार्टी में सब ठीक चलता तो कांग्रेस राज्य में 125 सीटों से कम नहीं लेकर आती।
खबरों के अनुसार, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पायलट को उनके राजनीतिक भविष्य के लिए पूरा आश्वासन दिया है। उन्हें आम चुनाव के बाद की स्थितियों पर गौर करने के लिए कहा गया है। इसी आश्वासन के साथ सचिन ने न सिर्फ हां भरी, बल्कि गहलोत के साथ मिलकर काम करने की घोषणा भी की। राहुल गांधी ने पायलट और अशोक गहलोत को सुनने और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी व वरिष्ठ नेताओं की सलाह के बाद पायलट को अपना फैसला सुनाया तो सचिन का गला भर्रा आया। सचिन ने भरे हुए गले से संबंध, समर्पण और निष्ठा का हवाला देते हुए कहा था कि, उन्हें सुनने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष जो भी निर्णय लेंगे, उसे वह मान लेंगे।