2019 के लोकसभा चुनाव नतीजे घोषित भी चुके है और महागठबंधन की असलियत भी सामने आ चुकी है। तमाम दावे करने के बावजूद न केवल सपा, बसपा और रालोद का महागठबंधन उत्तर प्रदेश में भाजपा को टक्कर देने में नाकामयाब रहा, बल्कि बड़े बड़े दावों के बीच महज 15 सीटों तक सिमट कर रह गया। हालांकि बसपा को इन चुनावों में फायदा हुआ।
अब खबर सामने आ रही है कि मायावती पार्टी के प्रदर्शन से काफी नाखुश है। मायावती ने पार्टी के साथ बैठक में कहा कि यादव समुदाय के वोट बसपा को पूरी तरह से ट्रान्सफर नहीं हुए, और ऐसे में बसपा का उपचुनाव लड़ना जरुरी हो जाता है। जिस तरह की खबरें सामने आ रही है उससे तो यही लगता है कि सपा-बसपा का गठबंधन टूट गया है लेकिन मायावती ने अभी तक इसपर कोई औपचरिक घोषणा नहीं हुई है। ज्ञात हो कि सपा से गठबंधन के तहत बसपा ने 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें से वो 10 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही। वहीं सपा को महज 5 सीट से ही संतोष करना पड़ा।
बिहार के राजद कांग्रेस के महागठबंधन की तरह अब इस ‘महागठबंधन’ में भी दरारें पड़नी शुरू हो चुकी है। हालांकि, सपा अपनी तरफ से इस गठबंधन को तोड़ने को राज़ी तो नहीं है, पर मायावती के तेवर देखते हुए महागठबंधन का ब्रेकअप होना लगभग तय है। स्वयं मायावती ने अखिलेश यादव को महागठबंधन की असफलता के लिए दोषी ठहराते हुए समाजवादी पार्टी के नेताओं को महागठबंधन के विरुद्ध काम करने का आरोप लगाया, और बसपा के लिए आवश्यक मत नहीं प्राप्त कर पाने का दोष भी मढ़ा।
अब महागठबंधन में ऐसी दरार क्यों पड़ रही है, और क्यों बसपा अपनी खुद की रीति के विरुद्ध उपचुनाव लड़ने को तैयार है, आइये जानते हैं इसके पीछे के कुछ प्रमुख कारण –
भाजपा का सामने करने में असमर्थ है महागठबंधन
इस चुनाव से एक बात तो साफ हुई है, कि चाहे अलग अलग लड़े, या एक साथ मिलाकर चुनाव लडें, महागठबंधन की भाजपा के आगे ये नहीं टिकने वाले। भाजपा ने वर्ष 2014 की तरह ही इस बार भी उत्तर प्रदेश में शानदार प्रदर्शन किया। पार्टी को पिछली बार की तुलना में 9 सीटें बेशक कम मिलीं, लेकिन महागठबंधन रूपी बड़ी चुनौती के बावजूद भाजपा का राज्य की 62 सीटों पर कब्जा करना किसी करिश्मे से कम नहीं है। पार्टी के वोट शेयर में इस बार जबरदस्त उछाल देखने को मिला है। पिछली बार पार्टी को 42 प्रतिशत वोट्स मिले थे, तो वहीं इस बार यह आंकड़ा 50 तक जा पहुंचा। सपा-बसपा के महागठबंधन को सिर्फ 15 सीटें मिली जबकि कांग्रेस मुश्किल से अपनी 1 सीट ही बचा पाई। इन 15 सीटों में भी सपा को एक सीट का नुकसान हुआ जबकि बसपा जिसे पिछली बार एक भी सीट नसीब नहीं हुई थी उसे इस बार 10 सीटें मिली है. इन आंकड़ों से साफ़ है कि भाजपा के समक्ष महागठबंधन कहीं नहीं टिकता। आगामी विधानसभा उपचुनाव में ये दोनों पार्टियां मिलकर लड़ें या अकेले लेकिन इन्हें कोई बड़ा फायदा नहीं होने वाला है। यही नहीं, ऐसे चुनावों में मतदाता प्रतिशत में अंतर भी काफी मायने रखता है, और यहीं पर महागठबंधन मात खा गयी। ऐसे में इस बेमेल गठबंधन का भाग बने रहने से अच्छा बसपा ने गठबंधन से दूरी बनाना ही उचित लगा।
गठबंधन पार्टी में हुआ, कैडरों में नहीं
अखिलेश यादव और मायावती ने मोदी के प्रभाव को निष्क्रिय करने के लिए एक दूसरे से हाथ तो मिला लिया, पर अपने समर्थकों को एकजुट कर पाने में पूरी तरह नाकाम रहे। दोनों पार्टियों के समर्थकों के बीच एक पारंपरिक दुश्मनी रही है जो इस महागठबंधन से नाराज हुए। बात तो यहां तक पहुंच गयी कि रैलियों के दौरान सपा और बसपा के समर्थक आपस में ही लड़ने लग गए। हालांकि, बसपा के समर्थक तो शुरू से ही मायावती के कट्टर समर्थक रहे हैं, और उनके मतों ने महागठबंधन को मजबूत करने की बजाए व्यक्तिगत तौर पर बसपा को ही फायदा पहुंचाया।
वहीं समाजवादी पार्टी पर गुस्साये समर्थकों ने और मोदी लहर की दोहरी मार ने सपा को भारी नुकसान पहुंचाया। साथ ही मोदी की पुलवामा हमले के बाद दिखाई सूझबूझ ने अधिकांश लोगों को जातिवाद से ऊपर उठाकर राष्ट्रवाद के लिए वोट करने पर विवश किया।
ऐसे में कैडरों में उभरी दरार का भरपूर फायदा उठाया भाजपा ने, फूलपुर, कैराना और गोरखपुर जैसे क्षेत्रों में खोये जनाधार पर दोबारा अपनी पकड़ जमाकर भाजपा ने लोकसभा चुनावों में इन क्षेत्रों में सफलता हासिल की।
बसपा से ज़्यादा सपा का घाटा
हालांकि, इस चुनाव से अगर किसी को सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ है, तो वो है समाजवादी पार्टी। अधिकांश राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि मायावती ने गेस्ट हाउस कांड में को भुलाकर सपा के साथ गठबंधन को सिर्फ इसलिए राज़ी हुई, क्योंकि उन्हें इस चुनाव के माध्यम से अपनी पार्टी को लाभ पहुंचाना था। यही वजह है कि मायावती सपा के साथ आधी सीटों पर लड़ने के लिए तैयार हो गयीं। ये बात सपा के अनुभवी वरिष्ठ नेता मुलायम सिंह यादव बखूबी समझते थे तभी तो वो अखिलेश द्वारा बसपा के साथ गठबंधन को लेकर नाराजगी जताई थी. सपा के संरक्षक मुलायम सिंह यादव और उनके छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव ने अखिलेश को आगाह भी किया था, पर सत्ता की लालसा में अखिलेश ने एक न सुनी। नतीजा अब सबके सामने है।
मोदी रथ रोकने के लिए अखिलेश ने मायावती का साथ लिया लेकिन उसका उनको भारी खामियाजा उठाना पड़ा। दिलचस्प बात तो यह है कि आम तौर पर बसपा कभी भी उपचुनाव लड़ने के लिए उत्सुक नहीं रही है लेकिन अब मायावती ने उत्तर प्रदेश में 11 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव के लिए अपने प्रत्याशी उतारने के संकेत दे दिए हैं। स्पष्ट है इस महागठबंधन का ब्रेकअप लगभग हो चुका है बस इसकी अधिकारिक घोषणा होनी बाकि है. ये तो होना ही था क्योंकि मायावती को प्रदेश में अखिलेश की साइकिल के सहारे अपनी जमीनी पकड़ मजबूत करनी थी और वो इसमें सफल भी रहीं। बसपा फिर से प्रदेश में अपनी पकड़ को भले ही मजबूत कर लें लेकिन सपा को सबसे ज्यादा घाटा होने वाला है जबकि इस लड़ाई का सबसे ज़्यादा फायदा भाजपा को ही होने वाला है।
कुल मिलाकर महागठबंधन के इस ब्रेकअप से एक बात तो साफ है कि न तो सपा और बसपा मोदी को किसी भी प्रकार की टक्कर दे सकते हैं, और न ही यह बेमेल गठबंधन ज़्यादा समय तक टिक पाएगा। हम आशा करते हैं की अखिलेश इस हार से सबक लें, और इस बेमेल गठबंधन से नाता तोड़ पार्टी को पुनर्गठित करने का प्रयास करे। वरना इनका भी वही हश्र होगा, जो आज अजित सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक दल का इस चुनाव के बाद हुआ है।