एक बड़े फैसले में सरकार ने एंग्लो इंडियन कम्यूनिटी का संसद से आरक्षण हटाने का निर्णय लिया है। भारतीय संसद में 545 में से 2 सीट एंग्लो इंडियन के लिए आरक्षित होती थी जिसे अब हटा दिया गया है। साथ में यह भी कहा गया है कि अगर जरूरत पड़ी तो फिर से इसे लाया जा सकता है।
संसद से इस कोटे को हटाना एक ऐतिहासिक भूल को सही करने जैसा है। TFI ने पहले इस मुद्दे को उछला था और एक लेख भी प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था, “आज़ादी के 72 वर्षों बाद भी एंग्लो इंडियन्स को मनोनीत किया जाना कितना सही?”
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— Atul Kumar Mishra (@TheAtulMishra) December 4, 2019
10 सितंबर, 2019 को प्रकाशित लेख में, TFI POST ने संविधान के इस प्रावधान की निरर्थकता को सामने लाया था, जिससे राष्ट्रपति को संसद के निचले सदन में दो एंग्लो इंडियन सदस्यों को नामित करने का अधिकार मिलता है। शुरुआत में एंग्लो-इंडियन सदस्यों के नामांकन का प्रावधान 10 वर्षों के लिए किया गया था, बाद के संशोधनों ने इस अवधि को बढ़ा दिया था। संविधान के 95 वें संशोधन ने इस अवधि को 26 जनवरी, 2020 तक बढ़ा दिया था।
अब, नए फैसले में कैबिनेट ने लोकसभा और विधानसभाओं में एससी और एसटी के लिए आरक्षण को और दस साल के लिए बढ़ाने की अपनी मंजूरी दे दी है, हालांकि, राष्ट्रपति के दो एंग्लो-इंडियन सदस्यों को लोकसभा में नामांकित करने, और इसी तरह गवर्नर राज्यों में विधानसभाओं में एक एंग्लो-इंडियन सदस्य नामित करने के प्रावधान को नहीं बढ़ाया है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार यह स्पष्ट किया गया है कि एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए कोटा फिलहाल खत्म कर दिया गया है।
एंग्लो-इंडियन सदस्यों को आरक्षण देने का प्रावधान अनुचित था। आरक्षण मुद्दों पर संविधान सभा को अपनी राय देने वाले पंडित ठाकुर दास भार्गव ने भी इस बात पर जोर दिया था। यद्यपि छोटी संख्या में, एंग्लो-इंडियन सबसे उन्नत समुदाय है और उन्हें आरक्षण के तहत नामांकित की शक्ति दी गई। उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि ऐसा कोई कारण नहीं है जिससे एंग्लो-इंडियन सदस्यों के नामांकन से संबंधित प्रावधानों को 10 साल से अधिक समय दिया जाए। लेकिन इस समुदाय के उन्नत होने के बावजूद, इस प्रावधान को तक सात दशकों तक खींचा गया।
एंग्लो-इंडियन के सदस्यों का संसद में नामांकन औपनिवेशिक दाशता का परिचायक से ज्यादा कुछ नहीं था। समय के साथ, इस एंग्लो-भारतीयों के नामांकन को अलोकतांत्रिक तरीके से इस्तेमाल किया जाने लगा, क्योंकि सत्ता पक्ष अक्सर चुनाव में एंग्लो-इंडियन सदस्य को मनोनीत करके संसद की संख्याओं में हेर-फेर करने का तरीका ढूंढती रहती थी। ऐसे मामले भी देखने को मिले थे जब सरकार को बहुमत को साबित करने के लिए एक सदस्य भी हार का कारण बना।
TFI ने पहले ही लोकसभा और विधानसभाओं में एंग्लो-इंडियन समुदाय को कोटा की निरर्थकता को अपने लेख द्वारा बताया था, और अब मोदी सरकार को भी लगता है कि यह एक ऐतिहासिक भूल थी जिसे पूरी तरह से समाप्त करना चाहिए। इससे स्वतन्त्रता के 72 वर्ष बाद राष्ट्र को औपनिवेशिक बोझ से छुटकारा पाने के जैसा देखना चाहिए।