वर्ष 2014 में जब केंद्र की सत्ता भाजपा के हाथों में आई, तो इसके साथ ही कई तथाकथित बुद्धिजीवियों के बेरोजगार होने की घटना भी घटित हुई। राष्ट्रीय एकता परिषद एवं नागरिक समाज संगठनों जैसी संस्थाओं में बैठे ये बुद्धिजीवी सरकार के पैसों पर ऐश करने का काम किया करते थे। इतना ही नहीं, बल्कि इन बुद्धिजीवियों के पास सरकार में संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के फैसलों को बदलने की भी शक्ति थी। लेकिन वर्ष 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद एकाएक इनकी राजनीतिक महत्ता को खत्म कर दिया गया। पिछले पांच वर्षों में इन बुद्धिजीवीयों ने मोदी सरकार के खिलाफ जमकर प्रोपेगेंडा फैलाने का काम किया। कभी यह गैंग अवार्ड वापसी का ढोंग कर सुर्खियों में आया तो कभी एजेंडा फैलाने के लिए उसने इंटोलरैंस का राग अलापा, और ऐसा ठीक चुनावों से पहले किया गया। पहले तो इस गैंग और कांग्रेस का अनैतिक गठबंधन अदृश्य था लेकिन अपने चुनावी घोषणापत्र के जरिये कांग्रेस ने अब खुलकर इस गैंग को इनका ‘ईनाम’ देने की घोषणा की है।
उदाहरण के तौर पर वर्ष 2004 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा संगठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को ही देख लीजिये। इसे प्रधानमंत्री कार्यालय को सिफारिश भेजने के लिए बनाया गया था और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी इस परिषद की अध्यक्ष बन थीं। इस परिषद के पास बाद में इतनी शक्तियां आ गई कि इसके द्वारा बिना प्रधानमंत्री की अनुमति के फैसले लेना शुरू कर दिया गया। यह परिषद सरकारी काम में इतना हस्तक्षेप करने लगा कि वर्ष 2009 में तो पीएम मनमोहन सिंह से बिना पूछे इसने प्रणब मुखर्जी को देश का वित्त मंत्री बना दिया जबकि डॉक्टर मनमोहन सिंह सीवी रंगराजन को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे। आपको बता दें कि इस परिषद में देश के अनेकों अर्थशास्त्री, सामाजिक वैज्ञानिकों एवं अन्य बुद्धिजीवियों को सदस्य बनाया गया था।
लेकिन वर्ष 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद इस परिषद को खत्म कर दिया गया। इस परिषद पर देश की कैबिनेट के विकल्प के तौर पर उभरने का आरोप लगाया जाने लगा। लेकिन परिषद के खत्म होने के साथ ही सभी बुद्धिजीवियों के रोजगार पर भी संकट आन खड़ा हुआ था। ऐसे में इन तमाम बुद्धिजीवी वर्ग ने मोदी सरकार के खिलाफ प्रोपेगेंडा फैलाने का स्वांग रचाया। वर्ष 2015 में ठीक बिहार विधानसभा चुनावों से पहले यह वर्ग अवार्ड वापसी गैंग का चोला पहनकर सामने आया और लगभग 30 से अधिक बुद्धिजीवियों ने यूपीए सरकार के समय मिले अपने अवार्डों को वापस कर दिया। इन ‘पालतू’ बुद्धिजीवियों ने यह कहकर अपने साहित्य अकादमी और फिल्म अवार्ड्स को वापस लौटाना शुरू कर दिया कि मोदी सरकार के समय अल्पसंख्यक मुस्लिमों पर अत्याचार बढ़ गए हैं और देश में कानून की व्यवस्था पहले से बदतर ही गयी है, लेकिन उस वक्त के सरकारी आंकड़े इस बात की तरफ इशारा कर रहे थे कि देश में अपराध दर 22 प्रतिशत तक कम हो गया था।
जाहिर है कि इन बुद्धिजीवियों के इस प्रोपेगेंडा से अप्रत्यक्ष रूप से फायदा कांग्रेस को ही पहुंच रहा था। इन तमाम बुद्धिजीवियों ने जी-तोड़ मेहनत कर कांग्रेस सरकार का महिमामंडन करने का काम किया था। लेकिन अब कांग्रेस ने भी इन बुद्धिजीवियों को ईनाम देने की घोषणा की है। दरअसल, कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में यह वायदा किया है कि अगर उनकी सरकार बनती है तो वे देश में राष्ट्रीय एकता परिषद् एवं नागरिक समाज संगठन का पुर्नगठन करेगी। यानि एक बार फिर इन पालतू बुद्धजीवियों को रोजगार देने का काम किया जाएगा। कांग्रेस ने अपने घोषणपत्र में लिखा है ‘कांग्रेस सामाजिक एकता, एकजुटता, सांप्रदायिक सद्भाव, भाईचारा और आपसी मेल मिलाप की प्रक्रिया को मजबूती प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय एकता परिषद का पुर्नगठन करगी, कांग्रेस देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बन चुकी विघटनकारी और साम्प्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए राष्ट्रीय एकता परिषद के साथ मिलकर कार्य करेगी’।
अगर इन सभी घटनाओं को एक-दूसरे से जोड़कर देखा जाए तो हमें यह समझ में आता है कि सत्ता से जाने के बाद कांग्रेस और इस बुद्धिजीवी वर्ग में एक दूसरे की मदद करने की मानों कोई सेटिंग हुई है। पिछले कुछ वर्षों में जहां एक तरफ इस वर्ग ने मोदी सरकार को घटिया बताने की भरपूर कोशिश की तो वहीं अब कांग्रेस ने भी इन्हें वापस उनका पुराना ‘वर्चस्व’ देने का वायदा किया है। इससे भारत के लोकतन्त्र पर तो चोट पहुंचाने का काम किया ही गया बल्कि इसके अलावा इन बुद्धिजीवियों ने अपने स्तर को भी गिराने का काम किया। लेकिन इस सबसे कांग्रेस और इन बुद्धिजीवियों के अनैतिक गठबंधन का तो पर्दाफाश हो ही गया है।