हाल ही में आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने वैश्विक मीडिया से संपर्क साधते हुए आरएसएस का पक्ष सामने रखा, और अपनी बातचीत में उन्होंने संघ के विरुद्ध फैलाये गए झूठ के विरुद्ध पर भी अपनी आवाज़ उठाई। मोहन भागवत ने ‘आरएसएस को जानो’ (Know The RSS) कार्यक्रम के अंतर्गत करीब ढाई घंटे तक विदेशी मीडिया से बातचीत की। उन्होंने इस दौरान कश्मीर, हिंदू राष्ट्र, हिंदुत्व, मॉब लिंचिंग और एनआरसी जैसे ज्वलंत मुद्दों पर खुल कर संघ का दृष्टिकोण रखा।
इस दौरान अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, चीन, इटली, नेपाल समेत 30 देशों के करीब 50 पत्रकारों ने संघ प्रमुख से तीन दर्जन सवाल पूछे। कार्यक्रम में सर संघचालक के अलावा संघ के सह सरकार्यवाह भैयाजी जोशी, सर कार्यवाह मनमोहन वैद्य, डॉ कृष्ण गोपाल, उत्तरी क्षेत्र संघचालक बजरंग लाल गुप्त, दिल्ली प्रांत संघ चालक कुलभूषण आहूजा आदि उपस्थित थे।
आरएसएस प्रमुख ने विदेशी मीडिया से अपनी बातचीत में यह स्पष्ट किया कि संघ मॉब लिंचिंग (यानि भीड़ हिंसा) ही नहीं, अपितु निरीह-निर्दोष व्यक्तियों के विरुद्ध किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ है। उन्होंने ये भी बताया कि अगर कोई भी स्वयंसेवक इस प्रकार के अपराध में दोषी पाया जाता है तो उसे बाहर निकाल दिया जाएगा।
मीडिया से बातचीत के दौरान मोहन भागवत ने बताया, ‘भारत मूलत: हिन्दू राष्ट्र है और भारत के अलावा हिंदुओं के लिए कोई अन्य स्थान नहीं है’। जब उनसे यह पूछा गया कि भारत में बढ़ रहे निरंतर भीड़ हिंसा की घटनाओं के पीछे उनका क्या कहना है, और संघ का इसके पीछे कितना हाथ है? इस सवाल के जवाब में उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘भीड़ हिंसा छोड़िए, संघ किसी भी प्रकार के हिंसा का समर्थन नहीं करता है। स्वयंसेवकों को भी इसे रोकने में सहयोग करना चाहिए। यदि कोई स्वयंसेवक इस काम में लिप्त पाया गया, तो उसे तुरंत बाहर निकाल दिया जाएगा’।
इसके अलावा जब मोहन भागवत से हाल ही में जम्मू कश्मीर राज्य से हटाये गए अनुच्छेद 370 के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने दो टूक उत्तर दिया, ‘अब कश्मीरियों की देश से दूरी कम होगी। पहले कश्मीरियों को अलग-थलग करने की कोशिश हुई। पाक अधिकृत कश्मीर भी भारत का अंग है। इससे संबंधित प्रस्ताव कई बार संसद में पारित हुआ है। इस फैसले से कश्मीरियों को अपनी नौकरी-जमीन खोने का डर नहीं होना चाहिए। कश्मीर के लोग देश के विकास की मुख्यधारा से जुड़ेंगे और वे सही अर्थों में विकास में भागीदार बनेंगे”।
इसके अलावा जब उनसे राम मंदिर के संबंध में पूछा गया, तो मोहन भागवत ने बताया, “राम मंदिर किसी धर्म विशेष या पूजा पाठ से जुड़ा मामला नहीं है। प्रभु राम इस देश के सांस्कृतिक प्रतीक हैं। उनका अयोध्या में जन्म हुआ, और उनके जन्मस्थान पर मंदिर बनाया जाना अवश्यंभावी है”।
यही नहीं, मोहन भागवत ने पत्रकारों द्वारा पूछे गए हर प्रश्न का निस्संकोच उत्तर दिया। एनआरसी के मुद्दे पर भी उन्होंने बुद्धिजीवियों द्वारा फैलाये गए प्रोपगैंडा को ध्वस्त करते हुए कहा, “एनआरसी बाहरी लोगों को खदेड़ने के लिए नहीं बल्कि चिह्नित करने के लिए है। चाहे हिंदू हो या मुसलमान, किसी को भी निकाला नहीं जाएगा। सभी देश अपने यहां बाहरी लोगों को चिह्नित करते हैं, भारत में भी यही प्रक्रिया अपनाई गई है। इस आशय की पहल तो सबसे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय भी हुई थी।
इसके अलावा चाहे समलैंगिकता पर अपने विचार स्पष्ट करने हो, या फिर चीन के संबंध में अपने विचार सामने रखने हो, मोहन भागवत ने सभी प्रश्नों का बखूबी उत्तर दिया। उन्होंने अपना उदार पक्ष भी मीडिया के सामने रखा, और साथ ही साथ उन्होंने अपनी बातों से ये भी स्पष्ट किया कि राष्ट्रहित से किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया जाएगा। समान नागरिक संहिता के विषय पर उनके विचार से ये बात और स्पष्ट हो जाती है। उन्होंने बताया, “समान नागरिक संहिता पर देश में आम सहमति की जरूरत है और संघ इसका शुरू से समर्थक रहा है”।
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के प्रबल समर्थकों में से एक रहे डॉ॰ केशव बलिराम हेडगेवार ने एचआरए के आदर्शों से ही प्रेरणा लेते हुए 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। भले ही स्वतंत्रता आंदोलनों में इनकी भागीदारी मुखर रूप से सीमित रही हो, परंतु आरएसएस का प्रमुख उद्देश्य केवल और केवल एक सशक्त और अखंड भारत का सृजन ही रहा था। परंतु आरएसएस का मुखर स्वभाव और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के प्रति उसका विरोधी रुख हमारे देश के कथित हुक्मरानों को रास नहीं आया, और वे प्रारम्भ से ही आरएसएस को अंग्रेजों का समर्थक सिद्ध करने के प्रयास में लगे रहे थे।
1948 में जब महात्मा गांधी की हत्या हुई, तो आरएसएस के धुर विरोधी रहे जवाहरलाल नेहरू के दबाव में केंद्र सरकार ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया। परंतु विभाजन के बाद राहत कार्यों, कश्मीर पर आक्रांताओं के हमले को रोकने में भारतीय सेना की सहायता करने और हैदराबाद जैसे बागी राज्यों का भारत में विलय कराने में आरएसएस की भूमिका को ध्यान में रखते हुये तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के निर्देश पर 1949 में आरएसएस पर से प्रतिबंध हटा लिया गया।
परंतु आरएसएस के प्रति नफरत लिबरल बुद्धिजीवियों की कभी नहीं खत्म हुई। आरएसएस के विरुद्ध विश्व भर में झूठी खबरें और भ्रामक तथ्य फैलाने में इन वामपंथी बुद्धिजीवियों की प्रमुख भूमिका रही है। इसीलिए विश्व भर में आरएसएस की छवि में सुधार लाने हेतु सरसंघचालक मोहन भागवत ने विदेशी मीडिया से बातचीत की थी। इवेंट के प्रारम्भ होने से कुछ दिन पहले मीडिया से बातचीत के दौरान सूत्रों के अनुसार यह पता चला की इस इवैंट का ‘प्रमुख उद्देश्य भाजपा की वैचारिक गुरु माने जाने वाली संस्था के बारे में जो गलत धारणाएं हैं उसे दूर करना है’। संघ के एक पदाधिकारी ने कहा था, “अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार अक्सर अपने संगठन के पूर्वाग्रह का शिकार होते हैं। अगर वे किसी भी चीज़ को सही परिप्रेक्ष्य में पेश भी करना चाहे, तो उन्हें ऐसा करने नहीं दिया जाता। ऐसे में आरएसएस और इसकी विचारधारा को लेकर फैली गलत धारणा को दूर करना अत्यंत आवश्यक है।
मोहन भागवत के इस कदम से न केवल पूरी दुनिया संघ के विचारों से अवगत होगी, अपितु संघ के खिलाफ फैलाई गयी गलत धारणा को दूर करने का भी काम किया जाएगा। सत्य कहें तो श्री मोहन भागवत ने इस कार्यक्रम से एक ही तीर से दो निशाने साधे हैं। एक ओर उन्होने वैश्विक मीडिया में अपना असली पक्ष पेश किया है, तो वहीं दूसरी ओर उन्होंने लिबरल बुद्धिजीवियों उनके विरुद्ध फैलाये जा रहे झूठ को ध्वस्त करने का एक सार्थक प्रयास किया है।