आज ही के दिन पानीपत का युद्द हुआ था। भारत के इतिहास में, पानीपत की तीसरी लड़ाई बहुत महत्व रखती है। यह युद्ध 14 जनवरी, 1761 को अफगान शासक अहमद शाह अब्दाली और हिंदू मराठाओं के बीच दिल्ली से लगभग 100 किलोमीटर दूर पानीपत में हुआ था। इसी युद्द ने 1761 के बाद के भारत के इतिहास को आकार दिया। आज इसलिए इस पानीपत के तीसरे युद्द की चर्चाएं प्रमुखता से की जा रही है, क्योंकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने 2019 के लोकसभा चुनावों के संदर्भ में इस युद्द का जिक्र किया है।
1707 में मुगल शासक औरगंजेब की मौत के बाद भारत बहुत ही अस्थिर राजनीतिक स्थिति में फंस गया था। मुगल सल्तनत कमजोर पड़ रही थी। उसके साथी उसका साथ छोड़कर खुद को स्वायत्त घोषित कर रहे थे। जगह-जगह विद्रोह किये जा रहे थे। विद्रोह करने वालों में मराठा भी शामिल थे। मराठाओं ने खुद को बहुत मजबूत कर लिया था और दूसरे दक्कन से उत्तर भारत तक वो लगातार जीत हासिल कर रहे थे। सन् 1758 के करीब मराठाओं ने लाहौर और पेशावर तक अपनी पहुंच बना ली थी और अफगान शासक अहमद शाह अब्दाली के बेटे तिमुर शाह दुर्रानी को पंजाब और कश्मीर से बाहर धकेल दिया था, जिससे खफा होकर अहमद शाह अब्दाली मराठाओं से लोहा लेने के लिए अपनी बड़ी सेना के साथ पंजाब आ गया। यहां पहले छोटी लड़ाइयों में दोनों सेनाएं एक दूसरे को शह-मात देती रहीं। लेकिन अपने ही देश में अकेले पड़ने के कारण मराठाओं को धीरे-धीरे काफी नुकसान हुआ। दरअसल, मराठा राजपूतों, सिखों और जाटों को अपने साथ अब्दाली के खिलाफ लड़ने के लिए राजी नहीं कर पाए थे। वहीं, दूसरी ओर अहमद शाह को दो हिंदुस्तानी शासकों- दोआब के रोहिल्ला अफगान और अवध के शुजाउद्दौला नवाब की तरफ से मदद मिल रही थी और यही मराठाओं की हार का सबसे बड़ा कारण बना। पानीपत का तीसरा युद्ध होने तक मराठाओं की सेना इतनी कम और कमजोर हो चुकी थी कि यह युद्द एक ही दिन में खत्म हो गया था। युद्द के बाद अब्दाली की सेना ने अधिकतर मराठा लड़ाकों को या तो मार दिया था या बंदी बना लिया था।
मराठों की हार ने उत्तर भारत में एक शून्य छोड़ दिया था जिसका परिणाम यह हुआ कि, यहां ब्रिटिश राज्य के रूप में एक ‘क्रूर शासन’ की स्थापना हो गई और इसके साथ ही भारतीयों के शोषण का दौर शुरू हो गया।
इस एक लड़ाई ने भारत को संयुक्त हिंदू साम्राज्य बनने से रोक लिया था और अगले 200 वर्षों तक भारतीयों को विदेशी शासकों की अधीनता स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। उस समय एकमात्र शक्ति जो भारत को गुलाम होने से रोक सकती थी वह मराठा थी। अगर मराठा अहमद शाह अब्दाली से युद्ध नहीं हारे होते तो आज का भारत निश्चित रूप से अलग होता। मराठाओं की इस हार ने भारत में ब्रिटिश ताकत के लिए रास्ते तय कर दिए थे।
मराठों की पराजय के पीछे कई कारण थे। जिसमें मुख्य कारण हिंदुओं का एकजुट नहीं होना था। इस लड़ाई के समय, हिंदुओं को विभाजित कर दिया गया था, जबकि दूसरी तरफ, मुस्लिम एक ही बैनर तले एकजुट थे। मराठों ने अकेले ही विदेशी आक्रमणकारी से लड़ाई लड़ी और उसे पानीपत की महत्वपूर्ण लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा। इस हार के साथ, एक नया मुहावरा मराठी भाषा में प्रचलित हो गया, “इसका तो पानीपत हो गया (वह तो हार गया)।”
साल 2019 भी, हिंदुओं के लिए कुछ ऐसा ही है। अमित शाह ने शुक्रवार को कहा है कि, बीजेपी कार्यकर्ताओं को खूब मेहनत करनी होगी। अगर बीजेपी नहीं जीती तो ये पानीपत के तीसरे युद्ध जैसा होगा, जब अफगानों ने मराठों को हरा दिया था और देश अगले दो सौ सालों के लिए विदेशी ताकतों के हाथों में चला गया था। अमित शाह ने कहा है कि मराठाओं की हार से ही देश दो सौ सालों के लिए औपनिवेशिक गुलामी के दौर में डूब गया था। अमित शाह ने कहा है, “2019 का चुनाव एक निर्णायक लड़ाई होगी।
बता दें कि, स्वतंत्रता के बाद से, हिंदू-विरोधी ताकतों ने हिंदू सभ्यता और उसकी पहचान को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने सांस्कृतिक उपनिवेशवाद को जारी रखा है और हमेशा विभिन्न माध्यमों से हिंदू विरोधी ताकतों को बढ़ावा दिया है। 2014 में, ऐसी हिंदू-विरोधी ताकतों को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा, लेकिन वे फिर से सिर उठा रहे हैं और हिंदुओं के लिए चिंतित पार्टी को हराने के लिए अपने सहयोगियों के साथ आ रहे हैं। इस तरह की हिंदू-विरोधी ताकतें विदेशी तो नहीं हैं, लेकिन वे विदेशी आक्रमणकारियों की तुलना में हिंदू रीति-रिवाजों और भारतीय संस्कृती के अधिक विरोधी हैं। यदि हिंदुओं के दिमाग का उपनिवेशीकरण रोका जाना है, तो 2019 का साल सच्चे भारतीयों के लिए ऐसा करने का एकमात्र मौका प्रतीत होता है। यह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि, पानीपत की चौथी लड़ाई भाजपा और महागठबंधन के बीच लड़ी जाने वाली है।
वामपंथी मीडिया पीएम मोदी को सत्ता से बाहर करने के लिए अपने स्तर पर पूरी कोशिश कर रहा है, अगर वे अपने मिशन में सफल होते हैं तो 26/11 जैसे आतंकवादी हमले हमारे दैनिक समाचार का हिस्सा होंगे, हम फिर से बड़े घोटाले और कट्टरपंथी इस्लामवादियों के बारे में सुनेंगे, ज़ाकिर नाइक को पदोन्नत किया जाएगा, हिन्दू आतंकी जैसे शब्दों को फिर से गढ़ा जाएगा, अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का दौर फिर से वापस आ जाएगा, अर्थव्यवस्था और विकास को एक गंभीर झटका लगेगा, सिर्फ एक ‘परिवार के हित’ को राष्ट्रीय हितों पर प्राथमिकता दी जाएगी। इन सब के साथ ही गठबंधन सहयोगियों के स्वार्थ की लड़ाई राजनीतिक अस्थिरता पैदा करेगी।
सिर्फ लुटियंस मीडिया ही नहीं, ऐसे और भी लोग हैं जो 2019 के लोकसभा चुनावों में पीएम मोदी को हराना चाहते हैं। उनमें से एक होंगे NOTA का प्रयोग करने वाले लोग। ज्यादातर लोग जो NOTA के लिए उत्साह से प्रचार कर रहे हैं, उनका दावा है कि, वे भाजपा समर्थक हैं और वे अब भाजपा से नाराज हैं, इसलिए वे NOTA विकल्प के लिए जा रहे हैं। अब यह तर्क सभी स्तरों पर बेतुका है। अगर आपको लगता है कि, हर कोई बुरा है, तो हमेशा कम बुरे को चुनना बेहतर है। जैसा कि ऐन रैंड ने कहा है: “हर मुद्दे के दो पक्ष हैं: एक पक्ष सही है और दूसरा गलत है, लेकिन मध्य हमेशा बुरा होता है।” वह आगे कहती है, “जो आदमी गलत है वह अभी भी सच्चाई के लिए कुछ सम्मान बरकरार रखता है।” इन नोटा वाले लोगों को यह याद दिलाने की जरूरत है कि, मराठा पानीपत की लड़ाई में इसलिए हारे क्योंकि अन्य हिंदू राजाओं ने मराठाओं का साथ देने से इनकार कर दिया था। उन हिंदू नेताओं की तटस्थता दो सदियों से भी अधिक समय तक हिंदुओं के लिए गुलामी का कारण बनी।
अमित शाह का बयान यही कहता है कि, 2019 के चुनावों में केंद्र में मजबूत और स्थिर सरकार के लिए वोट करें। जो व्यक्ति साढ़े चार साल से देश में अच्छे बदलाव ला रहा है और देश के विकास के लिए समर्पित है, उसे चुनें। यह भारत के मतदाताओं पर ही निर्भर है कि, वे इतिहास के किस पक्ष को तय करना चाहते हैं।