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पश्चिम में राइटविंग और पूर्व में लेफ्टविंग के अर्थशास्त्रियों को नोबेल दिया जाता है, वजह बड़ी अजीब है

Abhinav Kumar द्वारा Abhinav Kumar
16 October 2019
in मत
नोबेल पुरस्कार
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भारतीय मूल के अमेरिकी अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी (Abhijit Banerjee) और उनकी पत्नी एस्थर डुफलो को इस साल के अर्थशास्त्र का नोबेल प्राइज (Nobel Prize) मिला है। आधिकारिक तौर पर इस पुरस्कार को Sveriges Riksbank Prize in Economic Sciences in Memory of Alfred Nobel के नाम से जाना जाता है। उनके साथ ही अर्थशास्त्री माइकल क्रेमर को भी इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए चुना गया है। तीनों को संयुक्त रूप से यह सम्मान मिला है। अभिजीत बनर्जी को नोबेल पुरस्कार ‘अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गरीबी कम करने के उनके प्रयोगात्मक नजरिए’ के लिए दिया गया है।

वह दूसरे भारतीय और तीसरे गैर-यूरोपियन व्यक्ति हैं जिन्हें हैं जिन्हें इस पुरस्कार से नवाजा जा रहा है। इससे पहले अमर्त्य सेन को साल 1998 में यह पुरस्कार मिला था। दोनों ही भारतीय मूल के अर्थशास्त्रियों को गरीबी कम करने के तरीके और समाजवादी अर्थशास्त्र के लिए ही दिया गया है। सेन को उनके समाजवादी अर्थशास्त्र में योगदान के लिए दिया गया था। यह बात गौर करने वाली है कि जितने भी भारतीय या गैर-यूरोपीय अर्थशास्त्रियों को यह पुरस्कार मिला है उन सभी को सिर्फ समाजवादी या वामपंथी खोज या विचारों के लिए ही दिया गया है जबकि जितने भी अमेरिकी या यूरोपीय अर्थशास्त्रियों को यह पुरस्कार मिला उन सभी को free-market economics के लिए दिया गया है। आंकड़ों को देखें तो free-market economics के हिमायती संस्था मॉन्ट पेलेरिन सोसाइटी (MPS) के आठ सदस्यों फ्रेडरिक हायेक, मिल्टन फ्रीडमैन, जॉर्ज स्टिगलर, मौरिस अल्लैस, जेम्स एम. बुकानन, रोनाल्ड कोसे, गैरी बेकर और वर्नोन स्मिथ को Sveriges Riksbank Prize in Economic Sciences in Memory of Alfred Nobel से नवाजा जा चुका है। ये लोग अर्थशास्त्र में लिब्रलाइजेशन या free market की वकालत करते हैं। वे एडम्स स्मिथ की invisibal hand की theory पर भरोसा करते हैं और मार्केट में किसी तरह का कंट्रोल नहीं चाहते। यह रहस्य किसी से छुपा नहीं है कि नोबेल कमेटी पूरी तरह से प्रो-मार्केट की पक्षपाती है और आमतौर पर किसी वामपंथी अर्थशास्त्री को नहीं चुनती। अमर्त्य सेन ने खुद इस बात को स्वीकार किया था।

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ऐसे में नोबेल पुरस्कार की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े होते हैं कि जब भारत की बात आती है तो यह कमेटी किसी वामपंथी को चुनती है और जब बात अमेरिका या यूरोप की होती है तो किसी पूंजीवादी अर्थशास्त्री को चुनती है।

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि जब भी किसी खास विचारधारा के किसी व्यक्ति को कोई पुरस्कार दी जाती है तो वह विचारधारा दुनियाभर में प्रचारित-प्रसारित होती है। यह सभी को पता है कि भारत ने 1990 में ही पूंजीवाद को अपनाकर समाजवादी अर्थशास्त्र को छोड़ दिया था। अगर किसी अर्थशास्त्री को नोबेल मिलता है तो वामपंथी विचारधारा को ही मजबूती मिलती है तथा उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ती है। इसी का नतीजा है कि भारत आज भी इन अर्थशास्त्रियों की नीतियों के कारण गरीब देशों में गिना जाता है।

नोबेल प्राइज देने वाली कमेटी ने एक तरफ तो पश्चिम के पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों जैसे फ्रेडरिक हायेक, मिल्टन फ्रीडमैन को यह पुरस्कार दिया लेकिन भारत के इसी विचारधारा के अर्थशास्त्री जैसे जगदीश भगवती, बी आर शेनॉय को उनके असाधारण योगदान के बावजूद नोबेल नहीं दिया।

1990 से पहले भारत में समाजवादी आर्थिक नीति थी। इसी वजह से देश का विकास दर 3 प्रतिशत से अधिक नहीं हो पाया।

इस समय प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह ही थे जिन्होंने आर्थिक नीतियों में बदलाव कर भारत को विश्व के लिए खोला, जिससे भारत 7 से 8 प्रतिशत विकास दर हासिल करने में सफल रहा। लेकिन फिर भी भारत में वामपंथी नीतियों की वकालत करने वालों को ही महत्व मिलता है, इसके साथ ही मीडिया भी उन्हें फोकस में रखती है। और इन्हीं नीतियों का समर्थन करके नोबेल कमेटी आग में घी डालने का काम करती है। यही कारण है कि आज भारत में अभिजीत बनर्जी को इतना limelight में रखा जा रहा है।

बता दें कि अभिजीत बनर्जी उन लोगों में शामिल थे, जिन्होंने लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के मैनिफेस्टो में शामिल बहुचर्चित ‘NYAY’ योजना की रुपरेखा तैयार की थी।

उन्होंने टाइम्स नाउ के साथ एक इंटरव्यू में स्पष्ट कहा था कि बिना tax बढ़ाए ‘NYAY’ स्कीम नहीं लाया जा सकता है। जब बनर्जी से पूछा गया कि tax में क्या वृद्धि होनी चाहिए और कौन से नए tax लगाए जा सकते हैं, तो उन्होंने कहा, “इनकम tax को बढ़ाने की गुंजाइश है और GST बढ़ाने की गुंजाइश है।”

यह बात आश्चर्यजनक है कि जब भी भारत में एक राष्ट्रवादी या दक्षिणपंथी पार्टी सरकार बनाती है तो नोबेल कमेटी किसी वामपंथी को ही नोबेल पुरस्कार देती है। और वह भी भारत की गरीबी पर रिसर्च करने के लिए।

मार्च 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनने के कुछ ही महीनों बाद अमर्त्य सेन को अक्टूबर 1998 में नोबेल से सम्मानित किया गया। यह जानना आवश्यक है कि सेन का शोध समाजवादी अर्थशास्त्र पर केंद्रित था और उन्होंने ‘मनरेगा’ जैसे कार्यक्रमों का समर्थन किया था।

अमर्त्य सेन UPA शासन के 10 वर्षों के कार्यकाल में प्रमुख अर्थशास्त्रियों में से एक थे, जिन्होंने अपनी वामपंथी आर्थिक नीतियों से देश की वृहद आर्थिक स्थिरता को नष्ट कर दिया।

इसके बाद 2014 में मोदी सरकार ‘विकास’ के वादे के साथ सत्ता में आई और पीएम नरेंद्र मोदी का स्पष्ट कहना था कि Government has no business to do business’ और गुजरात में उनकी pro-market नीतियों का भी इतिहास रहा है। उसी समय नोबेल कमेटी ने एंगस डीटन को “उपभोग, गरीबी और कल्याण के analysis के लिए चुना था। एंगस डीटन ने भी भारत की गरीबी पर ही शोध किया था।

अब इसी तरह 2019 के चुनावों में जीतकर मोदी सरकार दोबारा सत्ता में आई तब फिर से नोबेल कमेटी ने अभिजीत बनर्जी जैसे वामपंथी अर्थशास्त्री को यही पुरस्कार दिया है।

जगदीश भगवती, अरविंद पनागरिया, रघुराम राजन, मेघनाद देसाई, अरविंद सुब्रमण्यन कुछ ऐसे अर्थशास्त्री हैं जिन्होंने pro-market economy में असाधारण योगदान दिए हैं, लेकिन नोबेल कमेटी ने इन सभी अर्थशास्त्रियों को नजरअंदाज किया है।

यहां पर सवाल यह खड़ा होता है कि नोबेल कमेटी भारत को एक प्रो-मार्केट नीति क्यों नहीं अपनाने देना चाहती? हालांकि यह शुरू से ही स्पष्ट रहा है कि नोबेल पुरस्कार बस एक प्रोपोगेंडा है, जिससे वे विश्व की राजनीति को अस्त-व्यस्त करने की कोशिश करते हैं। यह पुरस्कार अब एक PR मशीनरी बन कर रह गयी है जिसका इस्तेमाल सिर्फ किसी देश की अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने के लिए किया जाता है। जिससे वह विकास के रास्ते से भटक जाए और पूरी दुनिया उसे एक गरीब राष्ट्र के तौर पर जाने। यही उनका मूल प्रोपेगेंडा है।

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