कल्पना कीजिये की आपको वीकेंड को एक फिल्म देखने जाना है, और उसे थिएटर से सिर्फ इसलिए हटा दिया जाये, क्योंकि सरकार नहीं चाहती कि इस फिल्म का प्रदर्शन हो। या कल्पना कीजिये की आप ऑल इंडिया रेडियो के विविध भारती पर किशोर कुमार की कोई कर्णप्रिय धुन सुन रहे हो, और वो अचानक से रुक जाये। अजीब लगेगा न?
पर 44 वर्ष पहले कुछ ऐसा ही हुआ था, जब इन्दिरा गांधी और उनके चाटुकारों के कारण पूरे भारत भर पर आंतरिक आपातकाल घोषित कर दिया गया था। किशोर कुमार के गाने ऑल इंडिया रेडियो पर प्रतिबंधित कर दिये गए थे। ऐसा भी क्या हुआ कि इनके गानों को वीसी शुक्ला के एक इशारे पर प्रतिबंधित किया गया था? दरअसल किशोर दा ने संजय गांधी द्वारा समर्थित कांग्रेस के चर्चित 20 पॉइंट प्लान को गाने से मना कर दिया था। जब रचनात्मकता पर इतनी लगाम कसी जा रही हो, तो ऐसे में लोग क्या करते? चुपचाप किशोर दा का ‘दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना, जहां नहीं चैना वहां नहीं रहना’ गुनगुनाए और खुली हवा में सांस लेने के लिए 21 महीने तक प्रतीक्षा करे, या रचनात्मकता का उपयोग कर सरकार की इन दमनकारी नीतियों का विरोध करे?
आपातकाल के दौरान कई लेखकों को गिरफ्तार किया गया और उनकी आवाज़ को दबाया गया। जहां एक तरफ अधिकांश बुद्धिजीवी एवं कथित फिल्मी सितारे बिना लड़े ही नतमस्तक हो गए, तो वहीं हमारे कुछ हीरो इसी आग में सोने की तरह निखरकर सामने आए। सब कुछ दांव पर लगाते हुए इन सुपरस्टार्स, फिल्म निर्देशकों एवं लेखकों ने आपातकाल का विरोध कर जो उदाहरण पेश किया है, वो अपने आप में कई लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत से कम नहीं है।
आपातकाल में जैसे जैसे सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की बेचैनी बढ़ रही थी, एक लेखक को गृह मंत्रालय से अपनी पुस्तक प्रकाशित करने के लिए स्वीकृति लेनी पड़ी थी। उनके पुस्तक पर फिल्म बनाने वाले निर्माता रातों रात गायब हो गए थे। यह लेखिका कोई और नहीं, नयनतारा सहगल थी।
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हमारे प्रचलित सितारों और फ़िल्मकारों के लिए कोई आसान समय नहीं था। बॉलीवुड में देशभक्ति का पर्याय बन चुके मनोज कुमार उस समय आग बबूला हो गए जब उनपर आपातकाल के पक्ष में एक डॉक्यूमेंट्री का निर्माण करने के लिए दबाव बनाया गया। हैरानी की बात तो ये थी कि इसकी पटकथा प्रसिद्ध पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम ने लिखी थी, जो मनोज कुमार की अच्छी दोस्त भी थीं, और इस बात के लिए मनोज ने उन्हें लताड़ा भी था।
परिणामस्वरूप इनकी फिल्म दस नंबरी पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था, पर मनोज साब कहाँ हार मानने वाले थे। उन्होंने दिल्ली में डेरा जमा लिया और आपातकाल के विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा दायर किया और 1977 में इस मुकदमे को जीता भी। ऐसा करने वाले वो उस समय के इकलौते फ़िल्मकार थे।
प्रसिद्ध फ़िल्मकार सत्यजित रे ने भी आपातकाल के पक्ष में डॉक्युमेंट्री बनाने से मना कर दिया था। तब तक उन्हें विश्व भर में प्रसिद्धि मिल चुकी थी और उन्हें चाहकर भी सरकार हाथ नहीं लगा सकती थी। उत्तम कुमार ने भी तत्कालीन स्थिति पर रोष जताया था।
यही नहीं, कल्लोल और अंगार जैसे नाटकों के कारण कांग्रेस की आँखों में खटकने वाले प्रसिद्ध बंगाली नाटककार एवं अभिनेता उत्पल दत्त ने तो आपातकाल में तमाम रुकावटों के बावजूद बैरिकेड, दुश्वाप्नेर एवं एबार राजर पाला जैसे प्रतिबंधित नाटक खुलेआम बंगाल में संचालित कर आपातकाल विरोधी अभियानों को अपना समर्थन देते रहते थे।
मशहूर अभिनेता देव आनंद यूं तो अपने करिश्माई अभिनय के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। परंतु बहुत कम लोग यह बात जानते थे कि उन्होंने न केवल आपातकाल के पक्ष में चलाये अभियान का विरोध किया था, बल्कि उन्होंने आपातकाल के विरोध में राष्ट्रवादी पार्टी का भी निर्माण किया। ऐसे में देस-परदेस की शूटिंग कोई आसान काम नहीं था, परंतु उनके समर्थन में उनके भाई चेतन और विजय, शत्रुघ्न सिन्हा एवं डैनी डेन्जोंगपा जैसे लोग खड़े हुए।
चेतन आनंद ने तो वीसी शुक्ला को खुलेआम हिरासत में लेने की चुनौती दे डाली। फलस्वरूप इनका समर्थन करने के लिए शत्रुघ्न सिन्हा के किसी भी फिल्म में काम करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। ऐसे में यह कितना हास्यास्पद है की ऐसे दमनकारी पार्टी का हाथ इस वर्ष लोकसभा चुनावों के लिए शत्रुघ्न सिन्हा ने सिर्फ इसलिए थामा, क्योंकि उन्हें मोदी के तथाकथित नीतियों से आपत्ति थी।
शायद 70 के दशक का सिनेमा आज के फिल्मों की तरह उस समय की मुख्यधारा वाली सिनेमा सामाजिक मसलों की बात नहीं करता था, परंतु इन योद्धाओं ने निस्संदेह बाकी लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बनकर उभरे।
अब बात करते हैं हमारी सबसे पसंदीदा फिल्मों में से एक ‘शोले’ के बारे में। हम में से कितने ऐसे लोग होंगे, जिन्हें ठाकुर का गब्बर को जाने देना अखरा होगा? हम कोई मानवधिकार कार्यकर्ता नहीं है, परंतु क्या हम ये नहीं चाहते थे कि गब्बर का अंत हो जाये? मूल एंडिंग इस फिल्म की यही होनी थी। परंतु आपातकाल के दौरान ये सरकार की दमनकारी नीतियों का ही परिणाम था कि फिल्म की मूल एंडिंग को भी सरकार के मानकों के हिसाब से बादल दिया गया था।
फिल्म की एंडिंग के अनुसार पुलिस गब्बर को पकड़ कर ले जाती है। यदि ऐसा न होता, तो सरकार को पुलिस निष्क्रियता के समर्थन का खतरा नज़र आ रहा था। इतना ही नहीं, कई लोगों का यह भी मानना था की यदि एक पूर्व पुलिस ऑफिसर कानून को अपने हाथों में लेने लगते, तो सरकार का प्रभुत्व पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता था।
इसी तरह ‘आंधी’ पर जब प्रतिबंध लगाया गया, तब किसी ने भी नहीं सोचा था कि ये फिल्म असल में एक बायोपिक है या नहीं। गुलजार साहब को बाद में कई दृश्य दोबारा से फिल्माने पड़े, और उन्होंने ऐसे भी दृश्य डाले जिससे सिद्ध हो की ये इन्दिरा गांधी पर आधारित बायोपिक नहीं थी। ये फिल्म आखिरकार 1977 में ही प्रदर्शित हुई थी, और बाद में फिल्म फेयर पुरुस्कारों में इसे क्रिटिक्स चॉइस फॉर बेस्ट फिल्म का पुरुस्कार भी मिला था।
परंतु अमृत नाहटा गुलज़ार साहब जितने भाग्यशाली नहीं थे। इनकी फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ पर संजय गांधी का अपमान करने का आरोप लगा था, और न केवल सीबीएफ़सी से मिली स्वीकृति कथित रूप से वापिस ले ली गयी, बल्कि संजय गांधी के समर्थकों ने मूल प्रिंट और उसकी प्रतियों को गुडगांव [अब गुरुग्राम] की एक फ़ैक्टरी में जला दिया था, जिसके लिए संजय गांधी बाद में दोषी पाये गए थे। 1979 तक किस्सा कुर्सी फिल्म को दोबारा बनाना पड़ा था। इसके बाद अमृत नाहटा ने कभी फिल्म मेकिंग नहीं की।
इन रचनात्मक युद्धों के कारण ही हमें और बहादुर बनने की प्रेरणा मिलती है। 44 वर्षों बाद, इनकी पुस्तकें, गीत, फिल्मों इत्यादि को लेकर हम इनके शौर्य को नमन अवश्य कर सकते हैं। और जैसे स्वयं किशोर दा ने कहा था, ‘ये पब्लिक है ये सब जानती है, ये चाहे तो सर पर बैठा ले चाहे फेंक दे नीचे।‘ अब अभिव्यक्ति की आजादी और भाषण पर हमारी प्रतिक्रिया कैसी होती, यह हमारे ऊपर है!
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